अशोक का जीवन परिचय: Difference between revisions
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आरंभ में अशोक भी अपने पितामह [[चंद्रगुप्त मौर्य]] और पिता [[बिंदुसार]] की भाँति युद्ध के द्वारा साम्राज्य विस्तार करता गया। [[कश्मीर]], [[कलिंग]] तथा कुछ अन्य प्रदेशों को जीतकर उसने संपूर्ण भारत में अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया, जिसकी सीमाएं पश्चिम में [[ईरान]] तक फैली हुई थीं। परंतु [[कलिंग]] युद्ध में जो जनहानि हुई उसका अशोक के हृदय पर बड़ा प्रभाव पड़ा और वह हिंसक युद्धों की नीति छोड़कर धर्म विजय की ओर अग्रसर हुआ। अशोक की प्रसिद्धि इतिहास में उसके साम्राज्य विस्तार के कारण ही नहीं है | आरंभ में अशोक भी अपने पितामह [[चंद्रगुप्त मौर्य]] और पिता [[बिंदुसार]] की भाँति युद्ध के द्वारा साम्राज्य विस्तार करता गया। [[कश्मीर]], [[कलिंग]] तथा कुछ अन्य प्रदेशों को जीतकर उसने संपूर्ण भारत में अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया, जिसकी सीमाएं पश्चिम में [[ईरान]] तक फैली हुई थीं। परंतु [[कलिंग]] युद्ध में जो जनहानि हुई उसका अशोक के हृदय पर बड़ा प्रभाव पड़ा और वह हिंसक युद्धों की नीति छोड़कर धर्म विजय की ओर अग्रसर हुआ। अशोक की प्रसिद्धि इतिहास में उसके साम्राज्य विस्तार के कारण ही नहीं है वरन् धार्मिक भावना और मानवतावाद के प्रचारक के रूप में भी है। | ||
'''बिन्दुसार की मृत्यु के बाद अशोक सम्राट बना।''' अशोक के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करने में प्रमुख साधन अशोक के [[अशोक के शिलालेख|शिलालेख]] तथा [[अशोक स्तंभ|स्तंभों]] पर उत्कीर्ण [[अभिलेख]] हैं। किन्तु ये अभिलेख अशोक के प्रारम्भिक जीवन पर कोई प्रकाश नहीं डालते। इनके लिए हमें [[संस्कृत]] तथा [[पालि भाषा|पालि]] में लिखे हुए [[बौद्ध]] ग्रंथों पर निर्भर रहना पड़ता है। '''परम्परानुसार अशोक ने अपने भाइयों का हनन करके सिंहासन प्राप्त किया था।''' | '''बिन्दुसार की मृत्यु के बाद अशोक सम्राट बना।''' अशोक के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करने में प्रमुख साधन अशोक के [[अशोक के शिलालेख|शिलालेख]] तथा [[अशोक स्तंभ|स्तंभों]] पर उत्कीर्ण [[अभिलेख]] हैं। किन्तु ये अभिलेख अशोक के प्रारम्भिक जीवन पर कोई प्रकाश नहीं डालते। इनके लिए हमें [[संस्कृत]] तथा [[पालि भाषा|पालि]] में लिखे हुए [[बौद्ध]] ग्रंथों पर निर्भर रहना पड़ता है। '''परम्परानुसार अशोक ने अपने भाइयों का हनन करके सिंहासन प्राप्त किया था।''' | ||
====देवानाम्प्रिय प्रियदर्शी के अर्थ==== | ====देवानाम्प्रिय प्रियदर्शी के अर्थ==== | ||
