सी. शंकरन नायर: Difference between revisions
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सी. शंकरन नायर
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पूरा नाम | शंकरन नायर चेत्तूर |
जन्म | 11 जुलाई 1857 |
जन्म भूमि | पालक्काड, केरल |
मृत्यु | 24 अप्रैल 1934 |
मृत्यु स्थान | मद्रास (वर्तमान चेन्नई) |
नागरिकता | भारतीय |
प्रसिद्धि | भारतीय न्यायविद एवं राजनेता |
शिक्षा | आर्ट्स एवं कानून की उपाधि |
विद्यालय | मद्रास प्रेसिडेंसी कॉलेज |
पुरस्कार-उपाधि | कमांडर ऑफ इंडियन एम्पायर (1904), 'नाइट की पदवी' (1912) |
अन्य जानकारी | सी. शंकरन नायर एक प्रखर राष्ट्रवादी थे। इसलिए उन्होंने जहां एक तरफ ब्रिटिश संसदीय संस्थाएं, देशप्रेम और उद्योगों की सराहना की, वही दूसरी तरफ भारतीय अर्थव्यवस्था पर ब्रिटिश राज के दुष्प्रभावों को उजागर भी किया। |
सी. शंकरन नायर (अंग्रेज़ी: C. Sankaran Nair, जन्म: 11 जुलाई, 1857, पालक्काड, केरल; मृत्यु: 24 अप्रैल, 1934, मद्रास) भारतीय न्यायविद एवं राजनेता थे, जिन्होंने अपने स्वतंत्र विचारों और स्पष्टवादिता के बावजूद उच्च सरकारी पद हासिल किए थे, जो उस समय भारतीयों को मुश्किल से मिलते थे। उन्होंने एक साथ मोहनदास करमचंद्र गांधी के नेतृत्व में चरम भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन तथा ब्रिटिश भारत सरकार द्वारा इसे बलपूर्णक कुचले जाने, दोनों का विरोध किया था।[1]
जन्म एवं शिक्षा
सी. शंकरन नायर का जन्म 11 जुलाई, 1857 को मनकारा, पालक्काड के निकट, केरल में हुआ था। इनका पूरा नाम शंकरन नायर चेत्तूर था। इनकी प्रारंभिक शिक्षा पारंपरिक तरीके से घर में ही हुई थी और फिर वह मालाबार के स्कूल में जारी रही, कालीकट के प्रॉविन्शियल स्कूल से आर्ट्स की परीक्षा में वह प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुए। इसके बाद सी. शंकरन नायर ने मद्रास के प्रेसिडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। 1877 में उन्होंने कला की उपाधि प्राप्त की और दो साल बाद मद्रास लॉ कॉलेज से क़ानून की उपाधि हासिल की। 1880 में इन्होंने मद्रास हाईकोर्ट में वकील के तौर पर अपना पेशेवर जीवन शुरू किया।
न्यायाधीश पद
शंकरन नायर को मद्रास प्रांत का सरकारी वकील 1899 में बनाया गया एवं महाधिवक्ता 1907 में तथा मद्रास उच्च न्यायालय का न्यायाधीश 1908 में नियुक्त किया गया। 1915 तक वह इस पद पर रहे। इसी बीच साल 1902 में वॉयसराय लॉर्ड कर्जन ने उन्हें सालिग यूनिवर्सिटी कमीशन का सचिव बनाया। अपने सबसे प्रसिद्ध फ़ैसले में उन्होंने हिंदू धर्म में धर्मातरण को उचित ठहराया तथा फ़ैसला दिया कि ऐसे धर्मांतरित लोग जाति बहिष्कृत नहीं हैं। कुछ सालों तक वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रतिनिधि रहे और इसके अमरावती अधिवेशन 1897 की अध्यक्षता की, उन्होंने 'द मद्रास रिव्यू' एवं 'द मद्रास लॉ' जर्नल की स्थापना और संपादन किया।[1]
राष्ट्रवादी
सी. शंकरन नायर के बारे में कोई शक नहीं था कि वह एक प्रखर राष्ट्रवादी थे। हालांकि, वह कट्टरपंथी राष्ट्रवादी नहीं थे जो दूसरों में क्या अच्छा है इसे देखकर अंधे हो जाए, इसलिए उन्होंने जहां एक तरफ ब्रिटिश संसदीय संस्थाएं, देशप्रेम और उद्योगों की सराहना की, वही दूसरी तरफ भारतीय अर्थव्यवस्था पर ब्रिटिश राज के दुष्प्रभावों को उजागर भी किया।
व्यक्तित्व
सी. शंकरन नायर राजनीति में उदारवादी और नरमपंथी थे। सर शंकरन की मौजूदगी उतनी ही प्रभावशाली थी, जितनी उनकी योग्यता। अपने जीवनकाल में वह जिस भी क्षेत्र में गए, वहां उन्होंने ऊंचाईयों को छुआ। वह एक देशप्रेमी थे जो अपने लोगों की भलाई के लिए कार्य करता था। सामाजिक सुधारों में वह अपने समय से कहीं आगे थे और उनका योगदान काफ़ी अहम था।
नाइट की उपाधि
सी. शंकरन 1915 में शिक्षा सदस्य के रूप में वायसराय की परिषद में शामिल हुए। इस कार्यालय में उन्होंने बार-बार भारतीय संवैधानिक सुधारो का आग्रह किया और 'मॉंटेग्यू-चेम्सफ़ोर्ड योजना' (22 अप्रैल 1918 को अधिसूचित) का समर्थन किया, जिसके अनुसार, ब्रिटिश साम्राज्य के तहत भारत को धीरे-धीरे स्वशासन हासिल करना था। उन्होंने पंजाब में असंतोष दबाने के लिए लंबे समय तक फ़ौजी क़ानून का इस्तेमाल किए जाने के विरोध में 1919 में परिषद से त्यागपत्र दे दिया। 1904 में उनकी सेवाओं को देखते हुए उन्हें किंग एम्परर द्वारा "कमांडर ऑफ इंडियन एम्पायर" की उपाधि से नवाजा गया और साल 1912 में उन्हें 'नाइट की पदवी' से सम्मानित किया गया। सी. शंकरन नायर लंदन में 1920-1921 तक भारत राज्य सचिव के सलाहकार तथा भारतीय राज्य परिषद के सदस्य 1925 तक रहे।[1]
ब्रिटिश कार्रवाई की आलोचना
सी. शंकरन नायर ने 'अखिल भारतीय समिति' के अध्यक्ष के रूप में भी काम किया, जिसने 1928-1929 में भारतीय वैधानिक समस्याओं के बारे में, ख़ास कुछ न हासिल करते हुए, साइमन आयोग (भारतीय वैधानिक आयोग, जिसमें ब्रिटिश राजनीतिज्ञ थे) से भेंट की। अपनी पुस्तक 'गांधी ऐंड एनार्की' (1922) में सी. शंकरन नायर नें गांधी के असहयोग आंदोलन तथा फ़ौजी क़ानून के तहत ब्रिटिश कार्रवाई की कड़ी आलोचना की। एक ब्रिटिश अदालत ने निर्णय दिया कि इस पुस्तक में 1919 के पंजाब विद्रोह के दौरान भारत के लेफ़्टिनेंट गवर्नर सर माइकल फ़्रांसिस ओ'डायर की मानहानि की गई है।[1]
मृत्यु
सी. शंकरन नायर की मृत्यु 24 अप्रैल 1934, मद्रास {वर्तमान चेन्नई} में हो गई।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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