जात्रा नृत्य: Difference between revisions
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Revision as of 06:02, 8 November 2010
लोक नृत्य में जात्रा भारत के पूर्वी क्षेत्र का लोक कलामंच का एक लोकप्रिय रूप है। यह कई व्यक्तियों द्वारा किया जाने वाला एक नाट्य अभिनय है जिसमें संगीत, अभिनय, गायन और नाटकीय वाद विवाद होता है। पहले जात्रा के सशक्त माध्यम के जरिए जनसमूह को धार्मिक मान्यताओं की जानकारी दी जाती थी। उड़िया और बंगाली जात्रा का जन्म काफी पहले हुआ था और इतिहास के जानकारों तथा साहित्य के आलोचकों के बीच इसके विषय में विभिन्न विचार हैं। तथापि उन्होंने नाट्य शास्त्र में जात्रा के लेख पर ध्यान आकर्षित किया है, जो नृत्य की कला और विज्ञान का मुख्य ग्रंथ है। उन्होंने बंगाल, बिहार और उड़ीसा में नाटकीय प्रस्तुतीकरण की शुरूआत में भी योगदान दिया है जो जयदेव के 'गीत गोविंदम' में है।
गायन शैली
बंगाल में एक प्रकार की गायन शैली करिया है, जो नौवी से बारहवीं शताब्दी के बीच लोकप्रिय थी। अमर कोस पर दिए गए वृतांत में इसके अस्तित्व का उल्लेख मिलता है और इनके कुछ खण्ड ताम्र पत्रों में भी पाए गए हैं। इन गीतों की भाषा को उन लोगों के वर्ग का सृजन माना गया है, महायान बौद्ध धर्म के अनुयायी थे। इसमें बुद्ध नाटक के संदर्भ भी मिलते हैं। इस साक्ष्य से कोई निश्चित कटौती नहीं की जा सकती, फिर भी यह स्पष्ट है कि यह एक प्रकार का संगीतमय नाटक था, जो संभवतया उस समय प्रचलित था। इस अवधि के दौरान उड़ीसा में करिया पद लोकप्रिय थे।
चैत्यन्य जो एक समाज सुधारक थे और उनके अनुयायियों ने इन्हें दोबारा जीवित करने में योगदान दिया और वे उस समय सांस्कृतिक स्तर पर भारत के अनेक हिस्सों में राष्ट्रीय एकता लाने के लिए उत्तरदायी थे जब सभी भारतीय क्षेत्र राजनीतिक और आर्थिक संकट से प्रभावित थे। वे सृजक थे, वे नाटक के निर्देशक थे और धार्मिक - सामाजिक प्रयोजन के लिए नाटक के स्वयं सचेत वाहक हुआ करते थे। इतिहास गवाह है कि वे नाटकीय परिप्रक्षेप में इसकी प्रथम निश्चित प्रस्तुती थे, जहां चैत्यन्य ने स्वयं रूकमणी का अभिनय किया था। तब संभवतया यह कृष्ण जात्रा की शुरूआत थी। अत: वे नि:स्संदेह रूप से बंगाल और उड़ीसा की समकालीन यात्रा के पूर्ववर्ती थे।
नाटक लिखने की शैली
आज जात्राओं के लिए नाटक लिखने की शैली में अनेक बदलाव हुए हैं। अब जात्रा के नाटक केवल धार्मिक, ऐतिहासिक या काल्पनिक विषयों पर सीमित नहीं हैं। उनमें आधुनिक रुचि के लिए उपयुक्त सामाजिक विषयवस्तु भी जोड़े गए हैं।
प्रस्तुतीकरण
जात्रा एक सादे मंच पर की जाती है जिसके चारों ओर दर्शक होते हैं। सामूहिक गीत गायक और संगीतकार मंच पर अपने स्थान पर बैठ जाते हैं। इस पर मंच संबंधी कोई आडम्बर नहीं होता, यहाँ केवल बैठने का एक स्थान होता है जो विभिन्न कार्यक्रमों में एक सिंहासन, एक बिस्तर या किनारे रखी बैंच के तौर पर कार्य करता है। मंच पर अभिनेता अत्यंत सैद्धांतिक रूप में गीतशील होते हैं। वे अपनी ऊँची आवाज में भाषण देते हैं और उन्हें इतनी तेज़ी से बोलना होता है कि चारों ओर बैठे दर्शक उनकी आवाज सुन सकें। परिणाम स्वरूप वे एक अत्यंत उत्तेजित शैली में बोलते हैं और उनकी हाव भाव भी उसके अनुसार होते हैं। उनकी वेशभूषा चमकदार और उनकी तलवारें चकाचौंध पैदा करती हैं और जल्दी ही उनके शब्दों के साथ संघर्ष शुरू हो जाता है। कभी कभार ये अभिनेता भावनात्मक मन: स्थिति को दर्शाते हैं जैसे कि प्रेम, दुख, करुणा, किन्तु इन सभी में उत्तेजना का तत्व हमेशा मौजूद होता है। क्योंकि उन्हें अपने आप को जीवन से बड़े आकार में प्रस्तुत करना होता है।
जैसा कि अन्य नाट्य रूपों में होता है यात्रा का मुख्य प्रदर्शन कुछ प्रारंभिक रसमों के बाद किया जाता है। यहाँ वे कुछ गीत गाते हैं और कुछ संगीत वाद्यों को बजाते हैं। श्याम कल्याण, बिहार और पूर्बी आदि सहित अनेक रागों का गायन किया जाता है। कुछ संगीतमय पंक्तियाँ गाने के बाद संगीत वाद्य बजाए जाते हैं। जैसे ही यह संगीत कार्यक्रम पूरा होता है नर्तकों का एक समूह आ पहुंचता है और वे अपना नृत्य शुरू करते हैं। आम तौर पर सामूहिक नृत्य के बाद एकल नृत्य किया जाता है।