तीर्थंकर पार्श्वनाथ

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[[चित्र:23rd-Tirthankara-Parsvanatha-Jain-Museum-Mathura-9.jpg|250px|thumb|तीर्थंकर पार्श्वनाथ
Tirthankara Parsvanatha
राजकीय जैन संग्रहालय, मथुरा]]

  • अरिष्टेनेमि के एक हज़ार वर्ष बाद तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ हुए, जिनका जन्म वाराणसी में हुआ।
  • इनके पिता राजा अश्वसेन और माता वामादेवी थीं।
  • एक दिन कुमार पार्श्व वन-क्रीडा के लिए गंगा के किनारे गये। जहाँ एक तापसी पंचग्नितप कर रहा था। वह अग्नि में पुराने और पोले लक्कड़ जला रहा था। पार्श्व की पैनी दृष्टि उधर गयी और देखा कि उस लक्कड़ में एक नाग-नागिन का जोड़ा है और जो अर्धमृतक-जल जाने से मरणासन्न अवस्था में है। कुमार पार्श्व ने यह बात तापसी से कही। तापसी झुंझलाकर बोला – ‘इसमें कहाँ नाग-नागिन है? और जब उस लक्कड़ को फाड़ा, उसमें मरणासन्न नाग-नागिनी को देखा। पार्श्व ने ‘णमोकारमन्त्र’ पढ़कर उस नाग-नागिनी के युगल को संबोधा, जिसके प्रभाव से वह मरकर देव जाति से धरणेन्द्र पद्मावती हुआ।
  • जैन मन्दिरों में पार्श्वनाथ की अधिकांश मूर्तियों के मस्तक पर जो फणामण्डल बना हुआ देखा जाता है वह धरणेन्द्र के फणामण्डल मण्डप का अंकन है, जिसे उसने कृतज्ञतावश योग-मग्न पार्श्वनाथ पर कमठ द्वारा किये गये उपसर्गों के निवारणार्थ अपनी विक्रिया से बनाया था।

[[चित्र:Canopied-Head-Of-Parsvanatha-Mathura-Museum-56.jpg|250px|thumb|तीर्थंकर पार्श्वनाथ का सिर
Canopied Head Of Parsvanatha
राजकीय जैन संग्रहालय, मथुरा|left]]

  • उपर्युक्त घटना से प्रतीत होता है कि पार्श्व के समय में कितनी मूढ़ताएं-अज्ञानताएं धर्म के नाम पर लोक में व्याप्त थीं।
  • पार्श्वकुमार इसी निमित्त को पाकर विरक्त हो प्रव्रजित हो गये, न विवाह किया और न राज्य किया। कठोर तपस्या कर तीर्थंकर केवली बन गये और जगह-जगह पदयात्रा करके लोक में फैली मूढ़ताओं को दूर किया तथा सम्यक् तप, ज्ञान का सम्यक् प्रचार किया।
  • अन्त में बिहार प्रदेश में स्थित सम्मेद-शिखर पर्वत से, जिसे आज ‘पार्श्वनाथ हिल’ कहा जाता है, तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने मुक्ति-लाभ किया।
  • इनकी ऐतिहासिकता के प्रमाण प्राप्त हो चुके हैं और उनके अस्तित्व को मान लिया गया है।
  • प्रसिद्ध दार्शनिक सर राधाकृष्णन ने भी अपने भारतीय दर्शन में इसे स्वीकार किया है।


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