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इस प्रकार इस प्रक्रिया में इन्होंने कारणता के संबंध में अपनी अति महत्त्वपूर्ण अवधारणा को विकसित किया है। कारणता को ये संकल्प करने के अर्थ में लेते हैं। ये समय संबंध के अंतर्गत प्रकृति की कारणता को पूर्ण रूप से अस्वीकृत करते हैं। समय के अंतर्गत मात्र घटनाओं का अनुवर्तित्व सभी प्रकार के कारण संबंधी व्याख्याओं के विरुद्ध जाता है। निसृत कर्म है। इस संबंध में उच्चतम सीमा के रूप में इन्होंने शाश्वत (दैवी) संकल्प को माना है जिसे प्रथम कारण कहा जाता है। इसी प्रकार से यह भी इंगित करते हैं कि सत्ता का ऐक्य जानने में नहीं बल्कि संकल्प करने में निहित है। मैं संकल्प करता हूँ इसलिए मैं हूँ। जगत का संकल्प करने में ईश्वर उससे अवगत भी हो जाता है।
इस प्रकार इस प्रक्रिया में इन्होंने कारणता के संबंध में अपनी अति महत्त्वपूर्ण अवधारणा को विकसित किया है। कारणता को ये संकल्प करने के अर्थ में लेते हैं। ये समय संबंध के अंतर्गत प्रकृति की कारणता को पूर्ण रूप से अस्वीकृत करते हैं। समय के अंतर्गत मात्र घटनाओं का अनुवर्तित्व सभी प्रकार के कारण संबंधी व्याख्याओं के विरुद्ध जाता है। निसृत कर्म है। इस संबंध में उच्चतम सीमा के रूप में इन्होंने शाश्वत (दैवी) संकल्प को माना है जिसे प्रथम कारण कहा जाता है। इसी प्रकार से यह भी इंगित करते हैं कि सत्ता का ऐक्य जानने में नहीं बल्कि संकल्प करने में निहित है। मैं संकल्प करता हूँ इसलिए मैं हूँ। जगत् का संकल्प करने में ईश्वर उससे अवगत भी हो जाता है।
 
 
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thumb|अलग़ज़ाली अलग़ज़ाली (1058-1111 ई.) संसार के उन प्रसिद्ध व्यक्तियों में से एक हैं, जिनकी योग्यता और ज्ञान का लोहा उनके जीवन काल में ही सबने मान लिया था। इमाम ग़ज़ाली साहब अन्य विद्वानों की तरह किसी एक विद्या के नहीं, बल्कि एक ही साथ कई विद्याओं के ज्ञाता थे। वे विद्वान भी थे और दार्शनिक भी, सूफ़ी भी थे और धर्म मीमांसक भी, मुतकल्लिम (वाद-विद्यानुयायी) भी थे और विचारक भी। परन्तु इमाम साहब का बड़प्पन इस बात में है कि वे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने सच्चाई की खोज में सारे विश्व का चक्कर लगाया, कठिनाईयाँ झेलीं और उस समय की समस्त विद्याओं और शिक्षाओं का नये सिरे से अध्ययन किया तथा अन्त में उस सच्चाई को प्राप्त करने में सफल हुए, जिसकी तलाश के लिए उन्होंने अध्यापन कार्य छोड़ा और अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया।

जीवन परिचय

इमाम साहब, जिनका नाम मुहम्मद, जाति हुजज्तुलइस्लाम और ग़ज़ाली उपनाम है, पंद्रहवी शताब्दी के मध्य में ख़ुरासान प्रदेश के ज़िला तूस में पैदा हुए थे। ऐसा कहा जाता है कि इनका जन्म एक गांव में हुआ था, जिसका नाम 'ग़ज़ाला' था और इसी कारण बाद में आप ग़ज़ाली के नाम से जाने गए। परन्तु ऐसा भी कहा जाता है कि ग़ज़ाली के पिता ऊन कातकर बेचा करते थे और कातने को अरबी भाषा में 'ग़ज़ल' कहते हैं, इस कारण इनका नाम ग़ज़ाली पड़ा।

