केवली: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
(''''केवली''' जैन दर्शन के अनुसार जीवन्मुक्त पुरुष। केव...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
No edit summary |
||
(One intermediate revision by one other user not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
'''केवली''' जैन दर्शन के अनुसार जीवन्मुक्त | '''केवली''' [[जैन दर्शन]] के अनुसार जीवन्मुक्त पुरुष को कहते हैं। केवल ज्ञान से संपन्न व्यक्ति कहलाता है। उसे चारों प्रकार के प्रतिबंधक कर्मों का क्षय होने से [[कैवल्य ज्ञान|कैवल्य]] की सद्य: प्राप्ति होती है।<ref>तत्वार्थसूत्र 10।1</ref> | ||
केवली में दर्शन तथा ज्ञान की उत्पति को लेकर आचार्यों में पर्याप्त मतभेद है। आवश्यक नियुक्ति के अनुसार केवली में दर्शन | जैन दर्शन के अनुसार केवली जीव के उच्चतम आदर्श तथा उन्नति का सूचक है। प्रतिबंधक कर्मों में मोह की मुख्यता होती है और इसलिये केवल ज्ञान होने पर मोह ही सर्वप्रथम क्षीण होता है और तदनंतर मुहुर्त के बाद ही शेष तीनों प्रतिबंध '''कर्म-ज्ञानावरणीय''', द'''र्शनवरणीय''' तथा '''अंतराय'''-एक साथ क्षीण हो जाते हैं। मोह ज्ञान से अधिक बलवान् होता है; उसके नाश के बाद ही अन्य कर्मों का नाश होता है। | ||
प्रतिबंधकों के क्षय से केवल उपयोग का उदय होता है। उपयोग का अर्थ है - बोधरूप व्यापार। केवल उपयोग का आशय है सामान्य और विशेष दोनों प्रकार का संपूर्ण बोध। इसी दशा में केवली व्यक्ति में सर्वज्ञत्व और सर्वदर्शित्व का उदय होता है। | |||
केवली में [[दर्शन]] तथा ज्ञान की उत्पति को लेकर आचार्यों में पर्याप्त मतभेद है। आवश्यक नियुक्ति के अनुसार केवली में दर्शन<ref>निर्विकल्पक ज्ञान तथा सविकल्पक ज्ञान</ref> का उदय क्रमश: होता है। [[दिगंबर संप्रदाय|दिगंबर]] मान्यता के अनुसार केवली में केवलदर्शन युगपद्<ref>एक साथ</ref>होते हैं। | |||
इस मत के प्रख्यात '''आचार्य कुंदकुंद''' का स्पष्ट कथन है कि जिस प्रकार [[सूर्य]] में [[प्रकाश]] तथा ताप एक साथ रहते हैं, उसी प्रकार केवली के दर्शन और ज्ञान एक साथ रहते है।<ref>नियमानुसार,159)</ref> | |||
तीसरी परंपरा '''सिद्धसेन दिवाकर''' की है जिसके अनुसार केवलज्ञान में किसी प्रकार का अंतर नहीं होता, प्रत्युत ये दोनों अभिन्न होते हैं। केवली ही सर्वज्ञ के नाम से अभिहित होता है, क्योंकि केवलज्ञान का उदय होते ही उसके लिये कोई पदार्थ अज्ञात नहीं रह जाता। विश्व के समस्त पदार्थ केवली के सामने दर्पण के समान प्रतीत होते हैं।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 3|लेखक= |अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक= नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी|संकलन= भारत डिस्कवरी पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=123 |url=}}</ref> | |||
Line 10: | Line 18: | ||
<references/> | <references/> | ||
==संबंधित लेख== | ==संबंधित लेख== | ||
{{जैन | {{जैन धर्म2}} | ||
[[Category:जैन धर्म]][[Category:जैन धर्म कोश]][[Category:जैन दर्शन]][[Category:धर्म कोश]] | [[Category:जैन धर्म]][[Category:जैन धर्म कोश]][[Category:जैन दर्शन]][[Category:धर्म कोश]] | ||
[[Category:हिन्दी विश्वकोश]] | [[Category:हिन्दी विश्वकोश]] | ||
__INDEX__ | __INDEX__ |
Latest revision as of 05:39, 13 January 2020
केवली जैन दर्शन के अनुसार जीवन्मुक्त पुरुष को कहते हैं। केवल ज्ञान से संपन्न व्यक्ति कहलाता है। उसे चारों प्रकार के प्रतिबंधक कर्मों का क्षय होने से कैवल्य की सद्य: प्राप्ति होती है।[1]
जैन दर्शन के अनुसार केवली जीव के उच्चतम आदर्श तथा उन्नति का सूचक है। प्रतिबंधक कर्मों में मोह की मुख्यता होती है और इसलिये केवल ज्ञान होने पर मोह ही सर्वप्रथम क्षीण होता है और तदनंतर मुहुर्त के बाद ही शेष तीनों प्रतिबंध कर्म-ज्ञानावरणीय, दर्शनवरणीय तथा अंतराय-एक साथ क्षीण हो जाते हैं। मोह ज्ञान से अधिक बलवान् होता है; उसके नाश के बाद ही अन्य कर्मों का नाश होता है।
प्रतिबंधकों के क्षय से केवल उपयोग का उदय होता है। उपयोग का अर्थ है - बोधरूप व्यापार। केवल उपयोग का आशय है सामान्य और विशेष दोनों प्रकार का संपूर्ण बोध। इसी दशा में केवली व्यक्ति में सर्वज्ञत्व और सर्वदर्शित्व का उदय होता है।
केवली में दर्शन तथा ज्ञान की उत्पति को लेकर आचार्यों में पर्याप्त मतभेद है। आवश्यक नियुक्ति के अनुसार केवली में दर्शन[2] का उदय क्रमश: होता है। दिगंबर मान्यता के अनुसार केवली में केवलदर्शन युगपद्[3]होते हैं।
इस मत के प्रख्यात आचार्य कुंदकुंद का स्पष्ट कथन है कि जिस प्रकार सूर्य में प्रकाश तथा ताप एक साथ रहते हैं, उसी प्रकार केवली के दर्शन और ज्ञान एक साथ रहते है।[4]
तीसरी परंपरा सिद्धसेन दिवाकर की है जिसके अनुसार केवलज्ञान में किसी प्रकार का अंतर नहीं होता, प्रत्युत ये दोनों अभिन्न होते हैं। केवली ही सर्वज्ञ के नाम से अभिहित होता है, क्योंकि केवलज्ञान का उदय होते ही उसके लिये कोई पदार्थ अज्ञात नहीं रह जाता। विश्व के समस्त पदार्थ केवली के सामने दर्पण के समान प्रतीत होते हैं।[5]
|
|
|
|
|