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वास्तुकला एवं मूर्तिकला

प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय वास्तुकला के बारे में एक अद्भुत तथ्य यह है कि मूर्तिकला उसका एक अविभाज्य अंग थी। इस संदर्भ में सिधु घाटी की संस्कृति ही शायद एकमात्र अपवाद है, क्योंकि उसकी इमारतें उपयोगितावादी हैं, पर उनमें कलात्मक कौशल नहीं है। हो सकता है, समय के साथ उनकी अलंकारमय सजावट नष्ट हो गई हो। हालांकि मूर्तिकला विकसित थी।

सिंधु घाटी की मूर्तियाँ और मोहरें

हालांकि इसे 'सिंधु घाटी' या 'हड़प्पा' संस्कृति कहा गया, पर यह सभ्यता इससे ज्यादा दूर-दूर तक फैली हुई थी और प्रकट रूप से बहुत विकसित थी। पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर, इस संस्कृति के फलने-फूलने के मुख्य काल-उसके परिपक्व शहरी चरण के, 2100 से 1750 ई.पू. के बीच कभी होने का अनुमान है, जबकि सिंधु घाटी के प्रकार की कलात्मक वस्तुएं मेसोपोटामिया में 2300 ई.पू. के करीब तक मिली हैं। मकानों के निर्माण में सामग्री की उत्कृष्टता तथा दुर्ग, सम्मेलन सभागारों, अनाज के गोदामों कार्यशालाओं, छात्रावासों, बाजारों आदि की मौजूदगी तथा आधुनिक जल निकास प्रणाली वाले भव्य नगरों के समान वैज्ञानिक ले-आउट देखकर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उस काल की संस्कृति काफी समृद्ध थी। स्वाभाविक था कि कला और शिल्प उस समाज में उन्नत अवस्था में थे। इस सभ्यता की कला के बचे नमूनों में से सबसे खूबसूरत शायद पतली छड़ी जैसे लड़की की लघु कांस्य मूर्ति है, जिसने अपने हाथों में एक कटोरा पकड़ा हुआ है। चूना पत्थर और लाल पत्थर के दो खंडित धड़ भी हैं। जो हड़प्पा से मिले थे।

इन सभी मूर्तिशिल्पों में से सबसे सुरक्षित हैं। एक व्यक्ति का सात इंच ऊंचा सिर और कंधा, जिसके चेहरे पर छोटी सी दाढ़ी और बारीक कटी हुई मूंछे हैं तथा उसका शरीर एक शॉल में लिपटा है जो बाएं कंधे के ऊपर और दाई बाँह के नीचे से होकर गयी है, जो लगता है कि किसी पुजारी की छवि है। इस मूर्ति और मोहनजोदड़ो से मिले अन्य दाढ़ी वाले सिरों तथा सुमेरिया के मूर्तिसंग्रह में कुछ समानता है।

टेराकोटा की विविध वस्तुएं भी है। जिनमें सभी प्रकार की छोटी-छोटी आकृतियाँ और अलग-अलग आकारों और डिजाइनों के सेरामिक पात्र शामिल हैं। मिट्टी से बनी जानवरों की आकृतियाँ खासतौर पर बहुत लुभावनी लगती हैं, जिन्हें खिलौनों के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता होगा, क्योंकि वह खेलने के अंदाज में बनी हैं और छोटी-छोटी भी हैं। अनेक मर्तबानों और कटोरों पर ऐसे डिजाइन चित्रित हैं, जिन्हें आमतौर पर प्रकृति से लिया गया है और उनका संबंध उर्वरता से होता है।