ग़ज़ाली के पिता एक धार्मिक और नेकदिल व्यक्ति थे। उन्होंने ख़ुदा से प्रार्थना की कि ऐ ख़ुदा मुझे एक ऐसा बेटा दे, जो विद्वान बने। ख़ुदा ने उसकी प्रार्थना स्वीकार की और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई, जिसका नाम मुहम्मद रखा गया, जो बाद में इमाम ग़ज़ाली के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसी प्रकार उसके पिता ने फिर प्रार्थना की कि ऐ ख़ुदा ऐसा लड़का दे, जो धर्मोपदेशक बने। ख़ुदा की दयालुता देखिए कि उन्हें फिर पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई, जिसका नाम अहमद रखा गया और बाद में एक महान धर्मोपदेशक बना। अभी ये भाई छोटे ही थे कि उनके पिता का निधन हो गया। मरने से पहले उन्होंने अपने दोनों बच्चों को अपने एक दोस्त को सौंप दिया और पैसा देकर बच्चों का शिक्षा प्रबन्ध करने के लिए कहा। दोस्त ने बच्चों को शिक्षा दिलानी शुरू कर दी। कुछ दिनों के पश्चात् जब उसके पिता की दी हुई सम्पत्ति समाप्त हो गई, तब उस दोस्त ने उनको एक विद्यालय में प्रविष्ट करा दिया, जहाँ वे खैरात की रोटी पर बसर करके अपनी पढ़ाई में प्रतृत्त हो गए।

शिक्षा का प्रारम्भ

इमाम साहब प्रारम्भिक शिक्षा तूस में प्राप्त करने के पश्चात् जुर्जान चले गए। उस युग में पढ़ाई का यह तरीका था कि अध्यापक जो वक्तव्य देते थे, शिष्य उसे लिख लिया करते थे और अत्यन्त सावधानी से सम्भाल कर रखते थे। इमाम साहब ने भी ऐसा ही किया। कुछ दिनों के पश्चात् वे स्वदेश लौटे। राह में डाका पड़ा और इमाम साहब के पास में जो कुछ भी सामान था, सब लुट गया, जिसमें वे खर्रे भी थे। इमाम साहब को इन खर्रों के लुटने का बड़ा दु:ख हुआ। वे डाकुओं के सरदार के पास गए और कहा कि मैं केवल उन खर्रों को वापस चाहता हूँ, क्योंकि उनमें जो बातें लिखी हैं, उनको सुनने और याद करने के लिए मैंने यह यात्रा की है। डाकू सरदार हंस पड़ा और बोला तुमने क्या खाक सीखा, जब तुम्हारी यह हालत है कि एक काग़ज़ न रहा तो तुम कोरे रह गए। परन्तु उसने वे खर्रे उन्हें वापस कर दिये। इमाम साहब को इस व्यंग्य से अत्यन्त पीड़ा हुई। इसके फलस्वरूप घर पहुँचकर उन्होंने सब लिखी हुई बातें कंठस्थ कर लीं।

पुस्तक रचना

इसके पश्चात् आगे पढ़ाई के लिए वे नेसापोर गए। वहाँ पर अल्लामा जुऐनी नामक एक वृद्ध सज्जन पढ़ाते थे। यहाँ से इमाम साहब का सितारा चमकना प्रारम्भ हुआ और यहीं पर उन्होंने एक पुस्तक लिखी, जिसका नाम था 'अल-मनखूल'। उनके अध्यापक ने जब यह पुस्तक देखी तो उन्होंने सोचा कि ये शिष्य तो मुझ पर ही हावी हो रहा है। इसके फलस्वरूप उन्होंने इमाम साहब से कहा तुमने तो मुझे ज़िन्दा ही दफ़न कर दिया। कम से कम मेरी मौत की प्रतीक्षा तो कर लेते। अध्यापक की मौत के बाद इमाम साहब बग़दाद आ गए और वहाँ मदरसे निजामिया में अध्यापन शुरू कर दिया। उस समय उनकी आयु 34 वर्ष की थी। कहा जाता है कि उनके पास अनुमानत: 400 विद्यार्थी शिक्षा के लिए आया करते थे और सभी उनकी योग्यता का लोहा मानते थे।

