सतसई: Difference between revisions
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'सतसई' की विभिन्न प्रतियों में उसके कई पाठ भी मिलते हैं। इन पाठों का मिलान नहीं किया गया है किंतु इनमें परस्पर अंतर बहुत है। इसका सम्पादन कवि अपने जीवनकाल में नहीं कर सका था। सम्भवत: उसके विविध विषयों के कुछ स्फुट दोहे ही थे, जिन्हें अलग- अलग ढ़ग से अलग-अलग व्यक्तियों ने संकलित कर लिया। इसमें अलग-अलग विषयों के 700 के लगभग दोहे हैं। इसकी प्रतियां प्रायः एक पाठ की मिलती हैं। 'सतसई' का एक प्रमुख अंश 'दोहावली' में भी मिलता है। 'सतसई' के शेष अंश शब्द, रूप, शैली तथा विचारधारा की दृष्टियों से उस अंश से इतने भिन्न हैं कि वे अधिकतर प्रक्षिप्त ज्ञात होते हैं। उदाहरण के लिये उसके प्रारंभ के ही निम्नलिखित दोहों को देखा जा सकता है- | [[चित्र:Tulsidas.jpg|thumb|[[तुलसीदास]]]] | ||
'सतसई' की विभिन्न प्रतियों में उसके कई पाठ भी मिलते हैं। इन पाठों का मिलान नहीं किया गया है किंतु इनमें परस्पर अंतर बहुत है। इसका सम्पादन कवि अपने जीवनकाल में नहीं कर सका था। सम्भवत: उसके विविध विषयों के कुछ स्फुट दोहे ही थे, जिन्हें अलग- अलग ढ़ग से अलग-अलग व्यक्तियों ने संकलित कर लिया। इसमें अलग-अलग विषयों के 700 के लगभग [[दोहा|दोहे]] हैं। इसकी प्रतियां प्रायः एक पाठ की मिलती हैं। 'सतसई' का एक प्रमुख अंश 'दोहावली' में भी मिलता है। 'सतसई' के शेष अंश [[शब्द (व्याकरण)|शब्द]], रूप, शैली तथा विचारधारा की दृष्टियों से उस अंश से इतने भिन्न हैं कि वे अधिकतर प्रक्षिप्त ज्ञात होते हैं। उदाहरण के लिये उसके प्रारंभ के ही निम्नलिखित दोहों को देखा जा सकता है- | |||
<poem>नमो नमो नारायण परमातम सरधाम। | <poem>नमो नमो नारायण परमातम सरधाम। | ||
जेहि सुमिरन सिधि होत है तुलसी जन मन काम॥ | जेहि सुमिरन सिधि होत है तुलसी जन मन काम॥ | ||
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जाके रोम रोम प्रति अमित अमित बृह्मण्ड। | जाके रोम रोम प्रति अमित अमित बृह्मण्ड। | ||
सो देखत तुलसी प्रकट अमल सुअचल अखण्ड॥</poem> | सो देखत तुलसी प्रकट अमल सुअचल अखण्ड॥</poem> | ||
उपर्युक्त पृथक दोहे का 'नमो नमो' तुलसी ग्रंथावली में अन्यत्र नहीं मिलता है, यद्यपि "नम" के "नमाम", "नमामि" आदि रूप मिलते हैं। व्याकरण की दृष्टि से "सिधि" चित्य है, "जन मन काम" और "सिधि" में एक ही होता | उपर्युक्त पृथक दोहे का 'नमो नमो' तुलसी ग्रंथावली में अन्यत्र नहीं मिलता है, यद्यपि "नम" के "नमाम", "नमामि" आदि रूप मिलते हैं। व्याकरण की दृष्टि से "सिधि" चित्य है, "जन मन काम" और "सिधि" में एक ही होता है। [[क्रिया]] का कर्ता हो सकता है। दूसरे दोहे में "परमधाम" के साथ "वर" अनावश्यक ही नहीं निरा भरती का है। समानार्थियों "अपर" और "आन" में एक ही होना चाहिए था, "समुझत" और "सुनत" प्रसंग में अनावश्यक ही नहीं, असंगत लगते हैं। तीसरे दोहे में "सकल" की पुनरक्ति चित्य है। "सो" असंगत लगता है, "जो" कदाचित अधिक संगत होता। चौथे दोहे का "रोम रोम", "रामावलि" आदि रूप तो तुलसी ग्रंथावली में मिलते हैं, "रोम रोम" रूप कहीं नहीं मिलता है। पुनः इसकी रचना-तिथि जो निम्नलिखित दोहे में हुई है, वह भी गणना में ठीक नहीं आती है। | ||
