Difference between revisions of "मेवाड़ का इतिहास"

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'''राजस्थान''' का [[मेवाड़]] राज्य पराक्रमी [[गहलौत वंश|गहलौतों]] की भूमि रहा है, जिनका अपना एक इतिहास है। इनके रीति-रिवाज तथा इतिहास का यह स्वर्णिम खजाना अपनी मातृभूमि, [[धर्म]] तथा [[संस्कृति]] व रक्षा के लिए किये गये गहलौतों के पराक्रम की याद दिलाता है। स्वाभाविक रूप से यह इस धरती की ख़ास विशेषताओं, लोगों की जीवन पद्धति तथा उनके आर्थिक तथा सामाजिक दशा से प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होता रहा है। शक्ति व समृद्धि के प्रारंभिक दिनों में मेवाड़ सीमाएँ उत्तर-पूर्व के तरफ़ [[बयाना]], दक्षिण में रेवाकंठ तथा मणिकंठ, पश्चिम में पालनपुर तथा दक्षिण-पश्चिम में [[मालवा]] को छूती थी।
 
'''राजस्थान''' का [[मेवाड़]] राज्य पराक्रमी [[गहलौत वंश|गहलौतों]] की भूमि रहा है, जिनका अपना एक इतिहास है। इनके रीति-रिवाज तथा इतिहास का यह स्वर्णिम खजाना अपनी मातृभूमि, [[धर्म]] तथा [[संस्कृति]] व रक्षा के लिए किये गये गहलौतों के पराक्रम की याद दिलाता है। स्वाभाविक रूप से यह इस धरती की ख़ास विशेषताओं, लोगों की जीवन पद्धति तथा उनके आर्थिक तथा सामाजिक दशा से प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होता रहा है। शक्ति व समृद्धि के प्रारंभिक दिनों में मेवाड़ सीमाएँ उत्तर-पूर्व के तरफ़ [[बयाना]], दक्षिण में रेवाकंठ तथा मणिकंठ, पश्चिम में पालनपुर तथा दक्षिण-पश्चिम में [[मालवा]] को छूती थी।
 
==राजपूत शासन==
 
==राजपूत शासन==
 
मेवाड़ में काफ़ी लम्बे समय राजपूतों का शासन रहा था। बाद के समय में [[मुस्लिम]] आक्रमणकारियों ने भी यहाँ लूटपाट की। [[ख़िलजी वंश]] के [[अलाउद्दीन ख़िलजी]] ने 1303 ई. में मेवाड़ के गहलौत शासक [[रतन सिंह]] को पराजित करके इसे [[दिल्ली सल्तनत]] में मिला लिया था। गहलौत वंश की एक अन्य शाखा 'सिसोदिया वंश' के हम्मीरदेव ने [[मुहम्मद बिन तुग़लक़|मुहम्मद तुग़लक]] के समय में [[चित्तौड़गढ़|चित्तौड़]] को जीत कर पूरे मेवाड़ को स्वतंत्र करा लिया। 1378 ई. में हम्मीरदेव की मृत्यु के बाद उसका पुत्र क्षेत्रसिंह (1378-1405 ई.) मेवाड़ की गद्दी पर बैठा। क्षेत्रसिंह के बाद उसका पुत्र लक्खासिंह 1405 ई. में सिंहासन पर बैठा। लक्खासिंह की मृत्यु के बाद 1418 ई. में इसका पुत्र मोकल राजा हुआ। मोकल ने कविराज बानी विलास और योगेश्वर नामक विद्वानों को आश्रय अपने राज्य में आश्रय प्रदान किया था। उसके शासन काल में माना, फन्ना और विशाल नामक प्रसिद्ध शिल्पकार आश्रय पाये हुये थे। मोकल ने अनेक मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया तथा एकलिंग मंदिर के चारों तरफ़ परकोटे का भी निर्माण कराया। [[गुजरात]] शासक के विरुद्ध किये गये एक अभियान के समय उसकी हत्या कर दी गयी। 1431 ई. में मोकल की मृत्यु के बाद [[राणा कुम्भा]] मेवाड़ के राज सिंहासन पर बैठा। राणा कुम्भा तथा [[राणा सांगा]] के समय राज्य की शक्ति उत्कर्ष पर थी, लेकिन लगातार होते रहे बाहरी आक्रमणों के कारण राज्य विस्तार में क्षेत्र की सीमा बदलती रही। [[अम्बाजी (मराठा साम्राज्य)|अम्बाजी]] नाम के एक [[मराठा]] सरदार ने अकेले ही मेवाड़ से क़रीब दो करोड़ रुपये वसूले थे।
 
