इमलीतला घाट वृन्दावन: Difference between revisions
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राधा-चिन्ता निवेशेण यस्य कान्तिर्विलोपिता। <br /> | राधा-चिन्ता निवेशेण यस्य कान्तिर्विलोपिता। <br /> | ||
श्रीकृष्णचरणं वन्दे राधालिंगित विग्रहम् ॥ (श्रीश्रीराधा-विनोदविहारी-तत्त्वाष्टकम्-1)<br /> | श्रीकृष्णचरणं वन्दे राधालिंगित विग्रहम् ॥ (श्रीश्रीराधा-विनोदविहारी-तत्त्वाष्टकम्-1)<br /> |
Revision as of 13:19, 25 June 2013
यह ब्रज लीला के समय का प्राचीन इमली का महावृक्ष था। अब यह अन्तर्धान हो गया है। उसके बदले में नया इमली का वृक्ष विराजमान है। रासलीला के बीच में अन्यान्य गोपियों का सौभाग्यमद दूर करने तथा प्रिया जी के मान का प्रसाधन करने के लिए श्रीकृष्ण रास से अन्तर्धान हो गये। वे प्रिया जी के साथ ही पीछे-पीछे शृंगार वट में उपस्थित हुए और पुष्पों से उनका शृंगार करने लगे। उसी समय दूसरी गोपियाँ कृष्ण को ढूंढ़ती हुईं निकट आ पहुँचीं। श्रीकृष्ण ने प्रिया जी को वहाँ से चलने का अनुरोध किया किन्तु उन्होंने कहा 'मैं चल नहीं सकती। आप मुझे कन्धे पर लेकर चल सकते हैं।' कृष्ण बैठ गये और अपने कन्धे पर प्रियाजी को बैठने के लिए संकेत किया। ज्यों ही वे बैठने लगीं, कृष्ण पुन: अन्तर्धान हो गये। फिर ये भी विरह में हा नाथ! हा रमण! कहती हुईं बेसुध होकर गिर पड़ीं। उन्हें इस अवस्था में देखकर अन्यान्य गोपियाँ भी बड़ी व्याकुल हो गईं। उस समय श्रीकृष्ण यमुना के निकट इमली वृक्ष के नीचे राधिका के विरह में तन्मय हो गये। राधिका की चिन्ता में इस प्रकार तन्मय हो गये कि उनकी अंगकांति राधिका जैसी गौर-वर्ण की हो गई। परमाराध्य ॐ विष्णुपाद श्रीश्रीमद्भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज जी ने कृष्ण के गौरवर्ण होने का बड़ा ही सरस पद प्रस्तुत किया है-
राधा-चिन्ता निवेशेण यस्य कान्तिर्विलोपिता।
श्रीकृष्णचरणं वन्दे राधालिंगित विग्रहम् ॥ (श्रीश्रीराधा-विनोदविहारी-तत्त्वाष्टकम्-1)
श्री गुरुपाद पद्म के हृदय का भाव अत्यन्त गम्भीर और सुसिद्धान्त पूर्ण हैं। राधिका की परिचारिका मंजरियों का भाव ऐसा होता है कि राधिका के विरह में कृष्ण ही व्याकुल हों। ऐसा होने पर वे आनन्दित होती हैं तथा वे राधा विरह कातर श्रीकृष्ण का राधा जी के निकट अभिसार कराती हैं। श्रीरूपानुग गौड़ीय वैष्णवों में यही भाव प्रधान होता है।
श्रीचैतन्य महाप्रभु
लगभग साढ़े पांच सौ वर्ष पहले श्रीचैतन्य महाप्रभु ने ब्रज-भ्रमण के समय अक्रूर घाट पर कुछ दिनों तक निवास किया था। वहीं से वे प्रतिदिन यमुना के तट पर स्थित परम मनोहर इस इमलीतला घाट पर आकर भावाविष्ट होकर हरिनाम कीर्तन करते थे। यहीं पर उन्होंने कृष्णदास राजपूत पर कृपा की थी। यहीं रहते समय एक दिन कुछ लोगों ने महाप्रभु जी से निवेदन किया कि कालीय हृद में रात के समय श्रीकृष्ण पुन: वही लीला प्रकाश कर रहे हैं, आप भी चलकर कृष्ण का दर्शन करें। महाप्रभु जी ने उन लोगों को दो-चार दिन प्रतीक्षा करने के लिए कहा। रात के समय कालीयदह पर लोगों की भीड़ उमड़ने लगी। अन्त में यह पर्दाफाश हुआ कि रात में एक नौका पर बैठकर कुछ मुसलमान मछलियाँ पकड़ते थे। नौका के अग्रभाग में एक प्रदीप जलता हुआ प्रदीप सर्प की मणि की भ्रान्ति उत्पन्न करती है। रहस्य के उद्घाटन होने पर महाप्रभु जी ने लोगों से कहा- कलि युग में भगवान श्रीकृष्ण साधारण लोगों के सामने ऐसी लीला प्रकट नहीं करते। केवल शुद्धभक्तों के हृदय में ही ऐसी लीला स्फुरित होती है। श्रीचैतन्य महाप्रभु कुछ दिनों के बाद श्रीवल्लभ भट्टाचार्य के साथ यहाँ से सोरो और प्रयाग होकर नीलांचल पधारे। कहते हैं कि कुछ वर्षों पूर्व प्राचीन इमली वृक्ष की एक शाखा को काटने पर उसमें से रक्त निकलने लगा। काटने वाला व्यक्ति इस कृत्य को अपराध समझकर पुन:-पुन: क्षमा प्रार्थना करने लगा। वृन्दावन में सभी वृक्ष-लता के रूप में सिद्ध महात्मा लोग अभी भी भजन कर रहे हैं, ऐसी धामवासियों की मान्यता है।
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