वीरता के परिचायक महाराणा प्रताप

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left||thumb|महाराणा प्रताप का डाक टिकट महाराणा प्रताप ने एक प्रतिष्ठित कुल के मान-सम्मान और उसकी उपाधि को प्राप्त किया, परन्तु उनके पास न तो राजधानी थी और न ही वित्तीय साधन। बार-बार की पराजयों ने उनके स्व-बन्धुओं और जाति के लोगों को निरुत्साहित कर दिया था। फिर भी उनके पास अपना जातीय स्वाभिमान था। उन्होंने सत्तारूढ़ होते ही चित्तौड़ के उद्धार, कुल के सम्मान की पुनर्स्थापना तथा उसकी शक्ति को प्रतिष्ठित करने की तरफ़ अपना ध्यान केन्द्रित किया। इस ध्येय से प्रेरित होकर वह अपने प्रबल शत्रु के विरुद्ध जुट सके। उन्होंने इस बात की चिन्ता नहीं की कि परिस्थितियाँ उनके कितने प्रतिकूल हैं। उनका चतुर विरोधी एक सुनिश्चित नीति के द्वारा उनके ध्येय को परास्त करने में लगा हुआ था।

राणा से सम्बंधित महत्त्वपूर्ण तथ्य

मुग़ल प्रताप के धर्म और रक्त बंधुओं को ही उनके विरोध में खड़ा करने में जुटे थे। मारवाड़, आमेर, बीकानेर और बूँदी के राजा लोग अकबर की सार्वभौम सत्ता के सामने मस्तक झुका चुके थे। इतना ही नहीं, प्रताप का सगा भाई सागर[1] भी उसका साथ छोड़कर शत्रु पक्ष से जा मिला और अपने इस विश्वासघात की क़ीमत उसे अपने कुल की राजधानी और उपाधि के रूप में प्राप्त हुई। प्रताप से सम्बंधित कुछ तथ्य निम्नलिखित हैं-

ध्रम रहसी, रहसी धरा, खिस जासे खुरसाण।
अमर बिसंभर ऊपरे रखिओ नहचो राण॥

  • महाराणा का वह निश्चय लोकविश्रुत है- 'भगवान एकलिंग की शपथ है, प्रताप के इस मुख से अकबर तुर्क ही कहलायेगा। मैं शरीर रहते उसकी अधीनता स्वीकार करके उसे बादशाह नहीं कहूँगा। सूर्य जहाँ उगता है, वहाँ पूर्व में ही उगेगा। सूर्य के पश्चिम में उगने के समान प्रताप के मुख से अकबर को बादशाह निकलना असम्भव है-

तुरक कहासी मुख पतो इण तनसूँ इकलिंग।
ऊगै हाँईं ऊगसी, प्राची बीच पतंग॥

  • अकबर की कूटनीति व्यापक थी। राज्य को जिस प्रकार उसने राजपूत नरेशों से सन्धि एवं वैवाहिक सम्बन्ध द्वारा निर्भय एवं विस्तृत कर लिया था, धर्म के सम्बन्ध में भी वह अपने 'दीन-ए-इलाही' के द्वारा हिन्दू धर्म की श्रद्धा थकित करने के प्रयास में नहीं था, कहना कठिन है। आज कोई कुछ कहे, किंतु उस युग में सच्ची राष्ट्रीयता थी। हिंदुत्व और उसकी उज्ज्वल ध्वजा, गर्वपूर्वक उठाने वाला एक ही अमर सेनानी था- राणा प्रताप। अकबर का शक्ति सागर इस अरावली के शिखर से व्यर्थ ही टकराता रहा, नहीं झुका।
  • अकबर के महासेनापति राजा मानसिंह, शोलापुर विजय करके लौट रहे थे। उदय सागर पर महाराणा ने उनके स्वागत का प्रबन्ध किया था। हिन्दू नरेश के यहाँ भला अतिथि का सत्कार न होता, किंतु महाराणा प्रताप ऐसे राजपूत के साथ बैठकर भोजन कैसे कर सकते थे, जिसकी बुआ मुग़ल अन्त:पुर में हो। मानसिंह को बात समझने में कठिनाई नहीं हुई। अपमान से जले वे दिल्ली पहुँचे और सैन्य सज्जित करके चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया।

कुशल प्रशासक

महाराणा प्रताप प्रजा के हृदय पर शासन करने वाले शासक थे। उनकी एक आज्ञा हुई और विजयी सेना ने देखा कि उसकी विजय व्यर्थ है। चित्तौड़ भस्म हो गया, खेत उजड़ गये, कुएँ भर दिये गये और ग्राम के लोग जंगल एवं पर्वतों में अपने समस्त पशु एवं सामग्री के साथ अदृश्य हो गये। शत्रु के लिये इतना विकट उत्तर, यह उस समय महाराणा की अपनी सूझ थी। अकबर के उद्योग में राष्ट्रीयता का स्वप्न देखने वालों को इतिहासकार बदायूँनी आसफ ख़ाँ के ये शब्द स्मरण कर लेने चाहिये कि- "किसी की ओर से सैनिक क्यों न मरे, थे वे हिन्दू ही और प्रत्येक स्थिति में विजय इस्लाम की ही थी।" यह कूटनीति थी अकबर की और महाराणा इसके समक्ष अपना राष्ट्रगौरव लेकर अडिग भाव से उठे थे।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 'कन्धार' नामक दुर्ग सागर के अधिकार में था। उसके वंशज 'सागरौत' कहलाये

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