मेवाड़ में काफ़ी लम्बे समय राजपूतों का शासन रहा था। बाद के समय में [[मुस्लिम]] आक्रमणकारियों ने भी यहाँ लूटपाट की। [[ख़िलजी वंश]] के [[अलाउद्दीन ख़िलजी]] ने 1303 ई. में मेवाड़ के गहलौत शासक [[रतन सिंह]] को पराजित करके इसे [[दिल्ली सल्तनत]] में मिला लिया था। गहलौत वंश की एक अन्य शाखा 'सिसोदिया वंश' के हम्मीरदेव ने [[मुहम्मद बिन तुग़लक़|मुहम्मद तुग़लक]] के समय में [[चित्तौड़गढ़|चित्तौड़]] को जीत कर पूरे मेवाड़ को स्वतंत्र करा लिया। 1378 ई. में हम्मीरदेव की मृत्यु के बाद उसका पुत्र क्षेत्रसिंह (1378-1405 ई.) मेवाड़ की गद्दी पर बैठा। क्षेत्रसिंह के बाद उसका पुत्र लक्खासिंह 1405 ई. में सिंहासन पर बैठा। लक्खासिंह की मृत्यु के बाद 1418 ई. में इसका पुत्र मोकल राजा हुआ। मोकल ने कविराज बानी विलास और योगेश्वर नामक विद्वानों को आश्रय अपने राज्य में आश्रय प्रदान किया था। उसके शासन काल में माना, फन्ना और विशाल नामक प्रसिद्ध शिल्पकार आश्रय पाये हुये थे। मोकल ने अनेक मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया तथा एकलिंग मंदिर के चारों तरफ़ परकोटे का भी निर्माण कराया। [[गुजरात]] शासक के विरुद्ध किये गये एक अभियान के समय उसकी हत्या कर दी गयी। 1431 ई. में मोकल की मृत्यु के बाद [[राणा कुम्भा]] मेवाड़ के राज सिंहासन पर बैठा। राणा कुम्भा तथा [[राणा सांगा]] के समय राज्य की शक्ति उत्कर्ष पर थी, लेकिन लगातार होते रहे बाहरी आक्रमणों के कारण राज्य विस्तार में क्षेत्र की सीमा बदलती रही। [[अम्बाजी (मराठा साम्राज्य)|अम्बाजी]] नाम के एक [[मराठा]] सरदार ने अकेले ही मेवाड़ से क़रीब दो करोड़ रुपये वसूले थे।
[[चित्र:Palace-Of-Rana-Of-Mewar-Udaipur.jpg|thumb|300px|राणा का महल, [[मेवाड़]] ([[उदयपुर]])]]
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1473 ई. में उसकी हत्या उसके पुत्र उदयसिंह ने कर दी। राजपूत सरदारों के विरोध के कारण उदयसिंह अधिक दिनों तक सत्ता-सुख नहीं भोग सका। उसके बाद उसका छोटा भाई राजमल (शासनकाल 1473 से 1509 ई.) गद्दी पर बैठा। 36 वर्ष के सफल शासन काल के बाद 1509 ई. में उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र [[राणा संग्राम सिंह]] या 'राणा साँगा' (शासनकाल 1509 से 1528 ई.) मेवाड़ की गद्दी पर बैठा। उसने अपने शासन काल में [[दिल्ली]], [[मालवा]], [[गुजरात]] के विरुद्ध अभियान किया। 1527 ई. में खानवा के युद्ध में वह [[मुग़ल]] बादशाह [[बाबर]] द्वारा पराजित कर दिया गया। इसके बाद शक्तिशाली शासन के अभाव में [[जहाँगीर]] ने इसे [[मुग़ल साम्राज्य]] के अधीन कर लिया। मेवाड़ की स्थापना [[राठौरवंश|राठौर वंशी]] शासक चुन्द ने की थी। [[जोधपुर]] की स्थापना चुन्द के पुत्र जोधा ने की थी।
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1473 ई. में उसकी हत्या उसके पुत्र उदयसिंह ने कर दी। राजपूत सरदारों के विरोध के कारण उदयसिंह अधिक दिनों तक सत्ता-सुख नहीं भोग सका। उसके बाद उसका छोटा भाई राजमल (शासनकाल 1473 से 1509 ई.) गद्दी पर बैठा। 36 वर्ष के सफल शासन काल के बाद 1509 ई. में उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र [[राणा संग्राम सिंह]] या 'राणा साँगा' (शासनकाल 1509 से 1528 ई.) मेवाड़ की गद्दी पर बैठा। उसने अपने शासन काल में [[दिल्ली]], [[मालवा]], [[गुजरात]] के विरुद्ध अभियान किया। 1527 ई. में खानवा के युद्ध में वह [[मुग़ल]] बादशाह [[बाबर]] द्वारा पराजित कर दिया गया। इसके बाद शक्तिशाली शासन के अभाव में [[जहाँगीर]] ने इसे [[मुग़ल साम्राज्य]] के अधीन कर लिया। मेवाड़ की स्थापना राठौर वंशी शासक चुन्द ने की थी। [[जोधपुर]] की स्थापना चुन्द के पुत्र जोधा ने की थी।
 