"अति रसना धन धेनु रस गनपति द्विज गुरूवार। | <poem>"अति रसना धन धेनु रस गनपति द्विज गुरूवार। | ||
माधव सित सिय जनम तिथि सतसैया अवतार॥" | माधव सित सिय जनम तिथि सतसैया अवतार॥"</poem> | ||
इस दोहे के अनुसार तिथि संवत 1624 [[वैशाख]] शुक्ल 9 ([[सीता|सीता जी]] की जन्मतिथि) होती है किंतु गणना से इस तिथि को [[गुरुवार]] न पड़कर के [[बुधवार]] पड़ता है। अतः "सतसई" अपने सतसई रूप में तुलसीदास जी की रचना नहीं है, उसका एक अंश है, जो दोहावली में पाया जाता है, तुलसीदास की रचना मानी जा सकती है।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हिन्दी साहित्य कोश भाग-2 |लेखक=धीरेंद्र वर्मा एवं अन्य |अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक= ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी|संकलन= |संपादन= |पृष्ठ संख्या= 611 |url=|ISBN=}}</ref> | इस दोहे के अनुसार [[तिथि]] [[संवत]] 1624 [[वैशाख]] [[शुक्ल पक्ष|शुक्ल]] 9 ([[सीता|सीता जी]] की जन्मतिथि) होती है किंतु गणना से इस तिथि को [[गुरुवार]] न पड़कर के [[बुधवार]] पड़ता है। अतः "सतसई" अपने सतसई रूप में [[तुलसीदास]] जी की रचना नहीं है, उसका एक अंश है, जो दोहावली में पाया जाता है, तुलसीदास की रचना मानी जा सकती है।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हिन्दी साहित्य कोश भाग-2 |लेखक=धीरेंद्र वर्मा एवं अन्य |अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक= ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी|संकलन= |संपादन= |पृष्ठ संख्या= 611 |url=|ISBN=}}</ref> | ||
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'सतसई' किसी एक विषय की रचना नहीं है। इसमें अनेकानेक विषयों के स्फुट दोहे संकलित हुए हैं। कुछ छ्न्द कवि के जीवन की अनेक घटनाओं से सम्बन्धित हैं। इनका महत्त्व [[कवि]] के प्रामाणिक जीवन वृत्त के निर्माण में बहुत अधिक है। '[[कवितावली]]' के छ्न्दों के बाद 'सतसई' के इन दोहों से ही कवि के जीवन- वृत निर्माण में हमें उल्लेखनीय सहायता मिलती है। | 'सतसई' किसी एक विषय की रचना नहीं है। इसमें अनेकानेक विषयों के स्फुट दोहे संकलित हुए हैं। कुछ छ्न्द कवि के जीवन की अनेक घटनाओं से सम्बन्धित हैं। इनका महत्त्व [[कवि]] के प्रामाणिक जीवन वृत्त के निर्माण में बहुत अधिक है। '[[कवितावली]]' के छ्न्दों के बाद 'सतसई' के इन दोहों से ही कवि के जीवन- वृत निर्माण में हमें उल्लेखनीय सहायता मिलती है। | ||
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Revision as of 13:28, 17 February 2013
सतसई तुलसीदास के दोहों का एक संग्रह ग्रंथ है। इन दोहों में से अनेक दोहे 'दोहावली' की विभिन्न प्रतियों में तुलसीदास के अन्य ग्रंथों में भी मिलते हैं और उनसे लिये गये है। बहुत से 'रामचरित मानस' और 'रामज्ञा प्रश्न' से लिये गये हैं।
दोहावली