सिंधु क्षेत्र में पायी गयी अन्य बहुत सी वस्तुओं में सील (मुहर) की अनेक चौकोर छोटी-छोटी वे आकृतियाँ भी थीं जिन्हें कई प्रकार के डिजाइनों में अभिचित्रत किया गया था। ये सील उन लोगों की हो सकती थीं जिन्होंने इनका उपयोग सम्पत्ति चिन्हित करने अथवा अन्य अनुबंधों को मजबूती प्रदान करने के लिए किया होगा। प्रिज्म आकार की सीलों की ये आकृतियाँ संभवत: उन अनुबंधों के रिकार्ड के लिए थीं। कुछ सीलों में बैल की अनेक आकृतियाँ बनी हुई मिलीं है, जबकि कुछ अन्य सीलों में अन्य जानवरों की आकृतियाँ थीं। विशेषज्ञों के मतानुसार, सीलों में अभिचित्रित आकृतियाँ विश्व के कुछ उन महान उद्धहरणों में हैं जो तत्कालीन कलाकारों की महान क्षमता को दर्शाती हैं। इससे स्पष्ट होता है कि उस समय भी कलात्मक आकार देने में कलाकारों का कोई जवाब नहीं था। यद्यपि वे किसी विशेष बैलों की आकृतियाँ नहीं हैं, फिर भी वे विशेष प्रकार की जातियों का प्रतिनिधित्व करती थीं। दो हजार से अधिक सीलें तथा चार सौ से अधिक विभिन्न प्रकार की सीलों के अन्य आकार सिंधु घाटी में पाये गये तथापि अभी भी उनके बारे में कोई पुष्ट अभिलेख और तत्संबंधी जानकारी अनुपलब्ध है। बहरहाल, प्राचीन सभ्यता संबंधी हमारा ज्ञान कई परिप्रेक्ष्यों में अभी तक अपर्याप्त ही है।

मौर्यकालीन कला

हड़प्पा युग और मौर्य काल के बीच के अनेक पुरातात्विक अवशेष हमारे पास नहीं हैं। ऐसा संभवत: इस वजय से हुआ, क्योंकि उस काल में भवन पत्थर के नहीं बनते थे। मौर्य शासन काल हमारे सांस्कृतिक इतिहास का एक महत्वपूर्ण युग है।

यद्यपि मौर्यों द्वारा निर्मित भवनों के अवशेष हमारे बीच नहीं हैं पर मौर्य शासन काल की कई बातों का जिक्र ग्रीक इतिहासकार मेगास्थनीज ने अपनी पुस्तक 'इण्डिका' में किया है। इसमें मौर्यो की राजधानी पाटलिपुत्र शहर के वैभव एवं उसकी सत्ता के बारे में भी उल्लेख किया गया है। पाटलिपुत्र शहर दस मील लंबा और दो मील चौड़ा था, जो मजबूत लकड़ी की दीवारों से घिरा हुआ था। उसमें 500 टॉवर और 64 दरवाजे थे। उसके भीतर शाही महल था जो अपने आकार में ईरान के शाही महल की नकल पर बना था। चंद्रगुप्त के पौत्र अशोक ने बौद्ध धर्म अपनाया और कला तथा प्राचीन सभ्यता संस्कृति के विकास के लिए बौद्ध मिशनरियों की गतिविधियों का विस्तार किया। 1400 ईसवी के आस-पास जब चीनी बौद्ध यात्री फ़ाह्यान भारत आया, तब उसने शाही महल को खड़े हुए देखा था। शाही महल के साथ-साथ दीवारों दरवाजों तथा अन्य कलाकृतियों को देखकर वह इतना प्रभावित हुआ कि उसे विश्वास ही नहीं हुआ कि उनका निर्माण मानव कलाकारों-चित्रकारों के हाथों हुआ होगा।

स्तंभ

अशोक ने अपने शासन काल में स्तंभों का निर्माण बड़े पैमाने पर कराया था। इन स्तंभों को उसने बौद्ध धर्म, संस्कृति एवं सभ्यता के प्रचार प्रसार के साथ अन्य महत्वपूर्ण कार्यों एवं घटनाक्रमों के प्रतीक के रूप में लगवाया था। अशोक के शासनकाल के दौरान लगाये गये श्वेत-भूरे पत्थर उसके पूरे राज्य में देखे जा सकते थे। अशोक द्वारा लगाये गये उन स्तंभों में अनेक स्तंभों में बौद्ध धर्म की इबारतें भ लिखी हुई थीं। स्तंभों के माध्यम से उसने बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार किया।

अशोक के शासन काल में लगे स्तंभ तकरीबन 40 फीट ऊंचे होते थे। उन स्तंभो में कलाकृतियाँ भी अभिचित्रित थीं। उनमें पुष्पदल, घंटी-जैसी आकृतियों के साथ साथ जानवर भी चित्रित होते थे। स्तंभ के चारों ओर जानवरों की आकृतियाँ दिखायी देती थीं। जिनमें सिंह बैल अथवा हाथी मुख्यत: होते थे।