'देवानाम्प्रिय प्रियदर्शी' इस वाक्यांश में बी.ए. स्मिथ के मतानुसार | 'देवानाम्प्रिय प्रियदर्शी' इस वाक्यांश में बी.ए. स्मिथ के मतानुसार 'देवानाम्प्रिय' आदरसूचक पद है और इसी अर्थ में हमने भी इसको लिया है किंतु देवानाम्प्रिय शब्द (देव-प्रिय नहीं) [[पाणिनी]] के एक सूत्र<ref>[[पाणिनी]] 6,3,21</ref> के अनुसार अनादर का सूचक है। [[कात्यायन]]<ref>ई.पू. 350 सर आर. जी. भंडाकर</ref> इसे अपवाद में रखा है। [[पतंजलि]]<ref> ई. पू. 150</ref> और यहाँ तक कि काशिका (650 ई.) भी इसे अपवाद ही मानते हैं। पर इन सबके उत्तरकालीन वैयाकरण [[भट्टोजिदीक्षित]] इसे अपवाद में नहीं रखते। वे इसका अनादरवाची अर्थ 'मूर्ख' ही करते हैं। उनके मत से 'देवानाम्प्रिय ब्रह्मज्ञान से रहित उस पुरुष को कहते हैं जो [[यज्ञ]] और पूजा से भगवान को प्रसन्न करने का यत्न करता है। जैसे- [[गाय]] दूध देकर मालिक को।<ref>तत्त्वबोधिनी और बालमनोरमा</ref> इस प्रकार एक उपाधि जो [[नंद वंश|नंदों]], [[मौर्य राजवंश|मौर्यों]] और [[शुंग वंश|शुंगों]] के युग में आदरवाची थी। उस महान् राजा के प्रति ब्राह्मणों के दुराग्रह के कारण अनादर सूचक बन गई। | ||
==व्यक्तित्व== | ==व्यक्तित्व== | ||
कुछ इतिहासकारों का मत है कि अशोक ने धार्मिक क्षेत्रों की ओर ध्यान न देकर राष्ट्रीय दृष्टि से हित साधन नहीं किया। इससे भारत का राजनीतिक विकास रूका जबकि उस समय [[रोमन साम्राज्य]] के समान विशाल भारतीय साम्राज्य की स्थापना संभव थी। इस नीति से दिग्विजयी सेना निष्क्रिय हो गई और विदेशी आक्रमण का सामना नहीं कर सकी। इस नीति ने देश को भौतिक समृद्धि से विमुख कर दिया जिससे देश में राष्ट्रीयता की भावनाओं का विकास | कुछ इतिहासकारों का मत है कि अशोक ने धार्मिक क्षेत्रों की ओर ध्यान न देकर राष्ट्रीय दृष्टि से हित साधन नहीं किया। इससे [[भारत]] का राजनीतिक विकास रूका जबकि उस समय [[रोमन साम्राज्य]] के समान विशाल भारतीय साम्राज्य की स्थापना संभव थी। इस नीति से दिग्विजयी सेना निष्क्रिय हो गई और विदेशी आक्रमण का सामना नहीं कर सकी। इस नीति ने देश को भौतिक समृद्धि से विमुख कर दिया जिससे देश में राष्ट्रीयता की भावनाओं का विकास अवरुद्ध हो गया। दूसरी ओर अन्य का मत इससे विपरीत है। वे कहते हैं इसी नीति से भारतीयता का अन्य देशों में प्रचार हुआ। घृणा के स्थान पर सहृदयता विकसित हुई, सहिष्णुता और उदारता को बल मिला तथा बर्बरता के कृत्यों से भरे हुए इतिहास को एक नई दिशा का बोध हुआ। लोकहित की दृष्टि से अशोक ही अपने समकालीन इतिहास का एकमात्र ऐसा शासक है जिसने न केवल मानव की वरन् जीवमात्र की चिंता की। इस मत-विभिन्नता के रहते हुए भी यह विचार सर्वमान्य है कि अशोक अपने काल का अकेला सम्राट था, जिसकी प्रशस्ति उसके गुणों के कारण होती आई है, बल के डर से नहीं। | ||
==निधन== | ==निधन== | ||
