कर्मा नृत्य: Difference between revisions
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Revision as of 11:33, 15 March 2012
thumb|250px|कर्मा नृत्य कर्मा नृत्य छत्तीसगढ़ अंचल के आदिवासी समाज का प्रचलित लोक नृत्य है। भादों मास की एकादशी को उपवास के पश्चात करमवृक्ष की शाखा को घर के आंगन या चौगान में रोपित किया जाता है। दूसरे दिन कुल देवता को नवान्न समर्पित करने के बाद ही उसका उपभोग शुरू होता है। कर्मा नृत्य नई फ़सल आने की खुशी में किया जाता है।
संस्कृति का प्रतीक
यह नृत्य छत्तीसगढ़ की लोक-संस्कृति का पर्याय है। छत्तीसगढ़ के आदिवासी, ग़ैर-आदिवासी सभी का यह लोक मांगलिक नृत्य है। कर्मा नृत्य, सतपुड़ा और विंध्य की पर्वत श्रेणियों के बीच सुदूर ग्रामों में भी प्रचलित है। शहडोल, मंडला के गोंड और बैगा तथा बालाघाट और सिवनी के कोरकू और परधान जातियाँ कर्मा के ही कई रूपों को नाचती हैं। बैगा कर्मा, गोंड़ कर्मा और भुंइयाँ कर्मा आदिजातीय नृत्य माना जाता है। छत्तीसगढ़ के एक लोक नृत्य में 'करमसेनी देवी' का अवतार गोंड के घर में माना गया है, दूसरे गीत में घसिया के घर माना गया है।[1]
नृत्य के प्रकार
यों तो कर्मा नृत्य की अनेक शैलियाँ हैं, लेकिन छत्तीसगढ़ में पाँच शैलियाँ प्रचलित हैं, जिसमें झूमर, लंगड़ा, ठाढ़ा, लहकी और खेमटा हैं। जो नृत्य झूम-झूम कर नाचा जाता है, उसे 'झूमर' कहते हैं। एक पैर झुकाकर गाया जाने वाल नृत्य 'लंगड़ा' है। लहराते हुए करने वाले नृत्य को 'लहकी' और खड़े होकर किया जाने वाला नृत्य 'ठाढ़ा' कहलाता है। आगे-पीछे पैर रखकर, कमर लचकाकर किया जाने वाला नृत्य 'खेमटा' है। खुशी की बात है कि छत्तीसगढ़ का हर गीत इसमें समाहित हो जाता है।
कर्मा नृत्य में स्त्री-पुरुष सभी भाग लेते हैं। यह वर्षा ऋतु को छोड़कर सभी ऋतुओं में नाचा जाता है। सरगुजा के सीतापुर के तहसील, रायगढ़ के जशपुर और धरमजयगढ़ के आदिवासी इस नृत्य को साल में सिर्फ़ चार दिन नाचते हैं। एकादशी कर्मा नृत्य नवाखाई के उपलक्ष्य में पुत्र की प्राप्ति, पुत्र के लिए मंगल कामना; अठई नामक कर्मा नृत्य क्वांर में भाई-बहन के प्रेम संबंध; दशई नामक कर्मा नृत्य और दीपावली के दिन कर्मा नृत्य युवक-युवतियों के प्रेम से सराबोर होता है।[1]
वस्त्र तथा वाद्ययंत्र
कर्मा नृत्य में मांदर और झांझ-मंजीरा प्रमुख वाद्ययंत्र हैं। इसके अलावा टिमकी ढोल, मोहरी आदि का भी प्रयोग होता है। कर्मा नर्तक मयूर पंख का झाल पहनता है, पगड़ी में मयूर पंख के कांड़ी का झालदार कलगी खोंसता है। रुपया, सुताइल, बहुंटा ओर करधनी जैसे आभूषण पहनता है। कलई में चूरा, और बाँह में बहुटा पहने हुए युवक की कलाइयों और कोहनियों का झूल नृत्य की लय में बड़ा सुन्दर लगता है। इस नृत्य में संगीत योजनाबद्ध होती है। राग के अनुरूप ही इस नृत्य की शैलियाँ बदलती है। इसमें गीता के टेक, समूह गान के रूप में पदांत में गूँजते रहता है। पदों में ईश्वर की स्तुति से लेकर श्रृंगार परक गीत होते हैं। मांदर और झांझ की लय-ताल पर नर्तक लचक-लचक कर भाँवर लगाते, हिलते-डुलते, झुकते-उठते हुये वृत्ताकार नृत्य करते हैं।
उपवास
कर्मा की मनौती मानने वाला दिन भर उपवास रखता है और अपने सगे-सम्बंधियों और पड़ोसियों को न्योता देता है। शाम के समय कर्मा वृक्ष की पूजा कर टँगिये के एक ही वार से डाल को काटा जाता है, उसे ज़मीन में गिरने नहीं दिया जाता। उस डाल को अखरा में गाड़कर स्त्री-पुरुष रात भर नृत्य करते हैं और सुबह उसे नदी में विसर्जित कर देते हैं। इस अवसर पर गीत भी गाये जाते हैं-
उठ उठ करमसेनी पाही गिस विहान हो,
चल चल जाबो अब गंगा असनांद हो।
किंवदंतियाँ
कर्मा नृत्य के साथ कई किंवदंतियाँ भी जुड़ी हुई हैं। कई लोग इस नृत्य की अधिष्ठात्री देवी 'करमसेनी' को मानते हैं, तो कई लोग विश्वकर्मा को इसका अराध्य देवता मानते हैं। अधिकांश लोग इसकी कथा राजा कर्म से जोड़ते हैं, जिसने विपत्ति से छुटकारा पाने पर इस नृत्य का आयोजन किया था। यह नृत्य समूचे छत्तीसगढ़ में मनौती के रूप में मनाया जाता है। डॉ. बल्देव ने इस नृत्य के बारे में यह लिखा है कि- "छत्तीसगढ़ के लोग कर्मवीर हैं। कृषि कार्य की सफलता के बाद उपयुक्त अवसर पर यह नृत्य किया जाता है। आगे चलकर 'कर्म' शब्द की भावनात्मक सत्ता अपने लोकव्यापी स्वरूप के कारण मिथक में रूपांतरित हो गई। कर्मा का प्रतीक 'कर्मा वृक्ष' को और उसकी अराध्य देवी करमसेनी को मान लिया गया हो। ताज्जुब नहीं यह करमसेनी कोई कर्मशीला नारी ही रही होगी, जिसके लोकोपकारी गुण ने उसे देवी के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया और वह लोकविश्वास संबल पाकर किसी मिथकीय कहानी की नायिका बनकर अवतरित हो गई।"[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 केशरवानी, अश्विनी। छत्तीसगढ़ के लोकनृत्य (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल.)। । अभिगमन तिथि: 12 मार्च, 2012।
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