टांगीनाथ: Difference between revisions

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मन्दिर का त्रिशूल, जो कि लोहे का बना हुआ है, बहुत-ही विशालकाय है। त्रिशूल के तीनों फलक टूटे हुए हैं और यह बगल में नीचे रखा हुआ है। दाहिना फलक भी तीन भागों में बंटा हुआ है। एक स्थानीय दंतकथा के अनुसार- एक बार एक लोभी लौहार ने कोई उपयोगी उपकरण बनाकर पैसा कमाने के लिए इस त्रिशूल के तीनों फलक काट दिए। लौहार मझगांव का ही रहने वाला था। उसके इस कुकृत्य से भगवान [[शंकर]] कुपित हो गये और एक सप्ताह के अन्दर अपने समस्त परिवारजनों के साथ वह लौहार मर गया। उसके बाद ऐसी धारणा है कि पूरी मझगांव की चौहदी में कोई भी लौहार जिंदा नहीं रह सकता। त्रिशूल की लम्बाई लगभग बारह फीट है। कुछ लोगों की मान्यता है कि त्रिशूल की लम्बाई 17 फीट है और यह लगभग पाँच फीट नीचे गड़ा हुआ है। स्थानीय लोग किसी भी व्यक्ति को इस त्रिशूल को खोदने तथा इसके तह में जाकर इसकी पूरी ऊँचाई को नापने की अनुमति नहीं देते। ऐसी मान्यता है कि भगवान विश्वकर्मा ने स्वयं अपने हाथ से इस त्रिशूल का निर्माण करके इसे गाड़ा था। अत: मनुष्य को यह अधिकार नहीं है कि इसके तह में जाकर इसकी लम्बाई मापे। जो कोई भी ऐसा करेगा, उसका सर्वनाश हो जाएगा।
मन्दिर का त्रिशूल, जो कि लोहे का बना हुआ है, बहुत-ही विशालकाय है। त्रिशूल के तीनों फलक टूटे हुए हैं और यह बगल में नीचे रखा हुआ है। दाहिना फलक भी तीन भागों में बंटा हुआ है। एक स्थानीय दंतकथा के अनुसार- एक बार एक लोभी लौहार ने कोई उपयोगी उपकरण बनाकर पैसा कमाने के लिए इस त्रिशूल के तीनों फलक काट दिए। लौहार मझगांव का ही रहने वाला था। उसके इस कुकृत्य से भगवान [[शंकर]] कुपित हो गये और एक सप्ताह के अन्दर अपने समस्त परिवारजनों के साथ वह लौहार मर गया। उसके बाद ऐसी धारणा है कि पूरी मझगांव की चौहदी में कोई भी लौहार जिंदा नहीं रह सकता। त्रिशूल की लम्बाई लगभग बारह फीट है। कुछ लोगों की मान्यता है कि त्रिशूल की लम्बाई 17 फीट है और यह लगभग पाँच फीट नीचे गड़ा हुआ है। स्थानीय लोग किसी भी व्यक्ति को इस त्रिशूल को खोदने तथा इसके तह में जाकर इसकी पूरी ऊँचाई को नापने की अनुमति नहीं देते। ऐसी मान्यता है कि भगवान विश्वकर्मा ने स्वयं अपने हाथ से इस त्रिशूल का निर्माण करके इसे गाड़ा था। अत: मनुष्य को यह अधिकार नहीं है कि इसके तह में जाकर इसकी लम्बाई मापे। जो कोई भी ऐसा करेगा, उसका सर्वनाश हो जाएगा।


