ऋषभनाथ तीर्थंकर: Difference between revisions

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[[चित्र:Seated-Rishabhanath-Jain-Museum-Mathura-38.jpg|thumb|250px|आसनस्थ ऋषभनाथ
Seated Rishabhanatha
राजकीय जैन संग्रहालय, मथुरा]]

  • इनमें प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव हैं।
  • जैन साहित्य में इन्हें प्रजापति, आदिब्रह्मा, आदिनाथ, बृहद्देव, पुरुदेव, नाभिसूनु और वृषभ नामों से भी समुल्लेखित किया गया है।
  • युगारंभ में इन्होंने प्रजा को आजीविका के लिए कृषि (खेती), मसि (लिखना-पढ़ना, शिक्षण), असि (रक्षा , हेतु तलवार, लाठी आदि चलाना), शिल्प, वाणिज्य (विभिन्न प्रकार का व्यापार करना) और सेवा- इन षट्कर्मों (जीवनवृतियों) के करने की शिक्षा दी थी, इसलिए इन्हें ‘प्रजापति’  [1], माता के गर्भ से आने पर हिरण्य (सुवर्ण रत्नों) की वर्षा होने से ‘हिरण्यगर्भ’  [2], विमलसूरि-[3], दाहिने पैर के तलुए में बैल का चिह्न होने से ‘ॠषभ’, धर्म का प्रवर्तन करने से ‘वृषभ’  [4], शरीर की अधिक ऊँचाई होने से ‘बृहद्देव’  [5]एवं पुरुदेव, सबसे पहले होने से ‘आदिनाथ’  [6] और सबसे पहले मोक्षमार्ग का उपदेश करने से ‘आदिब्रह्मा’  [7]कहा गया है।
  • इनके पिता का नाम नाभिराय होने से इन्हें ‘नाभिसूनु’ भी कहा गया है।
  • इनकी माता का नाम मरुदेवी था।
  • ये आसमुद्रान्त सारे भारत (वसुधा) के अधिपति थे- पृथ्वी का अन्य शासक कोई शासक नहीं था। अन्त में विरक्त होकर व समग्र राजपाट को छोड़कर दीक्षापूर्वक दिगम्बर साधु हो गये थे।
  • मोक्षमार्ग का प्रथम उपदेश देने से आद्य तीर्थंकर ( धर्मोपदेष्टा) के रूप में समग्र जैन साहित्य में मान्य हैं।
  • भरत इनके ज्येष्ठ पुत्र थे, जो उनके राज्य के उत्तराधिकारी तो हुए ही, प्रथम सम्राट भी थे और जिनके नाम पर हमारे राष्ट्र का नाम ‘भारत’ पड़ा।
  • श्रीमद्भागवत पुराण [8] में कहा गया है ‘भगवान ऋषभदेव के अपनी कर्मभूमि अजनाभवर्ष में सौ पुत्र प्राप्त हुए, जिनमें से ज्येष्ठ पुत्र सहयोगी ‘ भरत’ को उन्होंने अपना राज्य दिया और उन्हीं के नाम से लोक इसे ‘भारतवर्ष’ कहने लगे। [9]इसके पूर्व अपने इस भारतवर्ष का नाम ऋषभदेव के पिता नाभिराज के नाम पर ‘ अजनाभवर्ष’ प्रसिद्ध था।
  • वैदिक धर्म में भी ऋषभदेव को एक अवतार के रूप में माना गया है।
  • ‘भागवत’ में ‘अर्हन्’ राजा के रूप में इनका विस्तृत वर्णन है। इसमें भरत आदि 100 पुत्रों का कथन जैन धर्म की तरह ही किया गया है।
  • अन्त में वे दिगम्बर (नग्न) साधु होकर सारे भारत में विहार करने का भी उल्लेख किया गया है।
  • ॠग्वेद आदि प्राचीन वैदिक साहित्य में भी इनका आदर के साथ संस्तवन किया गया है।

वीथिका


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आचार्य समन्तभद्र, स्वयम्भुस्तोत्र, श्लोक 2|
  2. जिनसेन, महापुराण, 12-95
  3. पउमचरियं, 3-68|
  4. आ. समन्तभद्र, स्वयम्भू स्तोत्र, श्लोक 5|
  5. मदनकीर्ति, शासनचतुस्त्रिंशिका, श्लोक 6, संपा. डॉ. दरबारी लाल कोठिया।
  6. मानतुङ्ग, भक्तामर आदिनाथ स्तोत्र, श्लोक 1, 25 |
  7. मानतुङ्ग, भक्तामर आदिनाथ स्तोत्र, श्लोक 1, 25 |
  8. श्रीमद्भागवत पुराण स्कन्द-5 अध्याय-4
  9. ‘येषां खलु महायोगी भरतो ज्येष्ठः श्रेष्ठगुण आसीद् येनेदं वर्ष भारतमिति व्यपदिशन्ति।‘

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