साड़ी: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
m (Text replace - "जिन्होने" to "जिन्होंने")
m (Text replacement - " महान " to " महान् ")
 
(2 intermediate revisions by one other user not shown)
Line 16: Line 16:
====बनारसी साड़ी====
====बनारसी साड़ी====
{{main|बनारसी साड़ी}}
{{main|बनारसी साड़ी}}
बनारसी साड़ी एक विशेष प्रकार की साड़ी है, जिसे [[विवाह]] आदि शुभ अवसरों पर [[हिन्दू]] स्त्रियाँ पहनती हैं। उत्तर प्रदेश के चंदौली, [[बनारस]], [[जौनपुर]], [[आजमगढ़]], [[मिर्जापुर]] और संत रविदासनगर ज़िले में बनारसी साड़ियाँ बनाई जाती हैं। इसका कच्चा माल बनारस से आता है। पहले बनारस की अर्थव्यवस्था का मुख्य स्तंभ बनारसी साड़ी का काम था, पर अब यह चिंताजनक स्थिति में है। रेशम की साड़ियों पर बनारस में बुनाई के संग [[ज़री]] के डिज़ाइन मिलाकर बुनने से तैयार होने वाली सुंदर रेशमी साड़ी को बनारसी रेशमी साड़ी कहा जाता है। ये पारंपरिक कार्य सदियों से होता रहा है। कभी इसमें शुद्ध सोने की ज़री का भी उपयोग किया जाता था। किंतु बढ़ती हुई क़ीमत के कारण नकली चमकदार ज़री का काम भी काफ़ी हो रहा है। इनमें अनेक प्रकार के नमूने बनाये जाते हैं। इन्हें 'मोटिफ' कहते हैं। बहुत तरह के मोटिफों का प्रयोग हो रहा है, परन्तु कुछ प्रमुख परम्परागत मोटिफ आज भी अपनी बनारसी पहचान बनाए हुए हैं।
बनारसी साड़ी एक विशेष प्रकार की साड़ी है, जिसे [[विवाह]] आदि शुभ अवसरों पर [[हिन्दू]] स्त्रियाँ पहनती हैं। उत्तर प्रदेश के [[चंदौली]], [[बनारस]], [[जौनपुर]], [[आजमगढ़]], [[मिर्जापुर]] और संत रविदासनगर ज़िले में बनारसी साड़ियाँ बनाई जाती हैं। इसका [[कच्चा माल]] [[बनारस]] से आता है। पहले बनारस की अर्थव्यवस्था का मुख्य स्तंभ बनारसी साड़ी का काम था, पर अब यह चिंताजनक स्थिति में है। रेशम की साड़ियों पर बनारस में बुनाई के संग [[ज़री]] के डिज़ाइन मिलाकर बुनने से तैयार होने वाली सुंदर रेशमी साड़ी को बनारसी रेशमी साड़ी कहा जाता है। ये पारंपरिक कार्य सदियों से होता रहा है। कभी इसमें शुद्ध सोने की ज़री का भी उपयोग किया जाता था। किंतु बढ़ती हुई क़ीमत के कारण नकली चमकदार ज़री का काम भी काफ़ी हो रहा है। इनमें अनेक प्रकार के नमूने बनाये जाते हैं। इन्हें 'मोटिफ' कहते हैं। बहुत तरह के मोटिफों का प्रयोग हो रहा है, परन्तु कुछ प्रमुख परम्परागत मोटिफ आज भी अपनी बनारसी पहचान बनाए हुए हैं।
[[चित्र:Maharashtrian saree-1.jpg|thumb|150px|[[महाराष्ट्रियन साड़ी]]]]
[[चित्र:Maharashtrian saree-1.jpg|thumb|150px|[[महाराष्ट्रियन साड़ी]]]]
====महाराष्ट्रियन साड़ी====
====महाराष्ट्रियन साड़ी====
Line 28: Line 28:
====महेश्वरी साड़ी====
====महेश्वरी साड़ी====
{{main|महेश्वरी साड़ी}}
{{main|महेश्वरी साड़ी}}
महेश्वरी साड़ी [[मध्य प्रदेश]] के [[महेश्वर]] में स्त्रियों द्वारा प्रमुख रूप से पहनी जाती है। पहले केवल सूती साड़ियाँ ही बनाई जाती थीं, लेकिन धीरे-धीरे इसमें सुधार आता गया और उच्च गुणवत्ता वाली रेशमी साड़ियाँ आदि भी बनाई जाने लगीं। महेश्वरी साड़ियों का [[इतिहास]] लगभग 250 वर्ष पुराना है। [[होल्कर वंश]] की महान शासक देवी [[अहिल्याबाई होल्कर]] ने महेश्वर में सन 1767 में कुटीर उद्योग स्थापित करवाया था। गुजरात एवं भारत के अन्य शहरों से बुनकरों के परिवारों को उन्होंने यहाँ लाकर बसाया तथा उन्हें घर, व्यापार आदि की सुविधाएँ प्रदान कीं।
महेश्वरी साड़ी [[मध्य प्रदेश]] के [[महेश्वर]] में स्त्रियों द्वारा प्रमुख रूप से पहनी जाती है। पहले केवल सूती साड़ियाँ ही बनाई जाती थीं, लेकिन धीरे-धीरे इसमें सुधार आता गया और उच्च गुणवत्ता वाली रेशमी साड़ियाँ आदि भी बनाई जाने लगीं। महेश्वरी साड़ियों का [[इतिहास]] लगभग 250 वर्ष पुराना है। [[होल्कर वंश]] की महान् शासक देवी [[अहिल्याबाई होल्कर]] ने महेश्वर में सन 1767 में कुटीर उद्योग स्थापित करवाया था। गुजरात एवं भारत के अन्य शहरों से बुनकरों के परिवारों को उन्होंने यहाँ लाकर बसाया तथा उन्हें घर, व्यापार आदि की सुविधाएँ प्रदान कीं।
[[चित्र:Chanderi-Saree.jpg|thumb|180px|[[चन्देरी साड़ी|चन्देरी साड़ियाँ]]]]
[[चित्र:Chanderi-Saree.jpg|thumb|180px|[[चन्देरी साड़ी|चन्देरी साड़ियाँ]]]]
====चन्देरी साड़ी====
====चन्देरी साड़ी====