====राणा कुम्भा====
 
====राणा कुम्भा====
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[[चित्र:Kumbhalgarh-Udaipur.jpg|thumb|300px|कुंभलगढ़ दुर्ग, [[उदयपुर]]]]
 
{{main|राणा कुम्भा}}
 
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राणा कुम्भा के मेवाड़ में शासन काल के दौरान उसका एक रिश्तेदार रानमल काफ़ी शक्तिशाली हो गया था। रानमल से ईर्ष्या करने वाले कुछ [[राजपूत]] सरदारों ने उसकी हत्या कर दी। राणा कुम्भा ने अपने प्रबल प्रतिद्वन्द्वी [[मालवा]] के शासक हुसंगशाह को परास्त कर 1448 ई. में चित्तौड़ में एक '[[कीर्ति स्तम्भ चित्तौड़गढ़|कीर्ति स्तम्भ]]' की स्थापना की। स्थापत्य कला के क्षेत्र में उसकी अन्य उपलब्धियों में मेवाड़ में निर्मित 84 क़िलों में से 32 क़िले हैं, जिसे राणा कुम्भा ने बनवाया था। मध्य युग के शासकों में राणा कुम्भा एक महान शासक था। वह स्वयं विद्वान तथा [[वेद]], [[स्मृतियाँ|स्मृति]], मीमांसा, [[उपनिषद]], [[व्याकरण]], राजनीति और [[साहित्य]] का ज्ञाता था।
 
राणा कुम्भा के मेवाड़ में शासन काल के दौरान उसका एक रिश्तेदार रानमल काफ़ी शक्तिशाली हो गया था। रानमल से ईर्ष्या करने वाले कुछ [[राजपूत]] सरदारों ने उसकी हत्या कर दी। राणा कुम्भा ने अपने प्रबल प्रतिद्वन्द्वी [[मालवा]] के शासक हुसंगशाह को परास्त कर 1448 ई. में चित्तौड़ में एक '[[कीर्ति स्तम्भ चित्तौड़गढ़|कीर्ति स्तम्भ]]' की स्थापना की। स्थापत्य कला के क्षेत्र में उसकी अन्य उपलब्धियों में मेवाड़ में निर्मित 84 क़िलों में से 32 क़िले हैं, जिसे राणा कुम्भा ने बनवाया था। मध्य युग के शासकों में राणा कुम्भा एक महान शासक था। वह स्वयं विद्वान तथा [[वेद]], [[स्मृतियाँ|स्मृति]], मीमांसा, [[उपनिषद]], [[व्याकरण]], राजनीति और [[साहित्य]] का ज्ञाता था।
==हल्दीघाटी का युद्ध==
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====हल्दीघाटी का युद्ध====
 
{{main|हल्दीघाटी का युद्ध}}
 
{{main|हल्दीघाटी का युद्ध}}
[[चित्र:Kumbhalgarh-Udaipur.jpg|thumb|300px|कुंभलगढ़ दुर्ग, [[उदयपुर]]]]
 
