घनश्यामभाई ओझा

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घनश्यामभाई ओझा
पूरा नाम घनश्यामभाई ओझा
जन्म 25 अक्टूबर, 1911
मृत्यु 12 जुलाई, 2002
मृत्यु स्थान अहमदाबाद, गुजरात
अभिभावक पिता- छोटालाल ओझा
पति/पत्नी रामलक्ष्मी
संतान हंसा, रोहित, शरद, प्रग्ना
नागरिकता भारतीय
प्रसिद्धि राजनीतिज्ञ
पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, जनता पार्टी
पद चौथे मुख्यमंत्री, गुजरात
कार्य काल 17 मार्च, 1972 से 17 जुलाई, 1973 तक
अन्य जानकारी आजादी के बाद घनश्याम ओझा 1957 से 1967 तक लगातार सांसद चुने गए। 1971 का लोकसभा चुनाव उनके सियासी करियर में लंबी छलांग साबित हुआ।

घनश्यामभाई ओझा (अंग्रेज़ी: Ghanshyambhai Oza, जन्म- 25 अक्टूबर, 1911; मृत्यु- 12 जुलाई, 2002, अहमदाबाद) भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के राजनीतिज्ञ और गुजरात के भूतपूर्व चौथे मुख्यमंत्री थे। वह 17 मार्च, 1972 से 17 जुलाई, 1973 तक गुजरात के मुख्यमंत्री रहे।

परिचय

25 अक्टूबर, 1911 को पैदा हुए घनश्याम ओझा के पिता छोटालाल ओझा भावनगर के बड़े वकील हुआ करते थे। घनश्याम भी वकालत की पढ़ाई के बाद उनके साथ ही जुड़ गए। साल 1941 में सरदार पटेल भावनगर आए हुए थे। सरदार पटेल और छोटालाल के करीबी संबंध हुआ करते थे। ऐसे में वह ओझा परिवार से मिलने उनके घर गए। यहां सरदार पटेल ने घनश्याम ओझा से कहा कि- "उनके जैसे पढ़े-लिखे युवा को देश की स्वतंत्रता के आंदोलन में ज़रूर हिस्सा लेना चाहिए।" इसके बाद वह घनश्याम के पिता से मुखातिब हुए और बोले- "छोटाभाई ये लड़का आप मुझे दे दीजिए।" छोटालाल ओझा ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। इस तरह बतौर राजनीतिक कार्यकर्ता घनशयाम ओझा का सफ़र शुरू हुआ।[1]

राज्यमंत्री का पद

आजादी के बाद घनश्याम ओझा 1957 से 1967 तक लगातार सांसद चुने गए। 1971 का लोकसभा चुनाव उनके सियासी करियर में लंबी छलांग साबित हुआ। 1971 के चुनाव में घनश्याम ओझा के मुकाबिल थे मशहूर समाजवादी नेता मीनू मसानी। मसानी स्वतंत्र पार्टी के टिकट पर राजकोट से चुनाव लड़ रहे थे। घनश्याम ओझा ने मसानी को इस मुकाबले में बुरी तरह से धूल चटा दी। जहां ओझा के खाते में एक लाख 42 हज़ार 481 वोट थे, वहीं मसानी 75002 तक के आंकड़े पर ही पहुंच पाए। इस जीत ने ओझा को कांग्रेस आलाकमान और ख़ास तौर पर इंदिरा गांधी की नज़रों में चढ़ा दिया। ओझा को केन्द्रीय मंत्रिमंडल में जगह मिली और उन्हें इंडस्ट्री का राज्यमंत्री बनाया गया।

सांसद

घनश्याम ओझा के बारे में कहा जाता है कि वह बहुत सरल स्वभाव के थे। शायद यही वजह थी कि इंदिरा गांधी ने चिमनभाई पटेल की जगह घनश्याम ओझा को मुख्यमंत्री पद के लिए चुना। वह आजादी के आंदोलन से आए हुए नेता थे। गांधीजी के कट्टर अनुयायी। 1911 में सौराष्ट्र के भावनगर में पैदा हुए घनश्याम भाई ओझा के पिता वकील हुआ करते थे। उन्होंने बॉम्बे से पहले बीए और बाद में वकालत की पढ़ाई की। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उनका झुकाव कांग्रेस की तरफ हुआ था। इस दौरान उन्हें जेल भी जाना पड़ा। आजादी के बाद घनश्याम ओझा 1948 से 1956 तक सौराष्ट्र लेजिस्लेटिव असेंबली के सदस्य चुने गए। 1957 में वह बॉम्बे प्रेसिडेंसी की जालावाड़ सीट से कांग्रेस की टिकट पर संसद पहुंचे। 1962 के चुनाव में वह सुरेंद्रनगर लोकसभा सीट से सांसद बने।

ढहता संगठन

उठा-पटक की राजनीति घनश्याम ओझा के मिजाज़ में नहीं थी। इधर चिमनभाई पटेल खुद को नजरंदाज किए जाने से खफा थे। उन्होंने पहले ही दिन से ओझा के खिलाफ मोर्चेबंदी शुरू कर दी थी। घनश्याम ओझा के बारे में कहा जाता है कि जब वह मुख्यमंत्री के तौर पर गुजरात पहुंचे तो विधायक मंडल में महज छह विधायकों को पहचानते थे। संगठन पर उनकी पकड़ बेहद कमज़ोर थी। इसके चलते कांग्रेस संगठन में अंदरूनी राजनीति ने जोर पकड़ना शुरू किया। रत्तू भाई अडानी उस समय गुजरात प्रदेश कांग्रेस कमिटी के अध्यक्ष हुआ करते थे। 1972 के अंत में उनका कार्यकाल खत्म होते ही नए अध्यक्ष के लिए खेमेबाजी तेज़ हो गई। कांग्रेस संगठन नए अध्यक्ष के चुनाव में दो खेमों में बंट गया।