इस त्रिशूल के उत्तरी भाग की ओर क़रीब दस फीट की दूरी पर एक पवित्र जलकुंड है, जिसका निर्माण ईंट से हुआ है। इसकी लम्बाई 14 फुट 9 इंच तथा चौडाई 14 फुट 5 इंच के लगभग है। यह क़रीब 8 फीट गहरा है। [[जल]] प्राप्त करने के लिए पश्चिमी भाग से सीढ़ी बनी हुई है। मान्यता है कि, इस कुंड का सम्बन्ध पाताल जल से है, जो टांगीनाथ मन्दिर से जुडा हुआ है। इस कुंड से [[भक्त]] चरणामृत लेते हैं। कुंड के पश्चिमी किनारे पर शायद किसी मन्दिर के गुम्बद का शीर्षभाग का विखण्डित रुप पडा है, जो आकृति में घटपल्लव जैसा प्रतीत होता है। जनमानस में ऐसी मान्यता है कि प्रचीन समय में लोगों को एक स्थान पर एकत्रित करने के लिए इसका नगाड़े के रुप में प्रयोग किया जाता था।<ref name="mcc"/>
इस त्रिशूल के उत्तरी भाग की ओर क़रीब दस फीट की दूरी पर एक पवित्र जलकुंड है, जिसका निर्माण ईंट से हुआ है। इसकी लम्बाई 14 फुट 9 इंच तथा चौडाई 14 फुट 5 इंच के लगभग है। यह क़रीब 8 फीट गहरा है। [[जल]] प्राप्त करने के लिए पश्चिमी भाग से सीढ़ी बनी हुई है। मान्यता है कि, इस कुंड का सम्बन्ध पाताल जल से है, जो टांगीनाथ मन्दिर से जुड़ा हुआ है। इस कुंड से [[भक्त]] चरणामृत लेते हैं। कुंड के पश्चिमी किनारे पर शायद किसी मन्दिर के गुम्बद का शीर्षभाग का विखण्डित रुप पडा है, जो आकृति में घटपल्लव जैसा प्रतीत होता है। जनमानस में ऐसी मान्यता है कि प्रचीन समय में लोगों को एक स्थान पर एकत्रित करने के लिए इसका नगाड़े के रुप में प्रयोग किया जाता था।<ref name="mcc"/>





Revision as of 13:08, 9 April 2012

टांगीनाथ एक आकर्षक, पवित्र और महत्त्वपूर्ण तीर्थधाम है, जो कि भगवान शिव से सम्बन्धित है। यह पवित्र स्थान झारखण्ड राज्य में स्थित है। टांगीनाथ में लगभग 200 अवशेष हैं, जिसमें शिवलिंग और देवी-देवताओं की मूर्तियाँ, विशेषकर दुर्गा, महिषासुर मर्दानि और भगवती लक्ष्मी, गणेश, अर्द्धनारीश्वर, विष्णु, सूर्य देव, हनुमान और नन्दी बैल आदि की मूर्तियाँ प्रमुख हैं। इसके साथ ही साथ पत्थर के जलपात्र, कुम्भ आदि भी यहाँ हैं। इनमें से अधिकांश मूर्तियों एवं लिंगों को उत्खनन से प्राप्त किया गया है। मूर्तियों का नामकरण एवं पहचान स्थानीय पुजारियों की सहायता से की गई है। इनमें से कुछ मूर्तियाँ खण्डित हैं और टुकड़ों में बटीं हुई हैं, जबकि कुछ को उनकी अच्छी हालत में न होने के कारण पहचानना कठिन है। टांगीनाथ की सबसे बड़ी विशेषता एक महाविशाल त्रिशूल है। इससे बड़ा त्रिशूल शायद ही कहीं और दिखाई दे।[1]

लिगों का विभाजन

टांगीनाथ को 'टांगीनाथ महादेव' और 'बाबा टांगीनाथ' के नाम से भी जाना जाता है। यहाँ छोटे एवं बड़े कई प्रकार के लगभग 60 शिवलिंग हैं। इन शिवलिगों को प्राय: 5 भागों में विभाजित किया जा सकता है-

  1. वह शिवलिंग, जिन्हें पत्थरों के सहारे से खड़ा किया गया है। इस तरह के शिवलिंग मुख्यत: वर्गाकार आकृति के होते हैं, जो मध्य में अष्टभुजाकार हैं।
  2. वह शिवलिंग, जो सामान्य गोल एवं अर्द्धाकृति में अवस्थित है।
  3. वह शिवलिंग, जो आयताकार या वर्गाकार अर्ध में स्थापित हैं। इनमें से एक लिंग का व्यास 27 इंच तक है।
  4. वह शिवलिंग, जो छोटे वर्गाकार और आयताकार दीवार से बने चेम्बर में स्थापित है।
  5. वह शिवलिंग, जिसमें मानव मुख या शरीर खुदे हुए हैं।

