कथक नृत्य: Difference between revisions

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वर्तमान समय का कथक सीधे पैरों से किया जाता है और पैरों में पहने हुए घुंघरुओं को नियंत्रित किया जाता है। कथक में एक उत्तेजना और मनोरंजन की विशेषता है जो इसमें शामिल पद ताल और तेजी से चक्‍कर लेने की प्रथा के कारण है जो इसमें प्रभावी स्‍थान रखती है तथा इस शैली की सबसे अधिक महत्‍वपूर्ण विशेषता है। इन नृत्‍यों की वेशभूषा और विषयवस्‍तु मुग़ल लघु तस्‍वीरों के समान है। जबकि यह नाट्य शास्‍त्र के समान नहीं हैं फिर भी कथक के सिद्धांत अनिवार्यत: इसके समान ही हैं। यहाँ हस्‍त मुद्राओं के भरत नाट्यम में दिए जाने वाले बल की तुलना में पद ताल पर अधिक जोर दिया जाता है।
वर्तमान समय का कथक सीधे पैरों से किया जाता है और पैरों में पहने हुए घुंघरुओं को नियंत्रित किया जाता है। कथक में एक उत्तेजना और मनोरंजन की विशेषता है जो इसमें शामिल पद ताल और तेजी से चक्‍कर लेने की प्रथा के कारण है जो इसमें प्रभावी स्‍थान रखती है तथा इस शैली की सबसे अधिक महत्‍वपूर्ण विशेषता है। इन नृत्‍यों की वेशभूषा और विषयवस्‍तु मुग़ल लघु तस्‍वीरों के समान है। जबकि यह नाट्य शास्‍त्र के समान नहीं हैं फिर भी कथक के सिद्धांत अनिवार्यत: इसके समान ही हैं। यहाँ हस्‍त मुद्राओं के भरत नाट्यम में दिए जाने वाले बल की तुलना में पद ताल पर अधिक जोर दिया जाता है।
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Revision as of 11:08, 6 February 2011

[[चित्र:Birju-Maharaj.jpg|thumb|बिरजू महाराज
Birju Maharaj]] शास्त्रीय नृत्य में कथक का नृत्‍य रूप 100 से अधिक घुंघरु‍ओं को पैरों में बांध कर तालबद्ध पदचाप, विहंगम चक्‍कर द्वारा पहचाना जाता है और हिन्दू धार्मिक कथाओं के अलावा पर्शियन और उर्दू कविता से ली गई विषय वस्‍तुओं का नाटकीय प्रस्‍तुतीकरण किया जाता है। कथक का जन्‍म उत्तर में हुआ किन्‍तु पर्शियन और मुस्लिम प्रभाव से यह मंदिर की रीति से दरबारी मनोरंजन तक पहुंच गया।

कथक की शैली का जन्‍म ब्राह्मण पुजारियों द्वारा हिन्‍दुओं की पारम्‍परिक पुन: गणना में निहित है, जिन्‍हें क‍थिक कहते थे, जो नाटकीय अंदाज में हाव भावों का उपयोग करते थे। क्रमश: इसमें कथा कहने की शैली और अधिक विकसित हुई तथा एक नृत्‍य रूप बन गया। उत्तर भारत में मुग़लों के आने पर इस नृत्‍य को शाही दरबार में ले जाया गया और इसका विकास ए परिष्कृत कलारूप में हुआ, जिसे मुग़ल शासकों का संरक्षण प्राप्‍त था और कथक ने वर्तमान स्‍वरूप लिया। इस नृत्‍य में अब धर्म की अपेक्षा सौंदर्य बोध पर अधिक बल दिया गया।

शब्‍द कथक का उद्भव 'कथा' से हुआ है, जिसका शाब्दिक अर्थ है कहानी कहना। पुराने समय में कथा वाचक गानों के रूप में इसे बोलते और अपनी कथा को एक नया रूप देने के लिए नृत्‍य करते। इससे कथा कलाक्षेपम और दक्षिण भारत में हरी कथा का रूप बना और यही उत्तर भारत में कथक के रूप में जाना जाता है। लगभग 15वीं शताब्‍दी में इस नृत्‍य परम्‍परा में मुग़ल नृत्‍य और संगीत के कारण बड़ा परिवर्तन आया। 16वीं शताब्‍दी के अंत तक कसे हुए चूड़ीदार पायजामे को कथक नृत्‍य की वेशभूषा मान लिया गया।

घराने

इस नृत्‍य परम्‍परा के दो प्रमुख घराने हैं, इन दोनों को उत्तर भारत के शहरों के नाम पर नाम दिया गया है और इनमें से दोनों ही क्षेत्रीय राजाओं के संरक्षण में विस्‍तारित हुआ - लखनऊ घराना और जयपुर घराना।

विशेषता

वर्तमान समय का कथक सीधे पैरों से किया जाता है और पैरों में पहने हुए घुंघरुओं को नियंत्रित किया जाता है। कथक में एक उत्तेजना और मनोरंजन की विशेषता है जो इसमें शामिल पद ताल और तेजी से चक्‍कर लेने की प्रथा के कारण है जो इसमें प्रभावी स्‍थान रखती है तथा इस शैली की सबसे अधिक महत्‍वपूर्ण विशेषता है। इन नृत्‍यों की वेशभूषा और विषयवस्‍तु मुग़ल लघु तस्‍वीरों के समान है। जबकि यह नाट्य शास्‍त्र के समान नहीं हैं फिर भी कथक के सिद्धांत अनिवार्यत: इसके समान ही हैं। यहाँ हस्‍त मुद्राओं के भरत नाट्यम में दिए जाने वाले बल की तुलना में पद ताल पर अधिक जोर दिया जाता है।


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