[[चित्र:Tulsidas.jpg|thumb|तुलसीदास]] 'सतसई' की विभिन्न प्रतियों में उसके कई पाठ भी मिलते हैं। इन पाठों का मिलान नहीं किया गया है किंतु इनमें परस्पर अंतर बहुत है। इसका सम्पादन कवि अपने जीवनकाल में नहीं कर सका था। सम्भवत: उसके विविध विषयों के कुछ स्फुट दोहे ही थे, जिन्हें अलग- अलग ढ़ग से अलग-अलग व्यक्तियों ने संकलित कर लिया। इसमें अलग-अलग विषयों के 700 के लगभग दोहे हैं। इसकी प्रतियां प्रायः एक पाठ की मिलती हैं। 'सतसई' का एक प्रमुख अंश 'दोहावली' में भी मिलता है। 'सतसई' के शेष अंश शब्द, रूप, शैली तथा विचारधारा की दृष्टियों से उस अंश से इतने भिन्न हैं कि वे अधिकतर प्रक्षिप्त ज्ञात होते हैं। उदाहरण के लिये उसके प्रारंभ के ही निम्नलिखित दोहों को देखा जा सकता है-
नमो नमो नारायण परमातम सरधाम।
जेहि सुमिरन सिधि होत है तुलसी जन मन काम॥
परम पुरूष पर धाम बर जा पर अपर न आन।
तुलसी सो समुझत सुनत राम सोइ निरबान ॥
सकल सुखद गुन जासु सो राम कामना हीन।
सकल कामप्रद सर्वहित तुलसी कहहि प्रवीन॥
जाके रोम रोम प्रति अमित अमित बृह्मण्ड।
सो देखत तुलसी प्रकट अमल सुअचल अखण्ड॥
उपर्युक्त पृथक दोहे का 'नमो नमो' तुलसी ग्रंथावली में अन्यत्र नहीं मिलता है, यद्यपि "नम" के "नमाम", "नमामि" आदि रूप मिलते हैं। व्याकरण की दृष्टि से "सिधि" चित्य है, "जन मन काम" और "सिधि" में एक ही होता है। क्रिया का कर्ता हो सकता है। दूसरे दोहे में "परमधाम" के साथ "वर" अनावश्यक ही नहीं निरा भरती का है। समानार्थियों "अपर" और "आन" में एक ही होना चाहिए था, "समुझत" और "सुनत" प्रसंग में अनावश्यक ही नहीं, असंगत लगते हैं। तीसरे दोहे में "सकल" की पुनरक्ति चित्य है। "सो" असंगत लगता है, "जो" कदाचित अधिक संगत होता। चौथे दोहे का "रोम रोम", "रामावलि" आदि रूप तो तुलसी ग्रंथावली में मिलते हैं, "रोम रोम" रूप कहीं नहीं मिलता है। पुनः इसकी रचना-तिथि जो निम्नलिखित दोहे में हुई है, वह भी गणना में ठीक नहीं आती है।
"अति रसना धन धेनु रस गनपति द्विज गुरूवार।
माधव सित सिय जनम तिथि सतसैया अवतार॥"
इस दोहे के अनुसार तिथि संवत 1624 वैशाख शुक्ल 9 (सीता जी की जन्मतिथि) होती है किंतु गणना से इस तिथि को गुरुवार न पड़कर के बुधवार पड़ता है। अतः "सतसई" अपने सतसई रूप में तुलसीदास जी की रचना नहीं है, उसका एक अंश है, जो दोहावली में पाया जाता है, तुलसीदास की रचना मानी जा सकती है।[1]
विषय
'सतसई' किसी एक विषय की रचना नहीं है। इसमें अनेकानेक विषयों के स्फुट दोहे संकलित हुए हैं। कुछ छ्न्द कवि के जीवन की अनेक घटनाओं से सम्बन्धित हैं। इनका महत्त्व कवि के प्रामाणिक जीवन वृत्त के निर्माण में बहुत अधिक है। 'कवितावली' के छ्न्दों के बाद 'सतसई' के इन दोहों से ही कवि के जीवन- वृत निर्माण में हमें उल्लेखनीय सहायता मिलती है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हिन्दी साहित्य कोश भाग-2 |लेखक: धीरेंद्र वर्मा एवं अन्य |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |पृष्ठ संख्या: 611 |
बाहरी कड़ियाँ
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