लॉर्ड विलियम बैंटिक

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thumb|लॉर्ड विलियम बैंटिक लॉर्ड विलियम बैंटिक, जिसे 'विलियम कैवेंडिश बैटिंग' के नाम से भी जाना जाता है, को भारत का प्रथम गवर्नर-जनरल का पद सुशोभित करने का गौरव प्राप्त है। पहले वह मद्रास का गवर्नर बनकर भारत आया था। उसका शासनकाल अधिकांशत: शांति का काल था। बैंटिक ने भारतीय रियासतों के मामले में अहस्तक्षेप की नीति को अपनाया था। उसने पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह से संधि की थी, जिसके द्वारा अंग्रेज़ और महाराजा रणजीत सिंह ने सिंध के मार्ग से व्यापार को बढ़ावा देना स्वीकार किया था। बैंटिक के भारतीय समाज में किए गए सुधार आज भी प्रसिद्ध हैं। सती प्रथा को समाप्त करने में उसका महत्त्वपूर्ण योगदान था। अपने शासनकाल के अंतिम समय में वह बंगाल का गवर्नर-जनरल (1828-33 ई.) रहा था।

भारत में आगमन

लॉर्ड विलियम बैंटिक पहले मद्रास के गवर्नर की हैसियत से भारत आया था, लेकिन 1806 ई. में वेल्लोर में सिपाही विद्रोह हो जाने पर उसे वापस बुला लिया गया। इक्कीस वर्षों के बाद लॉर्ड एम्सहर्स्ट द्वारा त्यागपत्र दे देने पर उसे गवर्नर-जनरल नियुक्त किया गया और उसने जुलाई 1828 ई. में यह पद ग्रहण कर लिया।

बैंटिक का शासनकाल

चित्र:Blockquote-open.gif लॉर्ड विलियम बैंटिक ने भारतीय सेना में प्रचलित कोड़े लगाने की प्रथा को समाप्त कर दिया। भारतीय नदियों में स्टीमर चलवाने आरम्भ किये, आगरा क्षेत्र में कृषि भूमि का बंदोबस्त कराया। भारतीयों को कम्पनी की निम्न नौकरियों को छोड़कर ऊँची नौकरियों से अलग रखने की ग़लत नीति को उलट दिया और भारतीयों की सहायक जज जैसे उच्च पदों पर नियुक्तियाँ कीं। उसने भारतीयों की नियुक्तियाँ अच्छे वेतन पर 'डिप्टी मजिस्ट्रेट' जैसे प्राशासकीय पदों पर की तथा 'डिवीजनल कमिश्नरों (मंडल आयुक्त)' के पदों की स्थापना की। चित्र:Blockquote-close.gif

बैंटिक के सात वर्ष के शासनकाल में कोई भी युद्ध नहीं हुआ और प्राय: शान्ति ही बनी रही। यद्यपि उसने युद्ध के द्वारा कोई नया प्रदेश नहीं जीता, तथापि 1830 ई. में 'कछार' (आसाम) के उत्तराधिकारियों का आपस में कोई निर्णय न होने पर उस पर क़ब्ज़ा कर लिया गया। इसी प्रकार 1834 ई. में शासकीय अयोग्यता के कारण दक्षिण का कुर्ग इलाक़ा एवं 1835 ई. में आसाम का 'जयन्तिया' परगना ब्रिटिश भारत में मिला लिया लिया, क्योंकि उसके शासक ने उन आदमियों को सौंपने से इन्कार कर दिया था, जो ब्रिटिश नागरिकों को उठा ले गये थे और काली देवी के आगे उनकी बलि चढ़ा दी थी।

नीति

सामान्यत: लॉर्ड बैंटिक ने देशी रियासतों के मामलों में हस्तक्षेप न करने की नीति का अनुसरण किया। लेकिन 1831 ई. में मैसूर नरेश के लम्बे कुशासन के कारण उसके राज्य को ब्रिटिश प्रशासन के अंतर्गत ले लिया गया। बैंटिक भारतीय साम्राज्य के विभिन्न प्रान्तों की स्वयं जानकारी रखने के उद्देश्य से बहुत अधिक दौरे किया करता था। 1829 ई. में वह मलय प्रायद्वीप गया और उसकी राजधानी पेनांग से सिंगापुर स्थानान्तरित कर दी। इंग्लैण्ड की सरकार के निर्देश पर उसने सिंध के अमीरों से व्यावसायिक संधियाँ कीं, जिसके फलस्वरूप सिन्धु का जलमार्ग अंग्रेज़ों की जहाज़रानी के लिए खुल गया। 1831 ई. में उसने पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह से संधि की, जिसके फलस्वरूप अंग्रेज़ों और महाराजा ने सतलुज और ऊपरी सिन्ध के मार्ग से व्यापार को प्रोत्साहित करना स्वीकार कर लिया। उसके द्वारा एक ग़लत नीति का सूत्रपात इस रूप में हो गया कि, अमीर दोस्त मुहम्मद से अफ़ग़ानिस्तान की राजगद्दी प्राप्त करने के लिए निर्वासित शाहशुजा को प्रोत्साहित किया गया। इस ग़लत नीति के फलस्वरूप 1838-42 ई. में प्रथम अफ़ग़ान युद्ध में अंग्रेज़ों को भारी क्षति उठानी पड़ी, यद्यपि बाद में सिंध को अंग्रेज़ी राज्य में मिला लिया गया था।