Latest revision as of 11:23, 1 August 2017

thumb|250px|साड़ी में महिलायें साड़ी भारतीय उपमहाद्वीप में स्त्रियों का प्रमुख बाह्य पहनावा है। भारत में साड़ी प्राचीन समय से ही स्त्रियों द्वारा पसन्द की जाती रही है। यह हमेशा अपनी विरासत को साथ लेकर चलती है। साड़ी किसी भी नारी की सादगी और शालीनता की परीचायक होती है। साड़ियों में जो कसीदाकारी की जाती है, उसका अपना एक इतिहास है। यह इतिहास 3,500 साल पुराना है। गाँव के गाँव पीढ़ियों से इस काम में जुटे हैं। एक-एक साड़ी को बनाने में बहुत वक्त लगता है। काम करने की बुनकरों की अपनी एक शैली है और उसी शैली के तहत डिज़ाइन बनाई जाती हैं। जिन देशों में यह शैली पहुँची, वहाँ की कला में साम्यता दिखाई देने लगती है। भले ही इन साड़ियों को पहनने वाली स्त्रियाँ धर्म और आस्था पर अपनी अलग राय रखती हों, किंतु साड़ियों में उकेरी गई कला आस्था का प्रमाण अवश्य देती है।

इतिहास

यजुर्वेद में सबसे पहले साड़ी शब्द का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद की संहिता[1] के अनुसार यज्ञ या हवन के समय पत्नी को साड़ी पहनने का विधान है और विधान के क्रम से ही साड़ी जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बनती चली गई। यही वजह रही कि इसमें निरंतर कई प्रयोग हुए। पौराणिक ग्रंथ महाभारत में द्रौपदी के चीर हरण का प्रसंग है। जब क्रोध में आकर दुर्योधन ने द्यूत क्रीड़ा में द्रौपदी को जीतकर उसकी अस्मिता को सार्वजनिक रूप से चुनौती दी थी, तब भगवान श्रीकृष्ण ने साड़ी की लंबाई बढ़ाकर उसकी रक्षा की। इस कथा के माध्यम से यह संकेत जाता है कि साड़ी केवल पहनावा नहीं है, बल्कि यह आत्म कवच भी है।

दूसरी शताब्दी ई. पू. की मूर्तियों में पुरुषों और स्त्रियों के शरीर के ऊपरी भाग को अनावृत दर्शाया गया है। ये कमर के इर्द-गिर्द साड़ी इस प्रकार लपेटे हुए हैं कि पैरों के बीच सामने वाले भाग में चुन्नटें बन जाती हैं। इसमें 12वीं सदी तक कोई ख़ास परिवर्तन नहीं हुआ। भारत के उत्तरी और मध्य भाग को जीतने के बाद मुस्लिमों ने ज़ोर दिया कि शरीर को पूरी तरह से ढका जाए।

पहनने का तरीका

हिन्दू महिलाएँ साड़ी को एक छोटे से अंग वस्त्र, जिसे सामान्यत: ब्लाउज़ तथा लहंगे, जिसे बोलचाल की भाषा में पेटीकोट कहते हैं, के साथ पहनतीं हैं, जिसमें साड़ी को खोंसकर कमर से पैर तक एक लंबा घेरा बना लिया जाता है। महाराष्ट्र में अक्सर नौ गज़ की साड़ी लांघदार बांधी जाती है। साड़ी में प्रयोग होने वाले रंगों के माध्यम से स्त्री अपने मन के भावों को व्यक्त करती है।

