महाराणा प्रताप: Difference between revisions
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Revision as of 07:29, 7 November 2017
महाराणा प्रताप
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पूरा नाम | महाराणा प्रताप |
जन्म | 9 मई, 1540 ई. |
जन्म भूमि | कुम्भलगढ़, राजस्थान |
मृत्यु तिथि | 29 जनवरी, 1597 ई. |
पिता/माता | पिता- महाराणा उदयसिंह, माता- रानी जीवत कँवर |
राज्य सीमा | मेवाड़ |
शासन काल | 1568–1597 ई. |
शा. अवधि | 29 वर्ष |
धार्मिक मान्यता | हिंदू धर्म |
युद्ध | हल्दीघाटी का युद्ध |
राजधानी | उदयपुर |
पूर्वाधिकारी | महाराणा उदयसिंह |
उत्तराधिकारी | राणा अमर सिंह |
राजघराना | राजपूताना |
वंश | सिसोदिया राजवंश |
संबंधित लेख | राजस्थान का इतिहास, महाराणा उदयसिंह, सिसोदिया राजवंश, उदयपुर, मेवाड़, अकबर, मानसिंह |
अन्य जानकारी | महाराणा प्रताप ने एक प्रतिष्ठित कुल के मान-सम्मान और उसकी उपाधि को प्राप्त किया था, परन्तु उनके पास न तो राजधानी थी और न ही वित्तीय साधन। बार-बार की पराजयों ने उनके स्वबन्धुओं और जाति के लोगों को निरुत्साहित कर दिया था। फिर भी उनके पास अपना जातीय स्वाभिमान था। |
महाराणा प्रताप (अंग्रेज़ी: Maharana Pratap, जन्म- 9 मई, 1540 ई. कुम्भलगढ़, राजस्थान; मृत्यु- 29 जनवरी, 1597 ई.)[1] का नाम भारतीय इतिहास में वीरता और दृढ़ प्रतिज्ञा के लिए अमर है। वे उदयपुर, मेवाड़ में सिसोदिया राजवंश के राजा थे। वह तिथि धन्य है, जब मेवाड़ की शौर्य-भूमि पर 'मेवाड़-मुकुट मणि' राणा प्रताप का जन्म हुआ। वे अकेले ऐसे वीर थे, जिसने मुग़ल बादशाह अकबर की अधीनता किसी भी प्रकार स्वीकार नहीं की। वे हिन्दू कुल के गौरव को सुरक्षित रखने में सदा तल्लीन रहे। महाराणा प्रताप की जयंती विक्रमी सम्वत् कॅलण्डर के अनुसार प्रतिवर्ष ज्येष्ठ, शुक्ल पक्ष तृतीया को मनाई जाती है।[2]
परिचय
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राजस्थान के कुम्भलगढ़ में राणा प्रताप का जन्म सिसोदिया राजवंश के महाराणा उदयसिंह एवं माता रानी जीवत कँवर के घर 9 मई, 1540 ई. को हुआ था। रानी जीवत कँवर का नाम कहीं-कहीं जैवन्ताबाई भी उल्लेखित किया गया है। वे पाली के सोनगरा राजपूत अखैराज की पुत्री थीं। प्रताप का बचपन का नाम 'कीका' था। मेवाड़ के राणा उदयसिंह द्वितीय की 33 संतानें थीं। उनमें प्रताप सिंह सबसे बड़े थे। स्वाभिमान तथा धार्मिक आचरण उनकी विशेषता थी। प्रताप बचपन से ही ढीठ तथा बहादुर थे। बड़ा होने पर वे एक महापराक्रमी पुरुष बनेंगे, यह सभी जानते थे। सर्वसाधारण शिक्षा लेने से खेलकूद एवं हथियार बनाने की कला सीखने में उनकी रुचि अधिक थी।[3]
राज्याभिषेक
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प्रताप सिंह के काल में दिल्ली पर मुग़ल बादशाह अकबर का शासन था। हिन्दू राजाओं की शक्ति का उपयोग कर दूसरे हिन्दू राजाओं को अपने नियंत्रण में लाना, यह मुग़लों की नीति थी। अपनी मृत्यु से पहले राणा उदयसिंह ने अपनी सबसे छोटी पत्नी के बेटे जगमल को राजा घोषित किया, जबकि प्रताप सिंह जगमल से बड़े थे। प्रताप सिंह अपने छोटे भाई के लिए अपना अधिकार छोड़कर मेवाड़ से निकल जाने को तैयार थे, किंतु सभी सरदार राजा के निर्णय से सहमत नहीं हुए। अत: सबने मिलकर यह निर्णय लिया कि जगमल को सिंहासन का त्याग करना पड़ेगा। प्रताप सिंह ने भी सभी सरदार तथा लोगों की इच्छा का आदर करते हुए मेवाड़ की जनता का नेतृत्व करने का दायित्व स्वीकार किया। इस प्रकार बप्पा रावल के कुल की अक्षुण्ण कीर्ति की उज्ज्वल पताका, राजपूतों की आन एवं शौर्य का पुण्य प्रतीक, राणा साँगा का यह पावन पौत्र (विक्रम संवत 1628 फाल्गुन शुक्ल 15) तारीख़ 1 मार्च सन 1573 ई. को सिंहासनासीन हुआ।