 
[[अकबर]] ने सन् 1624 में मेवाड़ पर आक्रमण कर चित्तौड़ को घेर लिया, पर राणा उदयसिंह ने उसकी अधीनता स्वीकार नहीं की थी और प्राचीन आधाटपुर के पास उदयपुर नामक अपनी राजधानी बसाकर वहाँ चला गया था। उनके बाद [[महाराणा प्रताप]] ने भी युद्ध जारी रखा और अधीनता नहीं मानी थी। उनका [[हल्दीघाटी]] का युद्ध इतिहास प्रसिद्ध है। इस युद्ध के बाद प्रताप की युद्ध-नीति छापामार लड़ाई की रही थी। अकबर ने कुम्भलमेर दुर्ग से भी प्रताप को खदेड़ दिया तथा मेवाड़ पर अनेक आक्रमण करवाये थे पर प्रताप ने अधीनता स्वीकार नहीं की थी। अंत में सन् 1642 के बाद अकबर का ध्यान दूसरे कामों में लगे रहने के कारण प्रताप ने अपने स्थानों पर फिर अधिकार कर लिया था। सन् 1654 में चावंड में उनकी मृत्यु हो गई थी।
 
[[अकबर]] ने सन् 1624 में मेवाड़ पर आक्रमण कर चित्तौड़ को घेर लिया, पर राणा उदयसिंह ने उसकी अधीनता स्वीकार नहीं की थी और प्राचीन आधाटपुर के पास उदयपुर नामक अपनी राजधानी बसाकर वहाँ चला गया था। उनके बाद [[महाराणा प्रताप]] ने भी युद्ध जारी रखा और अधीनता नहीं मानी थी। उनका [[हल्दीघाटी]] का युद्ध इतिहास प्रसिद्ध है। इस युद्ध के बाद प्रताप की युद्ध-नीति छापामार लड़ाई की रही थी। अकबर ने कुम्भलमेर दुर्ग से भी प्रताप को खदेड़ दिया तथा मेवाड़ पर अनेक आक्रमण करवाये थे पर प्रताप ने अधीनता स्वीकार नहीं की थी। अंत में सन् 1642 के बाद अकबर का ध्यान दूसरे कामों में लगे रहने के कारण प्रताप ने अपने स्थानों पर फिर अधिकार कर लिया था। सन् 1654 में चावंड में उनकी मृत्यु हो गई थी।
====मुग़ल आधिपत्य====
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==मुग़ल आधिपत्य==
महाराणा प्रताप के बाद उसके पुत्र [[राणा अमरसिंह]] ने भी उसी प्रकार वीरतापूर्वक मुग़लों का प्रतिरोध किया पर अंत में उसने [[शाहजहाँ]] ख़ुर्रम के द्वारा सम्राट [[जहाँगीर]] से सन्धि कर ली। उसने अपने राजकुमार को मुग़ल दरबार में भेज दिया पर स्वयं महाराणा ने, अन्य राजाओं की तरह दरबार में जाना स्वीकार नहीं किया था। महाराणा स 1617 में मृत्यु को प्राप्त हुआ था। [[महाराणा कर्णसिंह]] ने कभी शाहजादा ख़ुर्रम को [[पिछोला झील]] में बने [[जग मंदिर उदयपुर|जगमन्दिर]] नामक महल में रखा था। महाराणा का भाई भीम शाहजादे की सेवा