धर्म से जुड़ाव

चूंकि साड़ी का धर्म के साथ विशेष जुड़ाव रहा है, इसलिए बहुत सारे धार्मिक संकेत चिह्न और धार्मिक परंपरागत कला का समावेश इसमें होता था। लोक कलाकार, जिन्होंने समाज की रूढ़ियों की वजह से धर्म परिवर्तन किया था, उन्होंने कला का विस्तार करते हुए गंगा-यमुना संस्कृति का प्रयोग साड़ियों को डिज़ाइन करते समय किया और आज पीढ़ी दर पीढ़ी यह कला अपनी विरासत नई पीढ़ी को सौपती हुई आगे बढ़ रही है। इसीलिए साड़ियों में हिन्दू धर्म, जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। जिन-जिन देशों में धर्मानुयायी गए, वहाँ की कला में कई धार्मिक चिंह्न दिखाई देने लगे। फिर चाहे वह इडोनेशिया हो, पाकिस्तान हो या फिर श्रीलंका। कलाकारी का अद्भुत साम्य यहाँ देखने को मिलता है। इंडोनेशिया में जो साड़ियाँ बनाई जाती हैं, उनके मोटिफ आध्यात्मिक हैं।

साड़ी की शैलियाँ

आज भारत सहित अनेकों देशों में साड़ी महिलाओं द्वारा भिन्न-भिन्न प्रकार से पहनी जाती है। साड़ी को भिन्न-भिन्न प्रकार से पहनने की कई शैलियाँ आज मौजूद हैं। ऐसा ज़रूरी नहीं है कि साड़ी पहनने के जिस प्रकार को सबसे अधिक पसन्द किया जाता है, उस प्रकार से ही हमेशा पहनें। साड़ी को पहनने के भी कई तरीक़े हैं। स्त्रियाँ अपनी लम्बाई, कद-काठी और मौके के अनुसार साड़ी पहनने का प्रकार चुन सकती हैं, जैसे- फ्री पल्लू साड़ी, पिनअप साड़ी, उल्टा पल्लू, सीधा पल्लू, लहंगा शैली, मुमताज शैली और बंगाली शैली की साड़ियों को अपनी पसंद के अनुसार पहना जा सकता है।

साड़ियों के प्रकार

भौगोलिक स्थिति, पारंपरिक मूल्यों और रुचियों के अनुसार बाज़ारों में साड़ियों की असंख्य किस्में उपलब्ध हैं। अलग-अलग शैली की साड़ियों में कांजीवरम साड़ी, बनारसी साड़ी, पटोला साड़ी और हकोबा मुख्य हैं। मध्य प्रदेश की चंदेरी, महेश्वरी, मधुबनी छपाई, असम की मूंगा रेशम, उड़ीसा की बोमकई, राजस्थान की बंधेज, गुजरात की गठोडा, पटौला, बिहार की तसर, काथा, छत्तीसगढ़ी कोसा रेशम, दिल्ली की रेशमी साड़ियाँ, झारखंडी कोसा रेशम, महाराष्ट्र की पैथानी, तमिलनाडु की कांजीवरम, बनारसी साड़ियाँ, उत्तर प्रदेश की तांची, जामदानी, जामवर एवं पश्चिम बंगाल की बालूछरी एवं कांथा टंगैल आदि प्रसिद्ध साड़ियाँ हैं। [[चित्र:Banarasi-Saree-3.jpg|thumb|बनारसी साड़ी]]

बनारसी साड़ी

  1. REDIRECTसाँचा:मुख्य

बनारसी साड़ी एक विशेष प्रकार की साड़ी है, जिसे विवाह आदि शुभ अवसरों पर हिन्दू स्त्रियाँ पहनती हैं। उत्तर प्रदेश के चंदौली, बनारस, जौनपुर, आजमगढ़, मिर्जापुर और संत रविदासनगर ज़िले में बनारसी साड़ियाँ बनाई जाती हैं। इसका कच्चा माल बनारस से आता है। पहले बनारस की अर्थव्यवस्था का मुख्य स्तंभ बनारसी साड़ी का काम था, पर अब यह चिंताजनक स्थिति में है। रेशम की साड़ियों पर बनारस में बुनाई के संग ज़री के डिज़ाइन मिलाकर बुनने से तैयार होने वाली सुंदर रेशमी साड़ी को बनारसी रेशमी साड़ी कहा जाता है। ये पारंपरिक कार्य सदियों से होता रहा है। कभी इसमें शुद्ध सोने की ज़री का भी उपयोग किया जाता था। किंतु बढ़ती हुई क़ीमत के कारण नकली चमकदार ज़री का काम भी काफ़ी हो रहा है। इनमें अनेक प्रकार के नमूने बनाये जाते हैं। इन्हें 'मोटिफ' कहते हैं। बहुत तरह के मोटिफों का प्रयोग हो रहा है, परन्तु कुछ प्रमुख परम्परागत मोटिफ आज भी अपनी बनारसी पहचान बनाए हुए हैं। [[चित्र:Maharashtrian saree-1.jpg|thumb|150px|महाराष्ट्रियन साड़ी]]