रामपुरवा से मिले वृषभस्तंभ[1] में वृषभ को कुछ इस तरह से दिखाया गया है-जिस तरह के चित्र सिंधु घाटी की खुदाई से प्राप्त पुरानी सीलों पर चित्रित थे। माना जाता है कि वे प्राचीन पंरपरा की वे एक कड़ी के रूप में हैं। सारनाथ, जहाँ बुद्ध ने अपना पहला व्याख्यान दिया, वहाँ सिंह स्तंभ लगे थे। उस स्तंभ में बैल, घोड़ा, सिंह और हाथी क्रमवार अंकित थे, उनके बीच में चक्र था। जो वाहन का प्रतीक था। ऐसा लगता है कि वह स्तंभ धर्म का वाहन था। यह स्तंभ मूल रूप से विशाल पत्थर का है जिसमें पाहिये हैं और उस स्तंभ के ऊपर सिंहों की आकृतियाँ अंकित है। उस स्तंभ में अंकित आकृतियाँ प्राचीन काल का अद्भुत नमूना हैं। और उसमें चित्रित्र कलाकृतियाँ इस खूबसूरती से ढ़ीली गयीं कि जिनकी प्रसिद्धि आज भी विद्यमान है। इसी के साथ वे भारत की प्राचीन महान कलात्मक उपलब्धियों की भी परिचायक हैं।

पत्थर निर्मित वास्तुकला

अशोक के शासनकाल में दक्षिण एशिया की सबसे विशिष्ट और अतिमहत्वपूर्ण पत्थर निर्मित वास्तुकला परंपरा भी देखने को मिलती है। बिहार में गया के निकट बाराबार और नागार्जुनी पहाड़ियों में पत्थर निर्मित वास्तुकला की अनेक श्रंखलाएं परिलक्षित हैं। उनमें अभिचित्रित अनेक अभिलेखों से यह पता चलता है कि वे कुछ आजीवक संन्यासियों, संभवत: जैन धर्म के अनुयायियों को निवास हेतु दी गई थीं। पुरातात्विक दृष्टिकोण से वे भारत में पत्थर निर्मित वास्तुकला शैली का एक प्रारंभिक उदाहरण हैं। तत्कालीन युग में बनने वाले लकड़ी और घासफूस के ढांचों का वे प्रतीक हैं। सुदामा और लोभास ऋषि गुफाएं दो प्रसिद्ध ऋषि आश्रम थे। उन गुफाओं में प्रवेश द्वार के साथ-साथ वृत्ताकर कमरे, गोलाकार छत और गोलीय कोठरियाँ बनीं होती थीं।

स्तूप

अशोक के शासन काल के पहले भी भारत में स्तूप जैसी चीजें ज्ञात थीं। मूलरूप से वैदिक आर्यों ने इंटों और साधारण मिट्टी से उनका निर्माण किया था। मौर्यकाल के पहले इस तरह के स्तूपों के उदाहरण नहीं मिलते हैं। अशोक के शासनकाल में बुद्ध के शरीर को ध्यान में रखकर स्मृति चिन्हों का निर्माण किया गया और यही स्तूप पूजा के साधन बने। बौद्ध कला और धर्म में स्तूप को भगवान बुद्ध के स्मृति चिन्ह के रूप में स्वीकार किया गया। स्तूप अंदर से कच्ची ईटों से तथा बाहरी खोल पक्की ईटों से बनाये गये और फिर उनमें हल्का प्लास्टर चढ़ाया गया। स्तूप को ऊपर से लकड़ी अथवा पत्थर की छतरी से सुसज्जित किया गया और प्रदक्षिणा के लिए चारों ओर लकड़ी का मार्ग भी बनाया गया।

मानवीय आकृतियाँ

मौर्यकाल की मानवीय आकृतियों का प्रदर्शन करने वाली अनेक पत्थर की कलाकृतियाँ भी पायी गयी हैं। उनमें एक है- चौरी महिला की संरक्षित प्रतिमूर्ति जो पटना संग्रहालय में रखी हुई है। यह मूर्ति दीदारगंज के निवासियों को मिली थी। उसमें प्रयोग की गयी पालिश और रख-रखाव की तकनीक निसंदेह रूप से मौर्य काल की है।

इस मूर्ति के शरीर के निचले हिस्से में वस्त्र हैं। इसके अतिरिक्त उस महिला ने कानों, बाहों और गले में बड़ी मात्रा में आभूषण पहने हुए हैं। इस प्रतिमूर्ति को भारतीय कला जगत के विकास की एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में देखा जाता है। इसी के साथ, चिपके निचले वस्त्र, वस्त्रहीन धड़ एवं प्रचूर आभूषण आम हो गये।