में रहा था, जिसे उसने बादशाह बनने के बाद टोडा (टोडाभीम) की जागीर दी। ख़ुर्रम को लाखेरी के बाद गोपालदास गौड़ ने भी मदद प्रदान की थी। बदले में महाराणा जगतसिंह ने अपने सरदारों को बादशाही दरबार में भेजा और दक्षिण के अभियान में सैनिक सहायता भी दी थी। उसका लड़का राजसिंह प्रथम भी [[अजमेर]] में बादशाह के समक्ष हाज़िर हुआ था।[[चित्र:Maharana-Pratap-Singh-2.jpg|thumb|महाराणा प्रताप सिंह द्वितीय]]
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महाराणा प्रताप के बाद उसके पुत्र [[राणा अमरसिंह]] ने भी उसी प्रकार वीरतापूर्वक मुग़लों का प्रतिरोध किया पर अंत में उसने [[शाहजहाँ]] ख़ुर्रम के द्वारा सम्राट [[जहाँगीर]] से सन्धि कर ली। उसने अपने राजकुमार को मुग़ल दरबार में भेज दिया पर स्वयं महाराणा ने, अन्य राजाओं की तरह दरबार में जाना स्वीकार नहीं किया था। महाराणा स 1617 में मृत्यु को प्राप्त हुआ था। [[महाराणा कर्णसिंह]] ने कभी शाहजादा ख़ुर्रम को [[पिछोला झील]] में बने [[जग मंदिर उदयपुर|जगमन्दिर]] नामक महल में रखा था। महाराणा का भाई भीम शाहजादे की सेवा में रहा था, जिसे उसने बादशाह बनने के बाद टोडा (टोडाभीम) की जागीर दी। ख़ुर्रम को लाखेरी के बाद गोपालदास गौड़ ने भी मदद प्रदान की थी। बदले में महाराणा जगतसिंह ने अपने सरदारों को बादशाही दरबार में भेजा और दक्षिण के अभियान में सैनिक सहायता भी दी थी। उसका लड़का राजसिंह प्रथम भी [[अजमेर]] में बादशाह के समक्ष हाज़िर हुआ था।[[चित्र:Maharana-Pratap-Singh-2.jpg|thumb|महाराणा प्रताप सिंह द्वितीय]] महाराणा के बड़े सामंत भी बादशाही [[मनसबदार]] बन गए थे। [[चित्तौड़गढ़ क़िला|चित्तौड़ के क़िले]] की मरम्मत तथा कुछ बागियों को प्रश्रय देने का बहाना कर मुग़लों ने राजसिंह पर आक्रमण किया और चित्तौड़ के क़िले की दीवारों को तोड़ डाला। इस पर एक समझौता हुआ, जिसके अनुसार महाराणा का छः वर्ष का लड़का बादशाह के पास [[अजमेर]] भेजा गया। युद्ध के समय राजसिंह ने टीकादौड़ के बहाने न केवल मेवाड़ के पुर, मांडल, [[बदनौर]] आदि को लूटा अपितु मालपुरा, टोडा, [[चाकसू]], साम्भर, लालसोट, [[टोंक]], सावर, [[खेतड़ी]] आदि पर हमला किया और लूटपाट की। उसने वहाँ के अनेक भूमिपतियों से बड़ी-बड़ी रकमें भी कर के रूप में ली थीं।
 