महाराष्ट्रियन साड़ी

  1. REDIRECTसाँचा:मुख्य

यह साड़ी मुख्य रूप से महाराष्ट्र राज्य में पहनी जाती है। महाराष्ट्र का पैठण शहर महाराष्ट्रियन साड़ी के लिए प्रसिद्ध है। इस साड़ी को बनाने की प्रेरणा अजन्ता की गुफा में की गई चित्रकारी से मिली थी। 'पैठण डिज़ायन सह प्रदर्शनी केंद्र' इस साड़ी के लिए बहुत प्रसिद्ध है, जहाँ रेडीमेड साडि़याँ मिलती है और ऑर्डर पर भी साड़ियाँ बनाई जाती हैं।

पटोला साड़ी

  1. REDIRECTसाँचा:मुख्य

पटोला साड़ी स्त्रियों द्वारा धारण की जाने वाली प्रमुख साड़ियों में से एक है। यह साड़ी मुख्य रूप से हथकरघे से बनी होती है।[[चित्र:Pataula-Saree.jpg|thumb|180px|left|पटौला साड़ी]] यह दोनों ओर से बनायी जाती है। पटोला साड़ी में बहुत ही महीन काम किया जाता है। पूर्णत: रेशम से बनी इस साड़ी को वेजिटेबल डाई या कलर डाई किया जाता है। डबल इकत पटोला साड़ी के रूप में जानी जाने वाली बुनकरों की यह कला अब लुप्त होने के कगार पर है। भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध मुग़ल काल के समय गुजरात में इस कला को जितने परिवारों ने अपनाया था, उनकी संख्या लगभग 250 थी। पटोला साड़ी के निर्माण में लागत के हिसाब से बाज़ार में क़ीमत नहीं मिल पाती, जिस कारण यह कला सिमटती जा रही है।

[[चित्र:Maheshwari-Saree-2.jpg|thumb|180px|महेश्वरी साड़ियाँ]]

महेश्वरी साड़ी

  1. REDIRECTसाँचा:मुख्य

महेश्वरी साड़ी मध्य प्रदेश के महेश्वर में स्त्रियों द्वारा प्रमुख रूप से पहनी जाती है। पहले केवल सूती साड़ियाँ ही बनाई जाती थीं, लेकिन धीरे-धीरे इसमें सुधार आता गया और उच्च गुणवत्ता वाली रेशमी साड़ियाँ आदि भी बनाई जाने लगीं। महेश्वरी साड़ियों का इतिहास लगभग 250 वर्ष पुराना है। होल्कर वंश की महान् शासक देवी अहिल्याबाई होल्कर ने महेश्वर में सन 1767 में कुटीर उद्योग स्थापित करवाया था। गुजरात एवं भारत के अन्य शहरों से बुनकरों के परिवारों को उन्होंने यहाँ लाकर बसाया तथा उन्हें घर, व्यापार आदि की सुविधाएँ प्रदान कीं। [[चित्र:Chanderi-Saree.jpg|thumb|180px|चन्देरी साड़ियाँ]]

चन्देरी साड़ी

  1. REDIRECTसाँचा:मुख्य

चन्देरी की विश्व प्रसिद्ध चन्देरी साड़ियाँ आज भी हथकरघे पर बुनी जाती हैं। इन साड़ियों का अपना ही एक समृद्धशाली इतिहास रहा है। पहले ये साड़ियाँ केवल राजघरानों की महिलाएँ ही पहना करती थीं, लेकिन अब यह आम लोगों तक भी पहुँच चुकी हैं। एक चन्देरी साड़ी को बनाने में सालभर का वक्त लगता है, इसलिए इसे बाहरी नजर से बचाने के लिए चन्देरी बनाने वाले कारीगर साड़ी बनाते समय हर मीटर पर काजल का टीका लगाते हैं। चन्देरी साड़ियों में पहले पुराने डिज़ायन ही बनाए जाते थे, लेकिन अब इनकी डिजाइनों में भी नए-नए प्रयोग हो रहे हैं। इनकी ख़ासियत यह है कि ये दिखने में एलीगेंट तो होती ही हैं, साथ में बहुत हल्की भी होती हैं। इसीलिए महिलाएँ इन्हें आसानी से पहन सकती हैं।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ऋग्वेद, 10.130.1

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख