गामा पहलवान: Difference between revisions

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गामा को 'शेर-ए-पंजाब', 'रुस्तम-ए-ज़मा' (विश्व केसरी) और 'द ग्रेट गामा' जैसी उपाधियाँ दी गयीं। गामा विश्व के एक मात्र पहलवान थे जिन्होंने अपने जीवन में कोई कुश्ती नहीं हारी। गामा ने भारत का नाम पूरे विश्व में ऊँचा किया। 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद जब [[पाकिस्तान]] बना तो गामा पाकिस्तान चले गये। पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ की शादी गामा पहलवान के भाई की नातिनी कुलसुम बट से हुई।
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Revision as of 10:39, 26 September 2011

गामा पहलवान
पूरा नाम ग़ुलाम मुहम्मद
जन्म 21 मई 1960
जन्म भूमि अमृतसर, पंजाब
मृत्यु 22 मई, 1960 लाहौर, पाकिस्तान
खेल-क्षेत्र कुश्ती
पुरस्कार-उपाधि 'जॉन बुल ब्लैट बैल्ट' 'रुस्तम-ए-ज़मा', 'विश्वकेसरी' अथवा 'विश्वविजेता'
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी गामा विश्व के एक मात्र पहलवान थे जिन्होंने अपने जीवन में कोई कुश्ती नहीं हारी।
अद्यतन‎

गामा [जन्म का नाम ग़ुलाम मुहम्मद] (जन्म- 21 मई 1960 अमृतसर, पंजाब- मृत्यु- लाहौर, पाकिस्तान) शायद ही कोई ऐसा भारतीय खेल-प्रेमी हो जिसने 'रुस्तमे-ज़माँ गामा' पहलवान का नाम न सुना हो। गामा पहलवान भारत में एक किंवदंती बन चुके है। शारीरिक ताक़त के लिए जिस प्रकार आजकल दारा सिंह की मिसाल दी जाती है, इसी प्रकार कुछ समय पहले तक 'गामा पहलवान' का नाम लिया जाता था। 15 अक्टूबर 1910 में गामा को 'विश्व हॅवीवेट चैम्पियनशिप' (दक्षिण एशिया) में विजेता घोषित किया गया। अपने पहलवानी के दौर में गामा की उपलब्धियाँ इतनी आश्चर्यजनक एवं अविश्वसनीय हैं कि साधारणत: लोगों को विश्वास नहीं होता कि गामा पहलवान वास्तव में हुए थे।

उपाधियाँ

गामा को 'शेर-ए-पंजाब', 'रुस्तम-ए-ज़मा' (विश्व केसरी) और 'द ग्रेट गामा' जैसी उपाधियाँ दी गयीं। गामा विश्व के एक मात्र पहलवान थे जिन्होंने अपने जीवन में कोई कुश्ती नहीं हारी। गामा ने भारत का नाम पूरे विश्व में ऊँचा किया। 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद जब पाकिस्तान बना तो गामा पाकिस्तान चले गये। पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ की शादी गामा पहलवान के भाई की नातिनी कुलसुम बट से हुई।

प्रारम्भिक जीवन

गामा का जन्म एक कुश्ती-प्रेमी मुस्लिम परिवार में 1880 में हुआ। अमृतसर पंजाब में पैदा हुए गामा कश्मीरी 'बट' परिवार के 'पहलवा अज़ीज़' के पुत्र थे। उनका जन्म का नाम 'ग़ुलाम मुहम्मद' था। उनकी रग-रग में कुश्ती का खेल समाया हुआ था। गामा और उनके भाई 'इमामबख़्श' ने शुरू-शुरू में कुश्ती के दांव-पेच पंजाब के मशहूर 'पहलवान माधोसिंह' से सीखने शुरू किए। दतिया के महाराजा भवानीसिंह ने गामा और उनके छोटे भाई इमामबख़्श को पहलवानी करने की सुविधायें प्रदान की। दस वर्ष की उम्र में ही गामा ने जोधपुर, राजस्थान में कई पहलवानों के बीच शारीरिक कसरत के प्रदर्शन में भाग लिया और 'महाराजा जोधपुर' ने गामा को उनकी अद्भुत शारीरिक क्षमताओं को देखते हुए पुरस्कृत किया।