इस बात का | इस बात का विवरण नहीं मिलता है कि अशोक के कर्मठ जीवन का अंत कब, कैसे और कहाँ हुआ। तिब्बती परम्परा के अनुसार उसका देहावसान [[तक्षशिला]] में हुआ। उसके एक [[शिलालेख]] के अनुसार अशोक का अंतिम कार्य भिक्षुसंघ में फूट डालने की निंदा करना था। सम्भवत: यह घटना बौद्धों की तीसरी संगति के बाद की है। सिंहली इतिहास ग्रंथों के अनुसार तीसरी संगीति अशोक के राज्यकाल में [[पाटलिपुत्र]] में हुई थी।<ref name="BIK">{{cite book | last =भट्टाचार्य| first =सचिदानंद| title =भारतीय इतिहास कोश | edition = | publisher =उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान| location =लखनऊ| language =हिंदी| pages =28| chapter =}}</ref> | ||
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Latest revision as of 07:41, 7 November 2017
अशोक का जीवन परिचय
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पूरा नाम | राजा[1] प्रियदर्शी देवताओं का प्रिय अशोक मौर्य |
अन्य नाम | 'देवानाम्प्रिय' एवं 'प्रियदर्शी'[2] |
जन्म | 304 ईसा पूर्व (संभावित) |
जन्म भूमि | पाटलिपुत्र (पटना) |
मृत्यु तिथि | 232 ईसा पूर्व |
मृत्यु स्थान | पाटलिपुत्र, पटना |
पिता/माता | बिन्दुसार, सुभद्रांगी (उत्तरी परम्परा), रानी धर्मा (दक्षिणी परम्परा) |
पति/पत्नी | (1) देवी (वेदिस-महादेवी शाक्यकुमारी), (2) कारुवाकी (द्वितीय देवी तीवलमाता), (3) असंधिमित्रा- अग्रमहिषी, (4) पद्मावती, (5) तिष्यरक्षिता[3] |
संतान | देवी से- पुत्र महेन्द्र, पुत्री संघमित्रा और पुत्री चारुमती, कारुवाकी से- पुत्र तीवर, पद्मावती से- पुत्र कुणाल (धर्मविवर्धन) और भी कई पुत्रों का उल्लेख है। |
उपाधि | राजा[1], 'देवानाम्प्रिय' एवं 'प्रियदर्शी' |
राज्य सीमा | सम्पूर्ण भारत |
शासन काल | ईसापूर्व 274[3] - 232 |
शा. अवधि | 42 वर्ष लगभग |
राज्याभिषेक | 272[4] और 270[3] ईसा पूर्व के मध्य |
धार्मिक मान्यता | हिन्दू धर्म, बौद्ध धर्म |
प्रसिद्धि | अशोक महान, साम्राज्य विस्तारक, बौद्ध धर्म प्रचारक |
युद्ध | सम्राट बनने के बाद एक ही युद्ध लड़ा 'कलिंग-युद्ध' (262-260 ई.पू. के बीच) |
निर्माण | भवन, स्तूप, मठ और स्तंभ |
सुधार-परिवर्तन | शिलालेखों द्वारा जनता में हितकारी आदेशों का प्रचार |
राजधानी | पाटलिपुत्र (पटना) |
पूर्वाधिकारी | बिन्दुसार (पिता) |
वंश | मौर्य |
संबंधित लेख | अशोक के शिलालेख, मौर्य काल आदि |
अशोक अथवा 'असोक' (काल ईसा पूर्व 269 - 232) प्राचीन भारत में मौर्य राजवंश का राजा था। अशोक का देवानाम्प्रिय एवं प्रियदर्शी आदि नामों से भी उल्लेख किया जाता है। उसके समय मौर्य राज्य उत्तर में हिन्दुकुश की श्रेणियों से लेकर दक्षिण में गोदावरी नदी के दक्षिण तथा मैसूर, कर्नाटक तक तथा पूर्व में बंगाल से पश्चिम में अफ़ग़ानिस्तान तक पहुँच गया था। यह उस समय तक का सबसे बड़ा भारतीय साम्राज्य था। सम्राट अशोक को अपने विस्तृत साम्राज्य के बेहतर कुशल प्रशासन तथा बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए जाना जाता है।