पूजा का स्थान

कई प्रकार के शिवलिंगो और टूटी-फूटी मूर्तियों के अतिरिक्त टांगीनाथ में 5 स्थान प्रमुख हैं, जहाँ पूजा-अर्चना और पाठ आदि किये जाते हैं-

  1. टांगीनाथ मन्दिर या शिवमन्दिर
  2. त्रिशुल- जो कि उत्तरी प्रवेश द्वार के सामने अवस्थित है
  3. शिवमठ या योगी मठ
  4. देवी मन्दिर या देवीमुरी- यह दक्षिण द्वार के सामने अवस्थित है
  5. सूर्य मन्दिर- यह सुदूर पश्चिम के अन्त:भाग में अवस्थित है।[1]

हालांकि यहाँ पर विधिपूर्वक पूजा एवं अनुष्ठान आदि कार्य मुख्य रूप से टांगीनाथ मन्दिर और देवी मन्दिर में ही होते हैं। भक्त पूजा अर्चना परम्परागत पुजारियों की सहायता से इन्हीं दो जगहों पर करते हैं। अपनी इच्छाएँ आदि माँगते हैं, और उनके पूर्ण होने पर कृतज्ञता अर्पित करने के लिए यहाँ आते हैं।

स्थिति एवं इतिहास

टांगीनाथ चैनपुर से 16 मील की दूरी पर गुमला जनपद के डुमरी प्रखण्ड के अन्तर्गत मझगांव नामक गांव में पहाड़ी के सर्वोच्च शिखर पर अवस्थित एक विलक्षण तीर्थस्थली है। यह क्षेत्र बारहवें प्रिंसली राज के अधीन था। आधुनिक समय में यहाँ ईसाई धर्म को स्वीकार करने वाले उरांव जनजाति के लोग सर्वाधिक हैं। ईसाई धर्मावलम्बी इस क्षेत्र में 18 वीं सदी के अन्त में आए थे। मझगांव ग्राम का पश्चिमी भाग एक लम्बी पहाडी से सुरक्षित है, जिसे 'लुच-पुरपथ' कहते हैं। इस पहाडी का वह प्रदेश, जो मझगांव की ओर इंगित है। मझगांव पहाड के रुप में विख्यात है। यह पहाडी स्वतन्त्र भारतीय गणराज्य के दो प्रदेश झारखण्ड एवं छत्तीसगढ़ को स्पष्ट विभाजित करती है।

मन्दिर

टांगीनाथ मन्दिर का क्षेत्रफल 11 x 4 फीट है। इसका निर्माण ईंट की दीवार और फूस के छत से किया गया है। इसके प्रवेश द्वार पर पत्थर के दो स्तम्भ लगे हुये हैं। दरवाज़े के बाहरी भाग पर भगवान सूर्य देव की साढे चार फीट की ऊँची मूर्ती है। एक त्रिकोणीय झंडा दरवाज़े के बांयी दिशा में और छत के ऊपर लगा रहता है। मन्दिर के अन्दर एक लिंग है, जिसका व्यास पांच फीट है। यह एक अर्ध के साथ स्थापित है। लिंग को देखने से ऐसा आभास होता है कि यह एक प्रस्तरीकृत वृक्ष के तने की आकृति का है, जो बीच से खंडित है और बहुत जगह से टूटा-फूटा है। इस लिंग के साथ आठ प्रस्तर फलक सजाये हुये हैं, उसके साथ-साथ दो लोहे के त्रिशूल, जो कि क्रमश: दो और चार फीट के हैं, गढे हुये हैं। इसके अलावा लगभग एक दर्जन छोटे-छोटे झंडे लगे हुये हैं। लोगों में ऐसा विश्वास है कि सतयुग में इस सथान पर सुगन्धित वृक्ष लगा हुआ था। जब कलयुग आया, तो लोगों के आपसी वैमनस्य, घृणा, लोभ एवं अन्य कुकृत्य से दुखी होकर भगवान टांगीनाथ उस चन्दन के वृक्ष में प्रवेश कर गये और देखते ही देखते समस्त वृक्ष पत्थर बन गया। समय के प्रवाह के साथ वृक्ष के बहुत से तने टूटकर धरती पर गिर गये और खो गये, किन्तु मुख्य भाग अभी भी बचा हुआ है, जो भगवान टांगीनाथ का सूचक है। इसका नाम शिव मन्दिर होना इस बात का सूचक है कि, टांगीनाथ देवाधिदेव महादेव के एक अवतार हैं। इस मन्दिर का निर्माण जसपुर के राजा के किसी पूर्वज ने 19वीं शताब्दी में किया था।[1]

