महल गुलआरा

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महल गुलहारा बुरहानपुर से लगभग 21 किमी. की दूरी पर, अमरावती रोड पर स्थित ग्राम सिंघखेड़ा से उत्तर की दिशा में है। फ़ारूक़ी बादशाहों ने पहाड़ी नदी बड़ी उतावली के रास्ते में लगभग 300 फुट लंबी एक सुदृढ  दीवार बाँधकर पहाड़ी जल संग्रह कर सरोवर बनाया और जलप्रपात रूप में परिणित किया। जब शाहजहाँ अपने पिता जहाँगीर के कार्यकाल में शहर बुरहानपुर आया था, तब ही उसे  'गुलआरा' नाम की गायिका से प्रेम हो गया था। 'गुलआरा' अत्यंत सुंदर होने के साथ अच्छी गायिका भी थी। इस विशेषता से शाहजहाँ उस पर मुग्ध हुआ। वह उसे दिल-ओ-जान से चाहने लगा था। उसने विवाह कर उसे अपनी बेगम बनाया और उसे 'गुलआरा' की उपाधि प्रदान  की थी। शाहजहाँ ने करारा गाँव में उतावली नदी के किनारे दो सुंदर महलों का निर्माण  कराया और इस गांव के नाम को परिवर्तित कर बेगम के नाम से 'महल गुलआरा' कर दिया।[1]

सौन्दर्य वर्णन

शाहजहाँ इस स्थान को प्रारंभ से ही पसंद करता था। इसीलिए इस स्थान को आकर्षक बनाने के लिए उसने यहाँ सुंदर उद्यान लगाये थे और इसे पर्यटन का उत्तम श्रेणी का केंद्र बनाया था। वह सदैव चाँदनी रात में इस जल प्रपात के सौंदर्य का आनंद लेने आता था और घंटों बैठकर संगीत का आनंद लेता था। इस स्थान की सुंदरता और आकर्षण से प्रभावित होकर 'बादशाहनामा' के लेखक अब्दुल हमीद लाहौरी ने इसे 'ताज़गी-ए-हयात' (जीवनामृत) की उपमा दी है। 'शाहजहाँनामा' के लेखक ने इस स्थान की सुंदरता से प्रभावित होकर इसे 'कश्मीर' संबोधित किया है। फ़ारसी के प्रसिद्ध कवि मुहिब अली सिंधी, जो शाहजहाँ के प्रिय कवि थे, उन्होंने भी यहाँ के प्राणवर्धक दृश्य देखकर इसे महान वैकुण्ठ की उपमा से विभूषित किया है। बुरहानपुर के एक प्रसिद्ध सूफ़ी संत हजरत ख्वाजा मोहम्मद हाश्म काश्मी, जो फ़ारसी के उच्च कोटि के कवि थे, उन्होंने भी यहाँ के सुंदर दृश्य देखकर फ़ारसी भाषा में एक शायरी कही, जिसका अर्थ यह है कि - "ए जलप्रपात आखिर तुझे किस बात का दुख है कि, तू मेरी तरह तमाम रात अपने सिर को पत्थर मार रहा था और रो रहा था"।[1]

निर्माण शैली

पूर्व और पश्चिम दिशा में ईंट और चूना पत्थर से निर्मित दोनों महल एक जैसे बनाये गये हैं। महलों में दो बडे कक्ष हैं, जो बहुत ही सुंदर हैं। महलो की छत पर पहुँचने के लिए मध्य भाग में बाहर की तरफ़ से सीढ़िदार जीना है, जिनके द्वारा महलों के ऊपरी भाग पर जाते हैं। छत से दूर-दूर तक के दृश्य हरे-भरे खेत, जलप्रपात आकर्षक दिखाई  देते हैं। दोनों महल मजबूत स्तंभों पर कमानें देकर निर्मित किए गए हैं। उन कमानों के नीचे पानी बहता है। बरसात की बाढ़ के पानी  से इसी कारण महल अभी तक क्षतिग्रस्त नहीं हो पाए हैं। यांत्रिकीय और तकनीकीय तत्कालीन उत्कृष्टता की कल्पना इस निर्मिति से सहज ही की जा सकती है। वेग से बहते और 30 फुट ऊपर से गिरते जल की प्रकम्पित आवाज़ से मन काँप-काँप सा जाता है। जलधारा की हल्की धुएँ सी पानी की फुहार बूंदें, जो मोतियों की सी झरती है, बहुत आकर्षक दृश्य देखकर मन झूम-झूम जाता है।

बाग-ए-आलमआरा

एक महल से दूसरे महल तक पहुँचने के लिए सुंदर सीढ़िदार रास्ता बनाया गया है। थोड़े-थोडे  अंतर से आठ पहलू वाले सुंदर चबूतरे बनाये गये हैं। इन चबूतरों पर बैठकर जलप्रपात का सौंदर्य और ऊँचे-ऊँचे महल देखते ही बनते हैं। थका-माँदा इंसान अपनी थकान भूलकर सुंदर दृश्य मे खो सा जाता है। शाहजहाँ ने अपनी पुत्री शहजादी "बागे आलमआरा" के नाम से जैनाबाद के समीप ताप्ती नदी के किनारे बाग़ (उद्यान) बनाया था, जो इतिहास में "बाग-ए-आलमआरा" के नाम से प्रसिद्ध है। इस उद्यान को सिंचित करने हेतु शाहजहाँ के महल गुलआरा से आहूखाना में पानी आता था। सन् 1803 ई. सिंधिया सरकार फौज ने आहूखाना के पास पड़ाव डाला था, उस समय नहर भूमि में धंस गई थी और पानी आना बंद हो गया था। वर्तमान महल पुरातत्व विभाग के अंतर्गत है। समय-समय पर मरम्मत का काम होता रहता है। साफ-सफाई का भी उचित प्रबंध है।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महल गुलआरा (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 14 मई, 2011।

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