जन्म
अशोक प्राचीन भारत के मौर्य सम्राट बिंदुसार का पुत्र था। जिसका जन्म लगभग 304 ई. पूर्व में माना जाता है। लंका की परम्परा में [5] बिंदुसार की सोलह पटरानियों और 101 पुत्रों का उल्लेख है। पुत्रों में केवल तीन के नामोल्लेख हैं, वे हैं - सुसीम [6] जो सबसे बड़ा था, अशोक और तिष्य। तिष्य अशोक का सहोदर भाई और सबसे छोटा था।[7]भाइयों के साथ गृह-युद्ध के बाद 272 ई. पूर्व अशोक को राजगद्दी मिली और 232 ई. पूर्व तक उसने शासन किया।
- REDIRECTसाँचा:इन्हें भी देखें
पिता और पितामह
आरंभ में अशोक भी अपने पितामह चंद्रगुप्त मौर्य और पिता बिंदुसार की भाँति युद्ध के द्वारा साम्राज्य विस्तार करता गया। कश्मीर, कलिंग तथा कुछ अन्य प्रदेशों को जीतकर उसने संपूर्ण भारत में अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया, जिसकी सीमाएं पश्चिम में ईरान तक फैली हुई थीं। परंतु कलिंग युद्ध में जो जनहानि हुई उसका अशोक के हृदय पर बड़ा प्रभाव पड़ा और वह हिंसक युद्धों की नीति छोड़कर धर्म विजय की ओर अग्रसर हुआ। अशोक की प्रसिद्धि इतिहास में उसके साम्राज्य विस्तार के कारण ही नहीं है वरन् धार्मिक भावना और मानवतावाद के प्रचारक के रूप में भी है।
बिन्दुसार की मृत्यु के बाद अशोक सम्राट बना। अशोक के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करने में प्रमुख साधन अशोक के शिलालेख तथा स्तंभों पर उत्कीर्ण अभिलेख हैं। किन्तु ये अभिलेख अशोक के प्रारम्भिक जीवन पर कोई प्रकाश नहीं डालते। इनके लिए हमें संस्कृत तथा पालि में लिखे हुए बौद्ध ग्रंथों पर निर्भर रहना पड़ता है। परम्परानुसार अशोक ने अपने भाइयों का हनन करके सिंहासन प्राप्त किया था।
देवानाम्प्रिय प्रियदर्शी के अर्थ
'देवानाम्प्रिय प्रियदर्शी' इस वाक्यांश में बी.ए. स्मिथ के मतानुसार 'देवानाम्प्रिय' आदरसूचक पद है और इसी अर्थ में हमने भी इसको लिया है किंतु देवानाम्प्रिय शब्द (देव-प्रिय नहीं) पाणिनी के एक सूत्र[8] के अनुसार अनादर का सूचक है। कात्यायन[9] इसे अपवाद में रखा है। पतंजलि[10] और यहाँ तक कि काशिका (650 ई.) भी इसे अपवाद ही मानते हैं। पर इन सबके उत्तरकालीन वैयाकरण भट्टोजिदीक्षित इसे अपवाद में नहीं रखते। वे इसका अनादरवाची अर्थ 'मूर्ख' ही करते हैं। उनके मत से 'देवानाम्प्रिय ब्रह्मज्ञान से रहित उस पुरुष को कहते हैं जो यज्ञ और पूजा से भगवान को प्रसन्न करने का यत्न करता है। जैसे- गाय दूध देकर मालिक को।[11] इस प्रकार एक उपाधि जो नंदों, मौर्यों और शुंगों के युग में आदरवाची थी। उस महान् राजा के प्रति ब्राह्मणों के दुराग्रह के कारण अनादर सूचक बन गई।
व्यक्तित्व
