भरतनाट्यम नृत्य

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thumb|150px|भरतनाट्यम नृत्य भरतनाट्यम नृत्य शास्त्रीय नृत्य का एक प्रसिद्ध नृत्य है। भरत नाट्यम, भारत के प्रसिद्ध नृत्‍यों में से एक है तथा इसका संबंध दक्षिण भारत के तमिलनाडु राज्‍य से है। यह नाम 'भरत' शब्‍द से लिया गया तथा इसका संबंध नृत्‍यशास्‍त्र से है। ऐसा माना जाता है कि ब्रह्मा, हिन्दू देवकुल के महान् त्रिदेवों में से प्रथम, नाट्य शास्‍त्र अथवा नृत्‍य विज्ञान हैं। इन्‍द्र व स्‍वर्ग के अन्‍य देवताओं के अनुनय-विनय से ब्रह्मा इतना प्रभावित हुआ कि उसने नृत्‍य वेद सृजित करने के लिए चारों वेदों का उपयोग किया। नाट्य वेद अथवा पंचम वेद, भरत व उसके अनुयाइयों को प्रदान किया गया जिन्‍होंने इस विद्या का परिचय पृथ्‍वी के नश्‍वर मनुष्‍यों को दिया। अत: इसका नाम भरत नाट्यम हुआ।

मूलभूत तत्‍व

भरत नाट्यम में नृत्‍य के तीन मूलभूत तत्‍वों को कुशलतापूर्वक शामिल किया गया है। ये हैं-

  • भाव अथवा मन:स्थिति,
  • राग अथवा संगीत और स्‍वरमार्धुय और
  • ताल अथवा काल समंजन।

भरत नाट्यम की तकनीक में हाथ, पैर, मुख व शरीर संचालन के समन्‍वयन के 64 सिद्धांत हैं, जिनका निष्‍पादन नृत्‍य पाठ्यक्रम के साथ किया जाता है। thumb|150px|left|भरतनाट्यम नृत्य

मूल तत्‍व

[[चित्र:Bharatanatyam-Stamp.jpg|thumb|250px|भरतनाट्यम पर डाक टिकट]] भरत नाट्यम में जीवन के तीन मूल तत्‍व – दर्शन शास्‍त्र, धर्म व विज्ञान हैं। यह एक गतिशील व सांसारिक नृत्‍य शैली है, तथा इसकी प्राचीनता स्‍वयं सिद्ध है। इसे सौंदर्य व सुरुचि संपन्‍नता का प्रतीक ब‍ताया जाना पूर्णत: संगत है। वस्‍तुत: य‍ह एक ऐसी परंपरा है, जिसमें पूर्ण समर्पण, सांसारिक बंधनों से विरक्ति तथा निष्‍पादनकर्ता का इसमें चरमोत्‍कर्ष पर होना आवश्‍यक है। भरत नाट्यम तुलनात्‍मक रूप से नया नाम है। पहले इसे सादिर, दासी अट्टम और तन्‍जावूरनाट्यम के नामों से जाना जाता था।

मुद्राएं

विगत में इसका अभ्‍यास व प्रदर्शन नृत्‍यांगनाओं के एक वर्ग जिन्‍‍हें 'देवदासी' के रूप में जाना जाता है, द्वारा मंदिरों में किया जाता था। भरत नाट्यम के नृत्‍यकार मुख्‍यत: महिलाएं हैं, वे मूर्तियों के अनुसार अपनी मुद्राएं बनाती हैं, सदैव घुटने मोड़ कर नृत्‍य करती हैं। यह नितांत परिशुद्ध शैली है, जिसमें मनोदशा व अभिव्‍यंजना संप्रेषित करने के लिए हस्‍त संचालन का विशाल रंगपटल प्रयोग किया जाता है।

भरत नाट्यम अनुनादी है तथा इसमें नर्तक को बहुत मेहनत करनी पड़ती है। शरीर ऐसा जान पड़ता है मानो त्रिभुजाकार हो, एक हिस्‍सा धड़ से ऊपर व दूसरा नीचे। यह, शरीर भार के नियंत्रित वितरण, व निचले अंगों की सुदृढ़ स्थिति पर आधारित होता है, ताकि हाथों को एक पंक्ति में आने, शरीर के चारों ओर घुमाने अथवा ऐसी स्थितियाँ बनाने, जिससे मूल स्थिति और अच्‍छी हो, में सहूलियत हो।


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