प्रवृत्ति

thumb|250px|अलग़ज़ाली का मक़बरा इमाम साहब एक विशेष प्रकार की प्रवृत्ति रखते थे। वह जितने भी धार्मिक सिद्धांत और सम्प्रदाय थे, सब पर पैनी दृष्टि डालते थे। बग़दाद उस समय संसार भर के सिद्धांतों और विचारों का अखाड़ा था। उस धरती पर पांव रखकर प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्र हो जाता था और जो कुछ भी चाहता था, व्यक्त कर सकता था। इस स्वतंत्रता के कारण कई प्रकार के सिद्धांत और विचार फैले हुए थे। इमाम साहब वहाँ सब सम्प्रदायों के व्यक्तियों से मिले और उनके विचार सुने। उन सबसे मिलने के पश्चात् इमाम साहब के मन में संदेह उत्पन्न हुआ और वे स्वयमेव बोल उठे, 'याय अल्लाह। इनमें से सच्चाई पर कौन है? किसको सच्चा कहें और किसको झूठा?' और फिर जब हर एक पर समीक्षात्मक दृष्टि डाली तो सभी में उन्हें कुछ न कुछ कमियाँ दृष्टिगत हुईं। इसी कारण वे खोजबीन में जुट गए और इस तरह दर्शन के हर पहलू पर जानकारी प्राप्त की। इस मोड़ पर पहुँचकर उन्होंने यह आवश्यक समझा कि क्यों न ऐसे ज्ञान की खोज की जाए, जो बिल्कुल सच्चा और वास्तविक हो। इमाम साहब का सच्चाई और वास्तविकता का मापदंड था- वह जिसको पा लेने के पश्चात् संदेह के बादल बिल्कुल छंट जायें और वास्तविकता प्रकट हो जाये।

सूफ़ीवाद का प्रभाव

इस सच्चाई को पा लेने के लिए उन्होंने सोचा कि पारम्परिक शिक्षाओं और सिद्धांतों से उनको ध्येय की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसलिए तो जीवन का स्वयं निष्पक्ष भाव से अध्ययन करना होगा। सभी आध्यात्मिक और नैतिक सिद्धांतों को फिर से देखना और उनको ज्ञान की कसौटी पर रखना होगा। इस तरह उनका झुकाव सूफ़ीवाद की ओर हुआ। परन्तु ग़ज़ाली ने जीवन को जिस प्रकार अपना लिया था, वह सूफ़ीवाद से भी मेल नहीं खाता था। फलत: उन्होंने यह फैसला किया कि संसार को छोड़कर सच्चाई की खोज में निकल जाना ही सार्थक है और एक दिन वास्तव में वे बग़दाद से निकल पड़े। पहले शाम (दमिश्क) आए और दो साल तक वहाँ रहे। इसके बाद घूमते-घूमते वे हज के लिए मक्का मदीना गये। इसी यात्रा के मध्य में उन्होंने 'सिकन्दरिया' भी देखा। 499 हिजरी (1106 ई.) में जब वह पैगम्बर इब्राहीम के जन्म सथान खलील में थे, तब उन्होंने तीन बातों की प्रतिज्ञा की-

  1. किसी बादशाह के दरबार में नहीं जाऊँगा।
  2. किसी बादशाह के धन को स्वीकार नहीं करूँगा।
  3. किसी से वाद-विवाद नहीं करूँगा।

अन्य पुस्तकों के रचना

इसी यात्रा में ग़ज़ाली ने अपनी सर्वश्रेष्ठ पुस्तक 'अह्याउल-उलूम' (विद्या संजीवनी) की रचना की, जो कि दूसरा क़ुरान समझी जाती है। इमाम साहब के शिष्यों की तरह उनकी लिखी पुस्तकें भी अनेक हैं। उन्होंने बीस वर्ष की आयु से ही लेखन कार्य प्रारम्भ कर दिया था। दस-ग्यारह वर्ष यात्रा में गुजारे फिर भी सैकड़ों पुस्तकें लिखीं। इनकी लिखी पुस्तकें यूरोप में भी बहुत प्रचलित हुईं। 'अह्याउल-उलूम' और 'अल मुनकिज मिनल-जलाल' इनकी सर्वश्रेष्ठ पुस्तकों में से हैं। उनका देहान्त 1111 ई. में हुआ। 'दर्शन के इतिहास' के लेखक जॉर्ज हेनरी लेविस का कहना है, अगर 'देकार्त' (1596-1650) के समय 'अह्याउल-उलूम' का अनुवाद फ़्रेंच भाषा में हो चुका होता, तो लोग यही कहते थे कि देकार्त ने अह, याउल-उलूम से चुराया है।