पहला खेमा था चिमनभाई पटेल और कांतिलाल घिया का। दूसरा गुट बना रत्तूभाई अडानी और जिनाभाई दरजी का। 21 दिसम्बर 1972 के दिन प्रदेश कांग्रेस कमिटी के अध्यक्ष पद का चुनाव हुआ। इस चुनाव में रत्तुभाई के खेमे की तरफ से जिनाभाई दरजी उम्मीदवार थे। वहीं चिमनभाई पटेल की तरफ कृष्णकांत वखारिया इस दौड़ में शामिल थे। यह चुनाव जिनाभाई दरजी के पक्ष में गया। चुनाव जीतने के कुछ समय बाद ही रत्तूभाई अडानी और जिनाभाई दरजी में कांग्रेस संगठन पर पकड़ कायम रखने के लिए एक और संघर्ष शुरू हो गया। इस दौरान घनश्याम ओझा लगातार अपना पक्ष बदलते रहे। ऐसे में वो संगठन के भीतर अपना स्थाई आधार खड़ा कर पाने में नाकामयाब हुए।[1]

सियासी तख्तापलट

जिनाभाई दरजी एक तरफ रत्तुभाई अडानी के खिलाफ मोर्चा खोले बैठे थे और दूसरी तरफ चिमनभाई पटेल के खिलाफ सीढ़ी जंग में थे। शक्ति के संतुलन को साधने के लिए लिए उन्होंने घनश्याम ओझा के करीब जाना शुरू किया। 1972 के दिसंबर महीने में जिनाभाई दरजी ओझा को यह समझाने में कामयाब हो गए कि जब तक चिमनभाई पटेल कांग्रेस में हैं, उनकी कुर्सी पर लगतार खतरा बना रहेगा। जिनाभाई के कहने पर बिना सोचे-समझे घनश्याम ओझा ने चिमनभाई पटेल से उद्योग मंत्रालय छीनकर उन्हें मंत्रिमंडल से बाहर का रास्ता दिखा दिया। यह बाद में उनकी सबसे बड़ी सियासी भूल साबित हुई। अहमदाबाद-वड़ोदरा हाईवे पर गांधीनगर के पास एक जगह है पंचवटी फार्महाउस। स्थानीय पत्रकारों ने इसे ‘प्रपंचवटी’ नाम दे रखा था।

27 जून 1973 का दिन था। सुबह से लोग यहां जुटना शुरू हो गए थे। इसमें सत्ताधारी पार्टी के विधायकों के अलावा गुजरात के कई बड़े उद्योगपति भी थे। शाम तक बैठकों का दौर चलने के बाद घनश्याम ओझा के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लिखा गया। इसके नीचे चिमनभाई पटेल के अलावा दूसरे 69 विधायकों के हस्ताक्षर थे। इस तरह 168 सीटों वाली विधानसभा में घनश्याम ओझा की सरकार अपने ही विधायकों की बगावत की वजह से अल्पमत में आ गई। उस समय एक अफवाह यह भी थी कि चिमनभाई पटेल ने पैसे के दम पर विधायकों की खरीद-फरोख्त की है। प्रचंड बहुमत वाले जनादेश के बाद मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे घनश्याम ओझा महज 16 महीने बाद अल्पमत में थे। ओझा को जब इस बलवे की खबर मिली तो उन्हें समझ में आ गया कि अब उनका जाना लगभग तय हो चुका है। ऐसे में उन्होंने खुद को बचाने के लिए आखिरी चाल चली। राज्यपाल को अपना इस्तीफ़ा सौंपने की बजाय उन्होंने अपने इस्तीफे को जेब में रखा और दिल्ली का रुख किया। उन्हें उम्मीद थी कि इंदिरा गांधी उन्हें इस संकट से उबार लेंगी, लेकिन हुआ इसका उलटा। इंदिरा गुजरात के सियासी हालात से वाकिफ थीं। उन्होंने बिना कोई सहानुभूति दिखाए घनश्याम ओझा का इस्तीफ़ा स्वीकार कर लिया।[1]

जनता पार्टी की सदस्यता

25 जून 1975 के दिन आपातकाल लगा दिया गया। पूरा विपक्ष जेल में था। बाद के दिनों में लालकृष्ण आडवाणी ने आपातकाल के दिनों में प्रेस की भूमिका को याद करते हुए कहा कि- "इमरजेंसी के दौरान भारतीय प्रेस को घुटनों के बल बैठने को कहा गया था और वो जमीन पर लेट गई।" कांग्रेस के भीतर डर का माहौल विपक्ष से कहीं ज्यादा था। ऐसे दौर में घनश्याम ओझा ने इंदिरा गांधी के खिलाफ मोर्चा खोला। वह खुलकर आपातकाल और इंदिरा का विरोध कर रहे थे। उन्होंने इंदिरा के विरोध में कांग्रेस की सदस्यता से इस्तीफ़ा दे दिया। इसके जवाब में उन्हें उनके घर में नजरबंद कर दिया गया। आपातकाल हटने के बाद घनश्याम ओझा ने मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली जनता पार्टी की सदस्यता ले ली। 1978 में उन्हें गुजरात से राज्यसभा में भेज दिया गया।

मृत्यु

1984 में राज्यसभा का कार्यकाल पूरा होने के बाद घनश्याम ओझा ने राजनीति से खुद को अलग कर लिया। 12 जुलाई, 2002 के दिन वह इस दुनिया से रुखसत हुए।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

बाहरी कडियाँ

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