प्रारंभिक कला: शुंग एवं सातवाहन साहित्य

मौर्यों के बाद उत्तर भारत में (184 ईसा पूर्व) मुख्यत: सत्ता में शुंग रहे। सातवाहनों के पास दक्षिण पश्चिम क्षेत्र था। इन दोनों के शासनकाल में कला रचनात्मक गतिविधि के चरण में पहुंची, जिसने बौद्ध धर्म के सहारे और उसको मुख्य स्त्रोत बनाते हुए घरेलू कलात्मक आंदोलन का एक साथ प्रतिनिधित्व किया। इस युग को प्रारंभिक कला के रूप में कला के इतिहास का दौरा कहा जाता है। शुंग-सातवाहन युग की कला का प्रभाव उत्तर भारत के बोधगया, सांची और भरहुत में बौद्ध आश्रमों के प्रवेश द्वार और रेलिंग में स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है, जिन्हें स्तूप कहा जाता है, तो पश्चिमी भारत में पीतलखोरा, कोण्डाने और भाजा में पत्थर निर्मित गुफा-आश्रमों के चिन्ह स्पष्ट परिलक्षित हैं। भारतीय कला क्षेत्र में कला का जो प्रारंभिक दौर है वह कला के विकास का रचनात्मक युग है, जिसकी नीव इस तरह से रखी गयी कि वह भारतीय वास्तु और शिल्प के उच्च बौद्धिक और शहरी स्तर के विकास में सहयोग कर सके। फिर भी कला के विकास का यह प्रारंभिक दौर सौदर्यपूर्ण आंदोलन का युग रहा जो कुषाण के शासन काल में कला के विकास के महानतम युग में प्रविष्ट हुआ।

कुषाण काल

साम्राज्यवाद का कुषाण युग, इतिहास का एक महानतम आंदोलन रहा, यह उत्तर पूर्वी भारत तथा पश्चिमी पाकिस्तान, (वर्तमान अफगानिस्तान) तक फैला था। ईसवीं की पहली शताब्दी तीसरी शताब्दी के बीच कुषाण एक राजनीतिक सत्ता के रूप में विकसित हुए और उन्होंने इस दौरान अपने राज्य में कला का बहुमुखी विकास किया। भारतीय कला जगत का परिपक्व युग यहीं से प्रारंभ होता है।

कनिष्क प्रथम, जो कुषाण राज परिवार का तीसरा सदस्य था, ने अपने शासन काल में पूर्ण रूप से आधिपत्य स्थापित किया और उसके शासनकाल में बौद्ध धर्म और कला, सांस्कृति गतिविधियों का बड़े पैमाने पर प्रचार-प्रसार और विकास हुआ। कुषाण शासनकाल में कुषाण कला के दो मुख्य क्षेत्र थे। कलात्मक गतिविधियों का केंद्र उत्तर-पश्चिम की काबुल घाटी के क्षेत्र का गांधार अंचल और पेशावर के आस-पास का ऊपरी सिंधु क्षेत्र मथुरा में जहाँ हेलनी और ईरानी कला का विकास हुआ और उत्तर भारत में कुषाणों की शीतकालीन राजधानी भी भारतीय शैली की कला का प्रचलन रहा।

कुषाण कला की जो सबसे प्रमुख बात रही, वह यह थी कि उसने सम्राट को एक देवीय शक्ति के रूप में ही प्रतिपादित किया। कई संदर्भों से इस बात को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। उनमें एक उदाहरण तो कुषाण शासन काल के सिक्के हैं। इसके अतिरिक्त महत्वपूर्ण आश्रम हैं, जिनसे पता चलता है कि सम्राट को किस तरह दैवीय शक्ति के रूप में प्रचालित किया जाता था। पहले बौद्ध कलाकर अपनी कलाकृतियों में बुद्ध के अस्तित्व और उनकी उपस्थिति का ही मुख्यरूप से रेखांकन करते थे, वहीं कुषाण शासनकाल में बुद्ध को एक मानवीय रूप में प्रस्तुत किया गया। हालांकि अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि बुद्ध की पहली मूर्ति कहाँ बनी। अधिकांश भारतीय शिक्षाशास्त्रियों की राय हैं कि बुद्ध की पहली मूर्ति मूल रूप से मथुरा में ही बनायी गयी न कि गांधार में जैसा कहा जाता है।