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==मराठों का प्रभाव==
महाराणा के बड़े सामंत भी बादशाही [[मनसबदार]] बन गए थे। [[चित्तौड़गढ़ क़िला|चित्तौड़ के क़िले]] की मरम्मत तथा कुछ बागियों को प्रश्रय देने का बहाना कर मुग़लों ने राजसिंह पर आक्रमण किया और चित्तौड़ के क़िले की दीवारों को तोड़ डाला। इस पर एक समझौता हुआ, जिसके अनुसार महाराणा का छः वर्ष का लड़का बादशाह के पास [[अजमेर]] भेजा गया। युद्ध के समय राजसिंह ने टीकादौड़ के बहाने न केवल मेवाड़ के पुर, मांडल, [[बदनौर]] आदि को लूटा अपितु मालपुरा, टोडा, [[चाकसू]], साम्भर, लालसोट, [[टोंक]], सावर, [[खेतड़ी]] आदि पर हमला किया और लूटपाट की। उसने वहाँ के अनेक भूमिपतियों से बड़ी-बड़ी रकमें भी कर के रूप में ली थीं। महाराणा ने मुग़ल शाहज़ादा [[दारा शिकोह]]  का पक्ष न लेकर [[औरंगजेब]] का पक्ष लिया और उत्तराधिकार के युद्ध में उसकी विजय पर बधाई दी थी। किशनगढ़ की राजकुमारी चारूमती, जिसका [[विवाह]] औरंगजेब के साथ होना था, को भगाकर ले जाने से आपसी रंजिश भी हुई। ऐसा ही जसवंतसिंह के नवजात पुत्र अजीत सिंह को शरण देने के कारण भी हुआ। राजसिंह ने अपने लड़के [[जयसिंह]] को भी मुग़ल दरबार में भेजा। औरंगजेब द्वारा [[हिन्दू|हिन्दुओं]] पर लगाये गए [[जज़िया]] का विरोध भी उसने किया। मेवाड़ में व्यापक रूप से लूटपाट और तबाही मचाने वाली मुग़ल फ़ौजों से उसे संघर्ष करना पड़ा था। 1727 वि. में राजसिंह की मृत्यु हो गई। वह [[धर्म]], [[कला]] और [[साहित्य]] का संरक्षक था। प्रसिद्ध राजसमंद का निर्माण कर वहाँ राजप्रशस्ति नामक काव्य को शिलाओं पर अंकित करवाने का श्रेय उसी को है। उसके पुत्र जयसिंह ने बहादुरशाह के समय [[जोधपुर]] तथा [[जयपुर]] के नरेशों को मेवाड़ी राजकुमारियाँ देकर राज्य प्राप्ति में उनकी सहायता की थी। महाराणा संग्राम सिंह द्वितीय का काल उपद्रवों से ग्रस्त रहा था। उसके पुत्र जगतसिंह द्वितीय के समय हुरड़ा सम्मेलन हुआ, पर उसके पुत्र जगतसिंह ऐसे कामकाज के लिए सक्षम नहीं था। उसने [[मराठा|मराठों]] को घूस देकर सहायता प्राप्त की, जिससे मेवाड़ पर मराठों का पंजा कसता गया और महाराणाओं को बड़ी रकमें देकर उन्हें प्रसन्न करना पड़ा था।
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महाराणा ने मुग़ल शाहज़ादा [[दारा शिकोह]]  का पक्ष न लेकर [[औरंगजेब]] का पक्ष लिया और उत्तराधिकार के युद्ध में उसकी विजय पर बधाई दी थी। किशनगढ़ की राजकुमारी चारूमती, जिसका [[विवाह]] औरंगजेब के साथ होना था, को भगाकर ले जाने से आपसी रंजिश भी हुई। ऐसा ही जसवंतसिंह के नवजात पुत्र अजीत सिंह को शरण देने के कारण भी हुआ। राजसिंह ने अपने लड़के [[जयसिंह]] को भी मुग़ल दरबार में भेजा। औरंगजेब द्वारा [[हिन्दू|हिन्दुओं]] पर लगाये गए [[जज़िया]] का विरोध भी उसने किया। मेवाड़ में व्यापक रूप से लूटपाट और तबाही मचाने वाली मुग़ल फ़ौजों से उसे संघर्ष करना पड़ा था। 1727 वि. में राजसिंह की मृत्यु हो गई। वह [[धर्म]], [[कला]] और [[साहित्य]] का संरक्षक था। प्रसिद्ध राजसमंद का निर्माण कर वहाँ राजप्रशस्ति नामक काव्य को शिलाओं पर अंकित करवाने का श्रेय उसी को है। उसके पुत्र जयसिंह ने बहादुरशाह के समय [[जोधपुर]] तथा [[जयपुर]] के नरेशों को मेवाड़ी राजकुमारियाँ देकर राज्य प्राप्ति में उनकी सहायता की थी। महाराणा संग्राम सिंह द्वितीय का काल उपद्रवों से ग्रस्त रहा था। उसके पुत्र जगतसिंह द्वितीय के समय हुरड़ा सम्मेलन हुआ, पर उसके पुत्र जगतसिंह ऐसे कामकाज के लिए सक्षम नहीं था। उसने [[मराठा|मराठों]] को घूस देकर सहायता प्राप्त की, जिससे मेवाड़ पर मराठों का पंजा कसता गया और महाराणाओं को बड़ी रकमें देकर उन्हें प्रसन्न करना पड़ा था।
  