कुश्ती के दौर

19 साल के गामा ने तत्कालीन भारत विजेता 'पहलवान रहीमबख़्श सुल्तानीवाला' को चुनौती दे डाली। रहीमबख़्श गुजराँवाला पंजाब [1] का रहने वाला कश्मीरी, 'बट' जाति का ही था। कहते है रहीमबख़्श की लम्बाई 7 फीट थी। गामा में शक्ति और फुर्ती अद्वितीय थी लेकिन गामा की लम्बाई 5 फुट 7 इंच थी। रहीमबख़्श अपनी प्रौढ़ा अवस्था में पहुँच चुका था और अपनी पहलवानी के अंतिम समय की कुश्तियाँ लड़ रहा था। रहीमबख़्श की उम्र का अधिक होना गामा के पक्ष में जाता था।

ऐतिहासिक कुश्ती

भारत में हुई कुश्तियों में यह कुश्ती 'ऐतिहासिक कुश्ती' के रूप में जानी जाती हैं। जो घंटों तक चली और अंत में बराबर छूटी। अगली बार जब गामा और रहीमबख़्श की कुश्ती हुई तो गामा ने रहीमबख़्श को हरा दिया था लेकिन गामा कि नाक से ख़ून बहने लगा था और एक कान भी जख़्मी हो गया था।

रहीमबख़्श से अंतिम कुश्ती

रहीमबख़्श (भारत केसरी) को गामा ने अपने पहलवानी और कुश्ती के दौर का सबसे बड़ा, चुनौतीपूर्ण और शक्तिशाली प्रतिद्वदी माना। इंग्लैंड से लौटने के बाद गामा और रहीमबख़्श की कुश्ती इलाहाबाद में हुई। यह कुश्ती भी काफ़ी देर चली और गामा ने इस कुश्ती को जीतकर रुस्तम-ए-हिंद का ख़िताब जीता।

इंग्लैंड की यात्रा

रहीमबख़्श सुल्लतानीवाला को छोड़ कर, जिससे गामा की कुश्ती बराबर छूटी थी, गामा ने भारत के सभी पहलवानों को हरा दिया। 1910 के आस पास गामा का नाम एकाएक दुनिया के सामने आया। 1910 की बात है, उस समय गामा की उम्र लगभग तीस वर्ष की थी। बंगाल के एक लखपति 'सेठ शरदकुमार मित्र' कुछ भारतीय पहलवानों को इंग्लैड ले गए थे। अपने भाई इमामबख़्श के साथ गामा इंग्लैंड गये और वहाँ एक खुली चुनौती इंग्लैंड के पहलवानों को दे डाली। यह चुनौती इंग्लैंड के पहलवानो को एक धोख़े जैसी लगी जिसमें गामा ने मात्र 30 मिनट में 3 पहलवानो को हराने की बात कहीं थी, जिसमें कोई भी पहलवान गामा से कुश्ती लड़ सकता था, चाहे वह किसी भी शारीरिक आकार और वज़न का हो।

विश्व दंगल का आयोजन

उस समय लन्दन में 'विश्व दंगल' का आयोजन हो रहा था। इसमें इमामबख़्श, अहमदबख़्श और गामा ने भारत का प्रतिनिधित्व किया। गामा का क़द साढ़े पाँच फ़ुट 7 इंच और वज़न 200 पौंड के लगभग था। लन्दन के आयोजकों ने गामा का नाम उम्मीदवारों की सूची में नहीं रखा। गामा के स्वाभिमान को बहुत ठेस पहुँची। उन्होंने एक थिएटर कम्पनी में जाकर दुनिया भर के पहलवानों को चुनौती देते हुए कहा कि जो पहलवान अखाड़े में मेरे सामने पाँच मिनट तक टिक जाएगा, उसे 'पाँच पौंड' नकद दिया जाएगा। पहले कई छोटे-मोटे पहलवान गामा से लड़ने को तैयार हुए।

