साकेत (महाकाव्य): Difference between revisions
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==== | '''साकेत''' [[राष्ट्रकवि]] [[मैथिलीशरण गुप्त]] की अमर कृति है। इस कृति में [[राम]] के भाई [[लक्ष्मण]] की पत्नी [[उर्मिला]] के विरह का जो चित्रण गुप्त जी ने किया है वह अत्यधिक मार्मिक और गहरी मानवीय संवेदनाओं और भावनाओं से ओत-प्रोत है। साकेत रामकथा पर आधारित है, किन्तु इसके केन्द्र में [[लक्ष्मण]] की पत्नी [[उर्मिला]] है। साकेत में कवि ने उर्मिला और लक्ष्मण के दाम्पत्य जीवन के हृदयस्पर्शी प्रसंग तथा उर्मिला की विरह दशा का अत्यन्त मार्मिक चित्रण किया है, साथ ही [[कैकेयी]] के पश्चात्ताप को दर्शाकर उसके चरित्र का मनोवैज्ञानिक एवं उज्ज्वल पक्ष प्रस्तुत किया है। | ||
प्रेम से उस प्रेयसी ने तब कहा-- | ====पुस्तक अंश==== | ||
<poem>प्रेम से उस प्रेयसी ने तब कहा-- | |||
"रे सुभाषी, बोल, चुप क्यों हो रहा?" | "रे सुभाषी, बोल, चुप क्यों हो रहा?" | ||
पार्श्व से सौमित्रि आ पहुँचे तभी, | पार्श्व से सौमित्रि आ पहुँचे तभी, | ||
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रसिकता में सुरस सरसाती हुई, | रसिकता में सुरस सरसाती हुई, | ||
उर्मिला बोली, "अजी, तुम जग गए? | उर्मिला बोली, "अजी, तुम जग गए? | ||
स्वप्न-निधि से नयन कब से लग गए?" | स्वप्न-निधि से नयन कब से लग गए?"</poem> | ||
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चित्र:Disamb2.jpg साकेत | एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- साकेत (बहुविकल्पी) |
thumb|साकेत का आवरण पृष्ठ साकेत राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की अमर कृति है। इस कृति में राम के भाई लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला के विरह का जो चित्रण गुप्त जी ने किया है वह अत्यधिक मार्मिक और गहरी मानवीय संवेदनाओं और भावनाओं से ओत-प्रोत है। साकेत रामकथा पर आधारित है, किन्तु इसके केन्द्र में लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला है। साकेत में कवि ने उर्मिला और लक्ष्मण के दाम्पत्य जीवन के हृदयस्पर्शी प्रसंग तथा उर्मिला की विरह दशा का अत्यन्त मार्मिक चित्रण किया है, साथ ही कैकेयी के पश्चात्ताप को दर्शाकर उसके चरित्र का मनोवैज्ञानिक एवं उज्ज्वल पक्ष प्रस्तुत किया है।
पुस्तक अंश
प्रेम से उस प्रेयसी ने तब कहा--
"रे सुभाषी, बोल, चुप क्यों हो रहा?"
पार्श्व से सौमित्रि आ पहुँचे तभी,
और बोले-"लो, बता दूँ मैं अभी।
नाक का मोती अधर की कांति से,
बीज दाड़िम का समझ कर भ्रांति से,
देख कर सहसा हुआ शुक मौन है;
सोचता है, अन्य शुक यह कौन है?"
यों वचन कहकर सहास्य विनोद से,
मुग्ध हो सौमित्रि मन के मोद से,
पद्मिनी के पास मत्त-मराल-से,
होगए आकर खड़े स्थिर चाल से।
चारु-चित्रित भित्तियाँ भी वे बड़ी,
देखती ही रह गईं मानों खड़ी।
प्रीति से आवेग मानों आ मिला,
और हार्दिक हास आँखों में खिला।
मुस्करा कर अमृत बरसाती हुई,
रसिकता में सुरस सरसाती हुई,
उर्मिला बोली, "अजी, तुम जग गए?
स्वप्न-निधि से नयन कब से लग गए?"
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