 
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Revision as of 10:55, 14 January 2013

[[chitr:Palace-Of-Rana-Of-Mewar-Udaipur.jpg|thumb|300px|rana ka mahal, meva d (udayapur)]] rajasthan ka meva d rajy parakrami gahalautoan ki bhoomi raha hai, jinaka apana ek itihas hai. inake riti-rivaj tatha itihas ka yah svarnim khajana apani matribhoomi, dharm tatha sanskriti v raksha ke lie kiye gaye gahalautoan ke parakram ki yad dilata hai. svabhavik roop se yah is dharati ki khas visheshataoan, logoan ki jivan paddhati tatha unake arthik tatha samajik dasha se pratyaksh v apratyaksh roop se prabhavit hota raha hai. shakti v samriddhi ke praranbhik dinoan mean meva d simaean uttar-poorv ke taraf bayana, dakshin mean revakanth tatha manikanth, pashchim mean palanapur tatha dakshin-pashchim mean malava ko chhooti thi.

rajapoot shasan

meva d mean kafi lambe samay rajapootoan ka shasan raha tha. bad ke samay mean muslim akramanakariyoan ne bhi yahaan lootapat ki. khilaji vansh ke alauddin khilaji ne 1303 ee. mean meva d ke gahalaut shasak ratan sianh ko parajit karake ise dilli saltanat mean mila liya tha. gahalaut vansh ki ek any shakha 'sisodiya vansh' ke hammiradev ne muhammad tugalak ke samay mean chittau d ko jit kar poore meva d ko svatantr kara liya. 1378 ee. mean hammiradev ki mrityu ke bad usaka putr kshetrasianh (1378-1405 ee.) meva d ki gaddi par baitha. kshetrasianh ke bad usaka putr lakkhasianh 1405 ee. mean sianhasan par baitha. lakkhasianh ki mrityu ke bad 1418 ee. mean isaka putr mokal raja hua. mokal ne kaviraj bani vilas aur yogeshvar namak vidvanoan ko ashray apane rajy mean ashray pradan kiya tha. usake shasan kal mean mana, phanna aur vishal namak prasiddh shilpakar ashray paye huye the. mokal ne anek mandiroan ka jirnoddhar karaya tatha ekaliang mandir ke charoan taraf parakote ka bhi nirman karaya. gujarat shasak ke viruddh kiye gaye ek abhiyan ke samay usaki hatya kar di gayi. 1431 ee. mean mokal ki mrityu ke bad rana kumbha meva d ke raj sianhasan par baitha. rana kumbha tatha rana saanga ke samay rajy ki shakti utkarsh par thi, lekin lagatar hote rahe bahari akramanoan ke karan rajy vistar mean kshetr ki sima badalati rahi. ambaji nam ke ek maratha saradar ne akele hi meva d se qarib do karo d rupaye vasoole the.

1473 ee. mean usaki hatya usake putr udayasianh ne kar di. rajapoot saradaroan ke virodh ke karan udayasianh adhik dinoan tak satta-sukh nahian bhog saka. usake bad usaka chhota bhaee rajamal (shasanakal 1473 se 1509 ee.) gaddi par baitha. 36 varsh ke saphal shasan kal ke bad 1509 ee. mean usaki mrityu ke bad usaka putr rana sangram sianh ya 'rana saanga' (shasanakal 1509 se 1528 ee.) meva d ki gaddi par baitha. usane apane shasan kal mean dilli, malava, gujarat ke viruddh abhiyan kiya. 1527 ee. mean khanava ke yuddh mean vah mugal badashah babar dvara parajit kar diya gaya. isake bad shaktishali shasan ke abhav mean jahaangir ne ise mugal samrajy ke adhin kar liya. meva d ki sthapana rathaur vanshi shasak chund ne ki thi. jodhapur ki sthapana chund ke putr jodha ne ki thi.

rana kumbha

[[chitr:Kumbhalgarh-Udaipur.jpg|thumb|300px|kuanbhalagadh durg, udayapur]]

  1. REDIRECTsaancha:mukhy

rana kumbha ke meva d mean shasan kal ke dauran usaka ek rishtedar ranamal kafi shaktishali ho gaya tha. ranamal se eershya karane vale kuchh rajapoot saradaroan ne usaki hatya kar di. rana kumbha ne apane prabal pratidvandvi malava ke shasak husangashah ko parast kar 1448 ee. mean chittau d mean ek 'kirti stambh' ki sthapana ki. sthapaty kala ke kshetr mean usaki any upalabdhiyoan mean meva d mean nirmit 84 qiloan mean se 32 qile haian, jise rana kumbha ne banavaya tha. madhy yug ke shasakoan mean rana kumbha ek mahan shasak tha. vah svayan vidvan tatha ved, smriti, mimaansa, upanishad, vyakaran, rajaniti aur sahity ka jnata tha.