सामाजिक सुधार के कार्य

बैंटिक के शासन का महत्त्व उसके प्रशासकीय एवं सामाजिक सुधारों के कारण है, जिनके फलस्वरूप वह बहुत ही लोकप्रिय हुआ। इनका आरम्भ सैनिक और असैनिक सेवाओं में किफ़ायतशारी बरतने से हुआ। उसने राजस्व, विशेषकर अफ़ीम के एकाधिकार से होने वाली आय में भारी वृद्धि की। फलत: जिस वार्षिक बजट में घाटे होते रहते थे, उनमें बहुत बचत होने लगी। उसने भारतीय सेना में प्रचलित कोड़े लगाने की प्रथा को भी समाप्त कर दिया। भारतीय नदियों में स्टीमर चलवाने आरम्भ किये, आगरा क्षेत्र में कृषि भूमि का बंदोबस्त कराया, जिससे राजस्व में वृद्धि हुई, तथा किसानों के द्वारा दी जाने वाली मालगुज़ारी का उचित निर्धारण कर उन्हें अधिकार के अभिलेख दिलवाये। बैंटिक ने लॉर्ड कार्नवालिस की भारतीयों को कम्पनी की निम्न नौकरियों को छोड़कर ऊँची नौकरियों से अलग रखने की ग़लत नीति को उलट दिया और भारतीयों की सहायक जज जैसे उच्च पदों पर नियुक्तियाँ कीं। ज़िला मजिस्ट्रेट तथा ज़िला कलेक्टर के पद को मिलाकर एक कर दिया, प्रादेशिक अदालतों को समाप्त कर दिया, भारतीयों की नियुक्तियाँ अच्छे वेतन पर डिप्टी मजिस्ट्रेट जैसे प्राशासकीय पदों पर की तथा 'डिवीजनल कमिश्नरों (मंडल आयुक्त)' के पदों की स्थापना की। इस प्रकार उसने भारतीय प्रशासकीय ढाँचे को उसका आधुनिक रूप प्रदान किया।

भारतीयों में लोकप्रियता

लॉर्ड बैंटिक के सामाजिक सुधार भी कुछ कम महत्त्व के नहीं थे। 1829 ई. में उसने सती प्रथा को समाप्त कर दिया। कर्नल स्लीमन के सहयोग से उसने ठगी का उन्मूलन किया। उस समय ठगों का देशव्यापी गुप्त संगठन था, वे देश भर में घूता करते थे और भोले-भाले यात्रियों की रुमाल से गला घोंटकर हत्या कर दिया करते थे और उनका सारा माल लूट लेते थे। 1832 ई. में धर्म-परिवर्तन से होने वाली सभी अयोग्यताओं को समाप्त कर दिया गया। 1833 ई. में कम्पनी के अधिकार पत्र को अगले बीस वर्षों के लिए नवीन कर दिया गया। इससे कम्पनी चीन के व्यवसाय पर एकाधिकार से वंचित हो गई। अब वह मात्र प्रशासकीय संस्था रह गई। नये चार्टर एक्ट के द्वारा अनेक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किये गये। बंगाल के गवर्नर-जनरल के पद का नाम बदलकर भारत का गवर्नर-जनरल कर दिया गया। गवर्नर-जनरल की कौंसिल की सदस्य संख्या बढ़ाकर चार कर दी गई तथा यह सिद्धान्त निर्दिष्ट किया गया कि कोई भी भारतीय, मात्र अपने धर्म, जन्म अथवा रंग के कारण कम्पनी के अंतर्गत किसी पद से, यदि वह उसके लिए योग्य हो, वंचित नहीं किया जायेगा।

1832 ई. के चार्टर एक्ट में यह निर्देश दिया गया था कि भारतीयों में शिक्षा का प्रसार करने के लिए उचित क़दम उठाये जाने चाहिए। अत: लॉर्ड विलियम बैंटिक ने आदेश दिया कि भविष्य में सरकार द्वारा संचालित स्कूलों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी होनी चाहिए और भारतीयों में पश्चिमी शिक्षा का प्रसार करने के लिए और अधिक धन ख़र्च किया जाना चाहिए। लॉर्ड विलियम बैंटिक ने 1835 ई. में कलकत्ता मेडिकल कॉलेज की स्थापना की। उसी वर्ष मार्च के महीने में वह अपने उच्च पद से सेवानिवृत्त हो गया। लॉर्ड विलियम बैंटिक ने अपने शासनकाल में जिस उदारता तथा सहानुभूति का परिचय दिया, उसके फलस्वरूप भारतीयों में उसे अपने किसी भी पूर्वाधिकारी की अपेक्षा अधिक लोकप्रियता मिली।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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