गामा और रोलर की कुश्ती

जब इस चुनौती को स्वीकार करके कोई गामा से लड़ने नहीं आया तो गामा ने 'स्टेनिस्लस ज़िबेस्को' और 'फ़्रॅन्क गॉश' को चुनौती दी। यह चुनौती अमेरिका के पहलवान 'बेनजामिन रोलर' ने स्वीकार की। गामा ने रोलर को 1 मिनट 40 सेकेण्ड में पछाड़ दिया। गामा और रोलर की दोबारा कुश्ती हुई जिसमें रोलर 9 मिनट 10 सेकेण्ड ही टिक सका।

पहलवान रोलर की हार

गामा ने पहले अमेरिकी पहलवान रोलर को हराया और इमामबख्श ने स्विट्ज़रलैंड के कोनोली और जान लैम को मिनटों और सैकिंडों में चित्त कर दिया। इस पर विदेशी पहलवानों और दंगल के आयोजकों के कान खड़े हुए और उन्होंने गामा को सीधे विश्व विजेता स्टेनली जिबिस्को से लड़ने को कह दिया।

स्टेनिस्लस ज़िबेस्को से कुश्ती

10 सितम्बर 1910 को गामा और 'स्टेनिस्लस ज़िबेस्को' की कुश्ती हुई। इस कुश्ती में मशहूर 'जॉन बुल ब्लैट बैल्ट' और 250 पॉउड का इनाम रखा गया। 1 मिनट से भी कम समय में गामा ने स्टेनिस्लस ज़िबेस्को को नीचे दबा लिया। ज़िबेस्को आकार में और वज़न में गामा से बड़ा था, इसलिए 2 घण्टे 35 मिनट की कोशिश के बावजूद भी पेट के बल लेटा हुआ ज़िबेस्को गामा से चित्त नहीं हो पाया। गामा ने पोलैण्ड के इस पहलवान को इतना थका दिया था कि वह हांफने लगा। जब गामा ने जिबिस्को को नीचे पटका तो वह अपने बचाव के लिए लेट गया। उसका शरीर इतना वज़नी था कि गामा उसे उठा नहीं सके।

कुश्ती का दूसरा दिन

इस पर भी जब हार-जीत का फैसला न हो सका तो कुश्ती को अनिर्णीत घोषित किया गया और फैसले के लिए दूसरे दिन की तारीख़ तय की गई। दूसरे दिन जिबिस्को डर के मारे मैदान में ही नहीं आया। दंगल के आयोजक जिबिस्को की खोजबीन करने लगे, लेकिन वह न जाने कहाँ छिप गया और इस प्रकार गामा को विश्व-विजयी घोषित किया गया।

विश्व विजेता उपाधि

17 सितम्बर 1910 को दुवारा दोनों के बीच कुश्ती की घोषणा हुई लेकिन निश्चित तिथि और समय पर ज़िबेस्को गामा का सामना करने नहीं पहुँचा। गामा को विजेता घोषित कर दिया गया और इनाम की राशि के साथ ही 'जॉन बुल ब्लैट बैल्ट' भी गामा को दे दी गई। इसके बाद गामा की उपाधि 'रुस्तम-ए-ज़मा', 'विश्वकेसरी' अथवा 'विश्वविजेता' हो गयी।

हराये गये पहलवान

इस यात्रा के दौरान गामा ने अनेक पहलवानों को धूल चटाई, जिनमें 'बेन्जामिन रॉलर'[2], 'मॉरिस देरिज़'[3], 'जोहान लेम'[4] और 'जॅसी पीटरसन' [5] थे। रॉलर से कुश्ती में गामा ने उसे 15 मिनट में 13 बार फेंका। इसके बाद गामा ने खुली चुनौती दी कि जो भी किसी भी कुश्ती में ख़ुद को 'विश्वविजेता' कहता हो वो गामा से दो-दो हाथा आज़मा सकता है, जिसमें जापान का जूडो पहलवान 'तारो मियाकी', रूस का 'जॉर्ज हॅकेन्शमित', अमरीका का 'फ़ॅन्क गॉश' शामिल थे। किसी की हिम्मत गामा के सामने आने की नहीं हुई। इसके बाद गामा ने कहा कि वो एक के बाद एक लगातार बीस पहलवानों से लड़ेगा और इनाम भी देगा लेकिन कोई सामने नहीं आया।

