अरनाथ: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
No edit summary
Line 29: Line 29:
[[Category:जैन धर्म]]
[[Category:जैन धर्म]]
[[Category:जैन तीर्थंकर]]
[[Category:जैन तीर्थंकर]]
[[Category:जैन धर्म कोश]]
[[Category:जैन धर्म कोश]][[Category:धर्म कोश]]
__INDEX__
__INDEX__
__NOTOC__
__NOTOC__

Revision as of 13:41, 21 March 2014

अरनाथ जैन धर्म की तीर्थंकर परम्परा में अठारहवें तीर्थंकर थे। भगवान अरनाथ का जन्म भी 'कुन्थुनाथ' की तरह कुरुक्षेत्र के हस्तिनापुर में हुआ था। इस राज्य के महाराजा सुदर्शन उनके पिता थे और महारानी श्रीदेवी, जिन्हें महादेवी भी कहा गया है, इनकी माता थीं। उनके जन्म और निर्वाण की माह तिथि एक-सी है। वे मार्गशीर्ष के महीने में शुक्ल पक्ष की दशमी के दिन पैदा हुए और इसी माह, पक्ष और दिन को सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त किया।

पूर्वजन्म

पूर्वजन्म में अरनाथ सुसीमा नगर में राजा धनपति थे। वे आजन्म में दयाधर्म, क्षमा और प्रेम के अवतार थे। भोगकर्मों की समाप्ति पर संवर मुनि से दीक्षा ली। समाधि द्वारा ग्रैवैयक में महर्द्धिक के गर्भ में आए। मां ने 14 दिव्य स्वप्न देखे। एक निर्मल चक्र के अरक को देखा। इसीलिए महाराजा ने बालक का नाम 'अरनाथ' रखा। अरनाथ का राजवंश की परम्परा के अनुसार लालन-पालन हुआ था। बड़े होने पर विवाह हुआ। महाराजा ने अरनाथ का राज्याभिषेक किया और वे आदर्श प्रजावत्सल शासक बने। उन्होंने आसिंधु सभी राजाओं को पराजित करते हुए चक्रवर्ती शासन की स्थापना की। आयु के साथ साथ उनकी चिन्तन वृत्ति विरक्ति, संन्यास की ओर बढ़ती गई। सुखों और विषयों की अस्थिरता पर मनन करते हुए उन्होंने अंतत: दीक्षाग्रहण कर संयम धारण कर लिया।

दीक्षा प्राप्ति

दीक्षा प्राप्ति के साथ ही उन्हें मन:पर्यवज्ञान का लाभ हुआ। अगले दिन राजपुर नरेश अपराजित के यहाँ उनका प्रथम पारणा हुआ। विशाल क्षेत्र में विचरण करते हुए नाना प्रकार के परिषदों को क्षम्यशीलता और समत्व से कहा। निद्रा-प्रमाद से दूर रहकर ध्यान में लीन रहे। उन्होंने कहा अरिहंत 14 आत्मिक दोषों से मुक्त होते हैं-

  1. ज्ञानावरण कर्मजन्य अज्ञानदोष
  2. दर्शनावरण कर्मजन्य निद्रादोष
  3. मोहकर्मजन्य मिथ्यात्व दोष
  4. अविरति दोष
  5. राग
  6. द्वेष
  7. हास्य
  8. रति
  9. अरतिखेद
  10. भय
  11. शोकचिन्ता
  12. दुर्गेच्छा
  13. काम
  14. दानांतराय

धर्मसंघ

सम्मेद शिखर पर उन्हें निर्वाण प्राप्त हुआ। उनके विशाल धर्मसंघ में 33 गणघर; 2,400 केवली; 2551 मन पर्यवज्ञानी; 2600 अवधिज्ञानी; 610 चौदहपूर्वधारी; 2300 वैक्रियलधारी; 1600 वादी; 5000 साधु; 6000 साध्वी; 184000 श्रावक एवं 372000 श्राविकाएँ थीं।[1]


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

भारतीय संस्कृति कोश, भाग-2 |प्रकाशक: यूनिवर्सिटी पब्लिकेशन, नई दिल्ली-110002 |संपादन: प्रोफ़ेसर देवेन्द्र मिश्र |पृष्ठ संख्या: 57 |

  1. जैन धर्म, राजेन्द्र मुनि, पृष्ठ 80-82

संबंधित लेख