कुछ इतिहासकारों का मत है कि अशोक ने धार्मिक क्षेत्रों की ओर ध्यान न देकर राष्ट्रीय दृष्टि से हित साधन नहीं किया। इससे भारत का राजनीतिक विकास रूका जबकि उस समय रोमन साम्राज्य के समान विशाल भारतीय साम्राज्य की स्थापना संभव थी। इस नीति से दिग्विजयी सेना निष्क्रिय हो गई और विदेशी आक्रमण का सामना नहीं कर सकी। इस नीति ने देश को भौतिक समृद्धि से विमुख कर दिया जिससे देश में राष्ट्रीयता की भावनाओं का विकास अवरुद्ध हो गया। दूसरी ओर अन्य का मत इससे विपरीत है। वे कहते हैं इसी नीति से भारतीयता का अन्य देशों में प्रचार हुआ। घृणा के स्थान पर सहृदयता विकसित हुई, सहिष्णुता और उदारता को बल मिला तथा बर्बरता के कृत्यों से भरे हुए इतिहास को एक नई दिशा का बोध हुआ। लोकहित की दृष्टि से अशोक ही अपने समकालीन इतिहास का एकमात्र ऐसा शासक है जिसने न केवल मानव की वरन् जीवमात्र की चिंता की। इस मत-विभिन्नता के रहते हुए भी यह विचार सर्वमान्य है कि अशोक अपने काल का अकेला सम्राट था, जिसकी प्रशस्ति उसके गुणों के कारण होती आई है, बल के डर से नहीं।
निधन
इस बात का विवरण नहीं मिलता है कि अशोक के कर्मठ जीवन का अंत कब, कैसे और कहाँ हुआ। तिब्बती परम्परा के अनुसार उसका देहावसान तक्षशिला में हुआ। उसके एक शिलालेख के अनुसार अशोक का अंतिम कार्य भिक्षुसंघ में फूट डालने की निंदा करना था। सम्भवत: यह घटना बौद्धों की तीसरी संगति के बाद की है। सिंहली इतिहास ग्रंथों के अनुसार तीसरी संगीति अशोक के राज्यकाल में पाटलिपुत्र में हुई थी।[12]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 यह ध्यान देने योग्य बात है कि यद्यपि अशोक सर्वोच्च शासक था पर वह अपने को सिर्फ 'राजा' शब्द से निर्दिष्ट करता है। 'महाराजा' और 'राजाधिराज' जैसी भारी-भरकम या आडम्बर-पूर्ण उपाधियाँ, जो अलग-अलग या मिलाकर प्रयुक्त की जाती हैं, अशोक के समय में प्रचलित नहीं हुई थीं। 'अशोक' | लेखक: डी.आर. भंडारकर | प्रकाशक: एस. चन्द एन्ड कम्पनी | पृष्ठ संख्या:6
- ↑ 'अशोक' | लेखक: डी.आर. भंडारकर | प्रकाशक: एस. चन्द एन्ड कम्पनी | पृष्ठ संख्या:5
- ↑ 3.0 3.1 3.2 'अशोक' | लेखक: राधाकुमुद मुखर्जी | प्रकाशक: मोतीलाल बनारसीदास | पृष्ठ संख्या: 8-9
- ↑ द्विजेन्द्र नारायण झा, कृष्ण मोहन श्रीमाली “मौर्यकाल”, प्राचीन भारत का इतिहास, द्वितीय संस्करण (हिंदी), दिल्ली: हिंदी माध्यम कार्यांवय निदेशालय, 178।
- ↑ जिसका आख्यान 'दीपवंश' और 'महावंश' में हुआ है
- ↑ उत्तरी परम्पराओं का सुसीम
- ↑ मुखर्जी, राधाकुमुद अशोक (हिंदी)। नई दिल्ली: मोतीलाल बनारसीदास, 2।
- ↑ पाणिनी 6,3,21
- ↑ ई.पू. 350 सर आर. जी. भंडाकर
- ↑ ई. पू. 150
- ↑ तत्त्वबोधिनी और बालमनोरमा
- ↑ भट्टाचार्य, सचिदानंद भारतीय इतिहास कोश (हिंदी)। लखनऊ: उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान, 28।
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