नवदाटोली: Difference between revisions

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नवदाटोली [[इन्दौर]] से दक्षिण की ओर 60 मील की दूरी पर स्थित है। यहाँ के निवासी गोल, आयताकार या वर्गाकार झोंपड़ियाँ बनाते थे। व उनमें निवास करते थे। [[मध्य प्रदेश]] में [[नर्मदा]] की घाटी में नवदाटोली की खुदाई [[1957]]-[[1958]] में की गयी थी।  
'''नवदाटोली''' [[इन्दौर]] से दक्षिण की ओर 60 मील की दूरी पर स्थित है। यहाँ के निवासी गोल, आयताकार या वर्गाकार झोंपड़ियाँ बनाते थे। व उनमें निवास करते थे। [[मध्य प्रदेश]] में [[नर्मदा]] की घाटी में नवदाटोली की खुदाई [[1957]]-[[1958]] में की गयी थी।  
==इतिहास==
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प्राचीन [[अवशेष|अवशेषों]] से यह ज्ञात होता है। यहाँ निवास स्थान आकार में निवास छोटे थे। सबसे बड़ा निवास स्थान भी लम्बाई में साढ़े चार मीटर है और चौड़ाई में तीन मीटर से अधिक नहीं है। इनकी दीवारें बाँस की टटिटयों पर मिट्टी 'ल्हेस' कर बनायी जाती थीं। झोंपड़ियों में अनाज रखने के लिए बड़े मटके भी मिले हैं। यहाँ से प्राप्त मृद्भाण्डों को मालवा मृद्भाण्ड भी कहते हैं। इनकी विशेषता यह है कि इनमें [[पीला रंग|पीले रंग]] पर लाल सतह है और उन पर [[काला रंग|काले रंग]] की चित्रकारी है। कुछ मृद्भाण्ड जोर्वे टाइप के हैं।  इनकी विशेषता यह है कि इनकी किनारी बहुत पक्की है और वे [[लाल रंग]] के हैं। इन पर भी काले रंग की चित्रकारी है।  
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नवदाटोली इन्दौर से दक्षिण की ओर 60 मील की दूरी पर स्थित है। यहाँ के निवासी गोल, आयताकार या वर्गाकार झोंपड़ियाँ बनाते थे। व उनमें निवास करते थे। मध्य प्रदेश में नर्मदा की घाटी में नवदाटोली की खुदाई 1957-1958 में की गयी थी।

इतिहास

प्राचीन अवशेषों से यह ज्ञात होता है। यहाँ निवास स्थान आकार में निवास छोटे थे। सबसे बड़ा निवास स्थान भी लम्बाई में साढ़े चार मीटर है और चौड़ाई में तीन मीटर से अधिक नहीं है। इनकी दीवारें बाँस की टटिटयों पर मिट्टी 'ल्हेस' कर बनायी जाती थीं। झोंपड़ियों में अनाज रखने के लिए बड़े मटके भी मिले हैं। यहाँ से प्राप्त मृद्भाण्डों को मालवा मृद्भाण्ड भी कहते हैं। इनकी विशेषता यह है कि इनमें पीले रंग पर लाल सतह है और उन पर काले रंग की चित्रकारी है। कुछ मृद्भाण्ड जोर्वे टाइप के हैं। इनकी विशेषता यह है कि इनकी किनारी बहुत पक्की है और वे लाल रंग के हैं। इन पर भी काले रंग की चित्रकारी है।

मुख्य भोजन

इनका काल 1600 ई.पू निर्धारित किया गया है। यहाँ के निवासी पहले 200 वर्षों में मुख्य रूप से गेहूँ खाते थे। बाद में वे चावल, मसूर, मूँग, मटर, आदि खाने लगे। भारत में सबसे प्राचीन चावल यहीं से मिला है। सम्भवत: ये लोग अनाज को पत्थर की हँसियों से काटते थे। अनाज को सम्भवतः गीला करके ओखली में पीसा जाता था। गाय, बैल, सूअर, भेड़, बकरी आदि का माँस खाया जाता था। घोड़े के कोई भी अवशेष इस स्थान से नहीं मिले है।

संस्कृति काल

यहाँ के लोग से अनभिज्ञ थे। ये ताँबे का भी प्रयोग कम करते थे। ताँबे की कुल्हाड़ी मछली मारने के हुक पिन और छल्ले बनाये जाते थे। अधिकतर औजार पत्थर के लघु-अश्म थे, जिनमें लकड़ी या हड्डी के दस्ते लगते थे। ये लोग शवों को मृद्भाण्डों में रखकर दफ़नाते थे। सम्भवत: यह प्रथा दक्षिण भारत की उत्तर प्रस्तर-युग की संस्कृति के लोगों से सीखी थी। कार्बन-14 की वैज्ञानिक विधि के आधार पर इस संस्कृति का काल 1600-1300 ई.पू निर्धारित किया गया है। तीन बार आग से नष्ट होने पर भी ये लोग 700 ई.पू तक यहाँ रहते रहे, जबकि लोहे का प्रयोग जानने वाली किसी अन्य जाति ने, जो उज्जैन से यहाँ आई थी, इन्हें नष्ट कर दिया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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