प्रताप और चेतक
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भारतीय इतिहास में जितनी महाराणा प्रताप की बहादुरी की चर्चा हुई है, उतनी ही प्रशंसा उनके घोड़े चेतक को भी मिली। कहा जाता है कि चेतक कई फीट उंचे हाथी के मस्तक तक उछल सकता था। कुछ लोकगीतों के अलावा हिन्दी कवि श्यामनारायण पांडेय की वीर रस कविता 'चेतक की वीरता' में उसकी बहादुरी की खूब तारीफ़ की गई है। हल्दीघाटी के युद्ध में चेतक, अकबर के सेनापति मानसिंह के हाथी के मस्तक की ऊँचाई तक बाज की तरह उछल गया था। फिर महाराणा प्रताप ने मानसिंह पर वार किया। जब मुग़ल सेना महाराणा के पीछे लगी थी, तब चेतक उन्हें अपनी पीठ पर लादकर 26 फीट लंबे नाले को लांघ गया, जिसे मुग़ल फौज का कोई घुड़सवार पार न कर सका। प्रताप के साथ युद्ध में घायल चेतक को वीरगति मिली थी।
हल्दीघाटी
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उदयपुर से नाथद्वारा जाने वाली सड़क से कुछ दूर हटकर पहाड़ियों के बीच स्थित हल्दीघाटी इतिहास प्रसिद्ध वह स्थान है, जहाँ 1576 ई. में महाराणा प्रताप और अकबर की सेनाओं के बीच घोर युद्ध हुआ। इस स्थान को 'गोगंदा' भी कहा जाता है। अकबर के समय के राजपूत नरेशों में महाराणा प्रताप ही ऐसे थे, जिन्हें मुग़ल बादशाह की मैत्रीपूर्ण दासता पसन्द न थी। इसी बात पर उनकी आमेर के मानसिंह से भी अनबन हो गई थी, जिसके फलस्वरूप मानसिंह के भड़काने से अकबर ने स्वयं मानसिंह और सलीम (जहाँगीर) की अध्यक्षता में मेवाड़ पर आक्रमण करने के लिए भारी सेना भेजी। 'हल्दीघाटी की लड़ाई' 18 जून, 1576 ई. को हुई थी। राजपूताने की पावन बलिदान-भूमि के समकक्ष, विश्व में इतना पवित्र बलिदान स्थल कोई नहीं है। उस शौर्य एवं तेज़ की भव्य गाथा से इतिहास के पृष्ठ रंगे हैं। भीलों का अपने देश और नरेश के लिये वह अमर बलिदान राजपूत वीरों की वह तेजस्विता और महाराणा का वह लोकोत्तर पराक्रम इतिहास और वीरकाव्य का परम उपजीव्य है।
मानसिंह से भेंट
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शोलापुर की विजय के बाद मानसिंह वापस हिन्दुस्तान लौट रहा था। तब उसने राणा प्रताप से, जो इन दिनों कमलमीर में थे, मिलने की इच्छा प्रकट की। कमलमीर उदयपुर के निकट 3568 फुट ऊँची पहाड़ी पर बसा हुआ एक ऐतिहासिक स्थान है। यहाँ प्रताप ने हल्दीघाटी के युद्ध के पश्चात् अपनी राजधानी बनाई थी। चित्तौड़गढ़ के विध्वंस (1567 ई.) के पश्चात् उनके पिता राणा उदयसिंह ने उदयपुर को अपनी राजधानी बनाया था, किंतु प्रताप ने कमलमीर में रहना ही ठीक समझा; क्योंकि यह स्थान पहाड़ों से घिरा होने के कारण अधिक सुरक्षित था। कमलमीर की स्थिति को उन्होंने और भी अधिक सुरक्षित करने के लिए पहाड़ी पर कई दुर्ग बनवाए। अकबर के प्रधान सेनापति आमेर नरेश मानसिंह और प्रताप की प्रसिद्ध भेंट यहीं हुई थी, जिसके बाद मानसिंह रुष्ट होकर चला गया और मुग़ल सेना ने मेवाड़ पर चढ़ाई की।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ Maharana Pratap
- ↑ मेवाड़ का वीर योद्धा महाराणा प्रताप (हिन्दी) वेब दुनिया। अभिगमन तिथि: 11 मई, 2015।
- ↑ मेवाड़ के महान् राजा, महाराणा प्रताप सिंह (हिन्दी) उगता भारत। अभिगमन तिथि: 17 मई, 2015।