अध्यात्मिक प्रवृत्तियों का परीक्षण

अल-ग़ज़ाली ने अपने समय की समस्त दार्शनिक एवं अध्यात्मिक प्रवृत्तियों का परीक्षण किया। मूल रूप से इस्लाम के मुख्य अभिप्रायों को समर्थन देने में वे अंधविश्वासी धर्मशास्त्रियों के उद्देश्यों से सहमत थे। लेकिन इनके अनुसार उन लोगों के तर्क सशक्त नहीं थे, क्योंकि वे आन्तरिक अनुभवों के गम्भीर महत्त्व के प्रति अवहेलना का भाव लिए हुए थे। वे सत्ता को सूफ़ी अनुभव के माध्यम से समझना चाहते थे, जो उनके अनुसार दिव्य व्यक्तित्व में मानव के विश्वास को समझने का एकमात्र साधन है। देकार्त की भांति इन्होंने समस्त दार्शनिक स्थितियों पर अपनी प्रसिद्ध कृति 'तहाफत-उल-फिलसाफा' (दार्शनिकों का खंडन) में संदेह व्यक्त किया है। साथ ही इन्होंने नैतिक एवं धार्मिक संकल्प के आधार पर सच्ची धर्मनिष्ठ भावना को प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया है।

अरस्तूवाद के ख़िलाफ़

चूंकि इन्होंने अरस्तूवाद को इस्लाम के शत्रु के रूप में लिया था, इसलिए ये 'अल-फरादी' एवं 'इब्ने-सीना' के दर्शनों से भी असहमत ही रहे। कहने की आवश्यकता नहीं कि ये दोनों दार्शनिक अंधविश्वासपूर्ण ढंग से अरस्तु के दर्शन को एकमात्र सम्भव एवं उस अध्यात्मपरक विद्या के रूप में स्वीकार कर चुके थे, जिनके अंतर्गत समस्त तत्वमीमांसीय एवं नीतिशास्त्रीय समस्याएं हल की जा सकती हैं। व्याघात सिद्धांत की सहायता से इन्होंने निम्नलिखित भौतिक तत्वमीमांसीय दार्शनिक सिद्धांतों का खंडन करने का प्रयास किया है-

  1. यह कि जगत् शाश्वत है।
  2. यह कि ईश्वर केवल सामान्यों से अवगत रहता है और इसलिए कोई विशिष्ट विधाता नहीं है।
  3. यह कि मात्र आत्मा अमर है और इसलिए शरीर के पुनरुज्जीवित होने का कोई प्रश्न नहीं है।

इस प्रकार इस प्रक्रिया में इन्होंने कारणता के संबंध में अपनी अति महत्त्वपूर्ण अवधारणा को विकसित किया है। कारणता को ये संकल्प करने के अर्थ में लेते हैं। ये समय संबंध के अंतर्गत प्रकृति की कारणता को पूर्ण रूप से अस्वीकृत करते हैं। समय के अंतर्गत मात्र घटनाओं का अनुवर्तित्व सभी प्रकार के कारण संबंधी व्याख्याओं के विरुद्ध जाता है। निसृत कर्म है। इस संबंध में उच्चतम सीमा के रूप में इन्होंने शाश्वत (दैवी) संकल्प को माना है जिसे प्रथम कारण कहा जाता है। इसी प्रकार से यह भी इंगित करते हैं कि सत्ता का ऐक्य जानने में नहीं बल्कि संकल्प करने में निहित है। मैं संकल्प करता हूँ इसलिए मैं हूँ। जगत् का संकल्प करने में ईश्वर उससे अवगत भी हो जाता है।  

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

विश्व के प्रमुख दार्शनिक |लेखक: श्री एस.एच. अमानतुल्लाह |प्रकाशक: वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग, नई दिल्ली, 684 |पृष्ठ संख्या: 34 |


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