त्रिशूल

मन्दिर का त्रिशूल, जो कि लोहे का बना हुआ है, बहुत-ही विशालकाय है। त्रिशूल के तीनों फलक टूटे हुए हैं और यह बगल में नीचे रखा हुआ है। दाहिना फलक भी तीन भागों में बंटा हुआ है। एक स्थानीय दंतकथा के अनुसार- एक बार एक लोभी लौहार ने कोई उपयोगी उपकरण बनाकर पैसा कमाने के लिए इस त्रिशूल के तीनों फलक काट दिए। लौहार मझगांव का ही रहने वाला था। उसके इस कुकृत्य से भगवान शंकर कुपित हो गये और एक सप्ताह के अन्दर अपने समस्त परिवारजनों के साथ वह लौहार मर गया। उसके बाद ऐसी धारणा है कि पूरी मझगांव की चौहदी में कोई भी लौहार जिंदा नहीं रह सकता। त्रिशूल की लम्बाई लगभग बारह फीट है। कुछ लोगों की मान्यता है कि त्रिशूल की लम्बाई 17 फीट है और यह लगभग पाँच फीट नीचे गड़ा हुआ है। स्थानीय लोग किसी भी व्यक्ति को इस त्रिशूल को खोदने तथा इसके तह में जाकर इसकी पूरी ऊँचाई को नापने की अनुमति नहीं देते। ऐसी मान्यता है कि भगवान विश्वकर्मा ने स्वयं अपने हाथ से इस त्रिशूल का निर्माण करके इसे गाड़ा था। अत: मनुष्य को यह अधिकार नहीं है कि इसके तह में जाकर इसकी लम्बाई मापे। जो कोई भी ऐसा करेगा, उसका सर्वनाश हो जाएगा।

इस त्रिशूल के उत्तरी भाग की ओर क़रीब दस फीट की दूरी पर एक पवित्र जलकुंड है, जिसका निर्माण ईंट से हुआ है। इसकी लम्बाई 14 फुट 9 इंच तथा चौडाई 14 फुट 5 इंच के लगभग है। यह क़रीब 8 फीट गहरा है। जल प्राप्त करने के लिए पश्चिमी भाग से सीढ़ी बनी हुई है। मान्यता है कि, इस कुंड का सम्बन्ध पाताल जल से है, जो टांगीनाथ मन्दिर से जुड़ा हुआ है। इस कुंड से भक्त चरणामृत लेते हैं। कुंड के पश्चिमी किनारे पर शायद किसी मन्दिर के गुम्बद का शीर्षभाग का विखण्डित रुप पडा है, जो आकृति में घटपल्लव जैसा प्रतीत होता है। जनमानस में ऐसी मान्यता है कि प्रचीन समय में लोगों को एक स्थान पर एकत्रित करने के लिए इसका नगाड़े के रुप में प्रयोग किया जाता था।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 मिश्र, पूनम। टांगीनाथ तीर्थस्थल का विवरण (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल.)। । अभिगमन तिथि: 19 जनवरी, 2012।

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