haldighati ka yuddh

  1. REDIRECTsaancha:mukhy

akabar ne sanh 1624 mean meva d par akraman kar chittau d ko gher liya, par rana udayasianh ne usaki adhinata svikar nahian ki thi aur prachin adhatapur ke pas udayapur namak apani rajadhani basakar vahaan chala gaya tha. unake bad maharana pratap ne bhi yuddh jari rakha aur adhinata nahian mani thi. unaka haldighati ka yuddh itihas prasiddh hai. is yuddh ke bad pratap ki yuddh-niti chhapamar l daee ki rahi thi. akabar ne kumbhalamer durg se bhi pratap ko khade d diya tatha meva d par anek akraman karavaye the par pratap ne adhinata svikar nahian ki thi. aant mean sanh 1642 ke bad akabar ka dhyan doosare kamoan mean lage rahane ke karan pratap ne apane sthanoan par phir adhikar kar liya tha. sanh 1654 mean chavand mean unaki mrityu ho gee thi.

mugal adhipaty

maharana pratap ke bad usake putr rana amarasianh ne bhi usi prakar viratapoorvak mugaloan ka pratirodh kiya par aant mean usane shahajahaan khurram ke dvara samrat jahaangir se sandhi kar li. usane apane rajakumar ko mugal darabar mean bhej diya par svayan maharana ne, any rajaoan ki tarah darabar mean jana svikar nahian kiya tha. maharana s 1617 mean mrityu ko prapt hua tha. maharana karnasianh ne kabhi shahajada khurram ko pichhola jhil mean bane jagamandir namak mahal mean rakha tha. maharana ka bhaee bhim shahajade ki seva mean raha tha, jise usane badashah banane ke bad toda (todabhim) ki jagir di. khurram ko lakheri ke bad gopaladas gau d ne bhi madad pradan ki thi. badale mean maharana jagatasianh ne apane saradaroan ko badashahi darabar mean bheja aur dakshin ke abhiyan mean sainik sahayata bhi di thi. usaka l daka rajasianh pratham bhi ajamer mean badashah ke samaksh hazir hua tha.thumb|maharana pratap sianh dvitiy maharana ke b de samant bhi badashahi manasabadar ban ge the. chittau d ke qile ki marammat tatha kuchh bagiyoan ko prashray dene ka bahana kar mugaloan ne rajasianh par akraman kiya aur chittau d ke qile ki divaroan ko to d dala. is par ek samajhauta hua, jisake anusar maharana ka chhah varsh ka l daka badashah ke pas ajamer bheja gaya. yuddh ke samay rajasianh ne tikadau d ke bahane n keval meva d ke pur, maandal, badanaur adi ko loota apitu malapura, toda, chakasoo, sambhar, lalasot, toank, savar, khet di adi par hamala kiya aur lootapat ki. usane vahaan ke anek bhoomipatiyoan se b di-b di rakamean bhi kar ke roop mean li thian.

marathoan ka prabhav

maharana ne mugal shahazada dara shikoh ka paksh n lekar aurangajeb ka paksh liya aur uttaradhikar ke yuddh mean usaki vijay par badhaee di thi. kishanagadh ki rajakumari charoomati, jisaka vivah aurangajeb ke sath hona tha, ko bhagakar le jane se apasi ranjish bhi huee. aisa hi jasavantasianh ke navajat putr ajit sianh ko sharan dene ke karan bhi hua. rajasianh ne apane l dake jayasianh ko bhi mugal darabar mean bheja. aurangajeb dvara hinduoan par lagaye ge jaziya ka virodh bhi usane kiya. meva d mean vyapak roop se lootapat aur tabahi machane vali mugal faujoan se use sangharsh karana p da tha. 1727 vi. mean rajasianh ki mrityu ho gee. vah dharm, kala aur sahity ka sanrakshak tha. prasiddh rajasamand ka nirman kar vahaan rajaprashasti namak kavy ko shilaoan par aankit karavane ka shrey usi ko hai. usake putr jayasianh ne bahadurashah ke samay jodhapur tatha jayapur ke nareshoan ko meva di rajakumariyaan dekar rajy prapti mean unaki sahayata ki thi. maharana sangram sianh dvitiy ka kal upadravoan se grast raha tha. usake putr jagatasianh dvitiy ke samay hur da sammelan hua, par usake putr jagatasianh aise kamakaj ke lie saksham nahian tha. usane marathoan ko ghoos dekar sahayata prapt ki, jisase meva d par marathoan ka panja kasata gaya aur maharanaoan ko b di rakamean dekar unhean prasann karana p da tha.


panne ki pragati avastha
adhar
prarambhik
madhyamik
poornata
shodh

tika tippani aur sandarbh

sanbandhit lekh