स्टेनिस्लस ज़िबेस्को से अंतिम कुश्ती

'रहीमबख़्श सुलतानीवाला' को हराने के बाद गामा ने भारत के मशहूर 'पहलवान पन्डित बिद्दू' को 1916 में हराया। इंग्लैंड के 'प्रिंस ऑफ़ वेल्स' ने 1922 में भारत की यात्रा के दौरान गामा को चाँदी की बेशक़ीमती 'गदा' (ग़ुर्ज) प्रदान की। इस बार गामा ने केवल ढाई मिनट में ही जिबिस्को को पछाड़ दिया। गामा की विजय के बाद पटियाला के महाराजा ने गामा को आधा मन भारी 'चाँदी की गुर्ज' और '20 हज़ार रुपये' नकद इनाम दिया था।

दक्षिण एशिया का महान पहलवान

1927 तक गामा को किसी ने चुनौती नहीं दी। 1928 में गामा का मुक़ाबला पटियाला में एक बार फिर ज़िबेस्को से हुआ 42 सेकेण्ड में गामा ने ज़िबेस्को को धूल चटा दी और दक्षिण एशिया के महान पहलवान की उपाधि धारण की। 1929 के फरवरी के महीने में गामा ने 'जेसी पीटरसन' को डेड़ मिनट में पछाड़ दिया। इसके बाद 1952 में अपने पहलवानी जीवन से अवकाश लेने तक गामा को किसी ने चुनौती नहीं दी। गामा अपने पहलवानी जीवन में अजेय रहे जो किसी भी पहलवान के लिए आज भी असम्भव है। यह गुण गामा को विश्व का महानतम पहलवान के दर्जे में ले आता है।

जीवन का अंतिम दौर

1947 में भारत के बँटवारे के समय गामा पाकिस्तान चले गये वहाँ अपने भाई इमामबख़्श के साथ और अपने भतीजों के साथ रहे और अपना शेष जीवन बिताया। 'रुस्तम-ए-ज़मां' के आखिरी दिन बड़े कष्ट और मुसीबत में गुज़रे। रावी नदी के किनारे इस अजेय पुरुष को एक छोटी-सी झोंपड़ी बनाकर रहना पड़ा। अपनी अमूल्य यादगारों सोने और चाँदी के तमग़े बेच-बेचकर अपनी ज़िन्दगी के आखिरी दिन गुज़ारने पड़े। वह हमेशा बीमार रहने लगे। उनकी बीमारी की ख़बर पाकर भारतवासियों का दु:खी होना स्वाभाविक ही था।

निधन

महाराजा पटियाला और बिड़ला बन्धुओं ने उनकी सहायता के लिए धनराशि भेजनी शुरू की, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। 22 मई, 1960 लाहौर, पाकिस्तान को 'रुस्तम-ए-ज़मां' गामा मृत्यु से हार गए। गामा मरकर भी अमर है। भारतीय कुश्ती-कला की विजय पताका को विश्व में फहराने का श्रेय केवल गामा को ही प्राप्त है।

नेशनल इस्टीटूयट ऑफ़ स्पोर्टस

आज भी पटियाला में 'नेशनल इस्टीटूयट ऑफ़ स्पोर्टस' में उनके कसरत करने का उपकरण रखा हुआ है। यह एक पत्थर का गोल चक्का है, जिसको गले में पहन कर गामा बैठक लगाया करते थे। इस गोल चक्के का वज़न 95 किलो है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अब पाकिस्तान में
  2. संयुक्त राज्य अमरीका
  3. फ़्रांस
  4. स्विटज़रलॅण्ड का यूरोप विजेता
  5. स्वीडन का विश्व विजेता

बाहरी कड़ियाँ

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