रश्मिरथी प्रथम सर्ग: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
m (Adding category Category:रश्मिरथी (को हटा दिया गया हैं।))
m (Text replacement - "उद्धाटन" to "उद्घाटन")
 
(8 intermediate revisions by 3 users not shown)
Line 1: Line 1:
{| style="background:transparent; float:right"
|-
|
{{सूचना बक्सा पुस्तक
{{सूचना बक्सा पुस्तक
|चित्र=Rashmirathi.jpg
|चित्र=Rashmirathi.jpg
Line 16: Line 19:
|शैली =
|शैली =
|मुखपृष्ठ_रचना = सजिल्द
|मुखपृष्ठ_रचना = सजिल्द
|विधा =कविता
|विधा = कविता
|प्रकार = [[महाकाव्य]]
|प्रकार = [[महाकाव्य]]
|पृष्ठ =  
|पृष्ठ =  
|ISBN =81-85341-03-6
|ISBN =81-85341-03-6
|भाग =प्रथम सर्ग
|भाग = प्रथम सर्ग
|विशेष ='रश्मिरथी' में [[कर्ण]] कथा को विषयवस्तु के रूप में चुनकर लेखक ने सर्जक के नए आयाम का उद्धाटन किया है।
|विशेष ='रश्मिरथी' में [[कर्ण]] कथा को विषयवस्तु के रूप में चुनकर लेखक ने सर्जक के नए आयाम का उद्घाटन किया है।
|टिप्पणियाँ =  
|टिप्पणियाँ =  
}}
}}
 
|-
'''रश्मिरथी''' जिसका अर्थ 'सूर्य की सारथी' है, [[हिन्दी]] [[कवि]] [[रामधारी सिंह दिनकर]] के सबसे लोकप्रिय [[महाकाव्य]] कविताओं में से एक है। इसमें 7 सर्ग हैं। 'रश्मिरथी' में कर्ण कथा को विषयवस्तु के रूप में चुनकर लेखक ने सर्जक के नए आयाम का उद्धाटन किया है। यह [[महाभारत]] की कहानी है। महाभारत सामूहिक लेखन की देन है। इस अर्थ में दिनकर ने एकदम नयी समस्या की ओर ध्यान खींचा है। [[कर्ण]] की कहानी हम वर्षों से सुनते आ रहे हैं। कहानी पुरानी है, काव्य प्रस्तुति नयी है। प्रथम सर्ग की कथा इस प्रकार है -
|
<div style="border:thin solid #a7d7f9; margin:10px">
{|  align="center"
! रामधारी सिंह दिनकर की रचनाएँ
|}
<div style="height: 250px; overflow:auto; overflow-x: hidden; width:99%">
{{रामधारी सिंह दिनकर की रचनाएँ}}
</div></div>
|}
'''रश्मिरथी''' जिसका अर्थ 'सूर्य की सारथी' है, [[हिन्दी]] [[कवि]] [[रामधारी सिंह दिनकर]] के सबसे लोकप्रिय [[महाकाव्य]] कविताओं में से एक है। इसमें 7 सर्ग हैं। 'रश्मिरथी' में कर्ण कथा को विषयवस्तु के रूप में चुनकर लेखक ने सर्जक के नए आयाम का उद्घाटन किया है। यह [[महाभारत]] की कहानी है। महाभारत सामूहिक लेखन की देन है। इस अर्थ में दिनकर ने एकदम नयी समस्या की ओर ध्यान खींचा है। [[कर्ण]] की कहानी हम वर्षों से सुनते आ रहे हैं। कहानी पुरानी है, काव्य प्रस्तुति नयी है। प्रथम सर्ग की कथा इस प्रकार है -
==प्रथम सर्ग==
==प्रथम सर्ग==
[[कौरव |कौरव]] और [[पाण्डव]] जब छात्रावास में थे, तब उन्हें शस्त्रास्त्र की शिक्षा देने के लिए [[द्रोणाचार्य]] नियुक्त किये गये। जब कुमारों की शिक्षा पूर्ण हो गयी,  तब उनके रण कौशल का जनता के समक्ष प्रदर्शन प्रदर्शन करने को एक सार्वजनिक  आयोजन किया गया। इसी आयोजन में अचानक कर्ण प्रकट हुआ और चूँकि उस दिन सभा में सबसे अधिक प्रशंसा [[अर्जुन]] के अस्त्र चालन की हुई थी, इस लिए कर्ण ने अपने साथ भिड़ने की चुनौती भी उसे ही दी। किंतु [[कृपाचार्य]] ने कहा कि जब तक यह विदित नहीं हो जाय कि कर्ण की जाति क्या है तथा वह राजपुत्र है या नहीं, तब तक अर्जुन उसके साथ लड़कर उसे सम्मान नहीं देगा। 
[[कौरव |कौरव]] और [[पाण्डव]] जब छात्रावास में थे, तब उन्हें शस्त्रास्त्र की शिक्षा देने के लिए [[द्रोणाचार्य]] नियुक्त किये गये। जब कुमारों की शिक्षा पूर्ण हो गयी, तब उनके रण कौशल का जनता के समक्ष प्रदर्शन करने को एक सार्वजनिक आयोजन किया गया। इसी आयोजन में अचानक कर्ण प्रकट हुआ और चूँकि उस दिन सभा में सबसे अधिक प्रशंसा [[अर्जुन]] के अस्त्र चालन की हुई थी, इस लिए कर्ण ने अपने साथ भिड़ने की चुनौती भी उसे ही दी। किंतु [[कृपाचार्य]] ने कहा कि जब तक यह विदित नहीं हो जाय कि कर्ण की जाति क्या है तथा वह राजपूत्र है या नहीं, तब तक अर्जुन उसके साथ लड़कर उसे सम्मान नहीं देगा। 


<poem>‘‘क्षत्रिय है, यह राजपुत्र है, यों ही नहीं लड़ेगा,
<poem>‘‘क्षत्रिय है, यह राजपूत्र है, यों ही नहीं लड़ेगा,
जिस-तिस से हाथापाई में कैसे कूद पड़ेगा ?
जिस-तिस से हाथापाई में कैसे कूद पड़ेगा ?
अर्जुन से लड़ना हो तो मत गहो सभा में मौन,
अर्जुन से लड़ना हो तो मत गहो सभा में मौन,
नाम-धाम कुछ कहो, बताओ कि तुम जाति हो कौन ?
नाम-धाम कुछ कहो, बताओ कि तुम जाति हो कौन ?<ref>{{cite book | last ='दिनकर' | first =रामधारी सिंह  | title =रश्मिरथी  | edition = | publisher =लोकभारती प्रकाशन | location =भारत डिस्कवरी पुस्तकालय | language =हिंदी  | pages =पृष्ठ 11  | chapter =प्रथम सर्ग}}</ref>


*कृपाचार्य ने कर्ण से कहा- 
*कृपाचार्य ने कर्ण से कहा- 
Line 38: Line 50:
कृपाचार्य ने कहा- ‘‘वृथा तुम क्रुद्ध हुए जाते हो,
कृपाचार्य ने कहा- ‘‘वृथा तुम क्रुद्ध हुए जाते हो,
साधारण-सी बात, उसे भी समझ नहीं पाते हो।
साधारण-सी बात, उसे भी समझ नहीं पाते हो।
राजपुत्र से लड़े बिना होता हो अगर अकाज,
राजपूत्र से लड़े बिना होता हो अगर अकाज,
अर्जित करना तुम्हें चाहिए पहले कोई राज।
अर्जित करना तुम्हें चाहिए पहले कोई राज।<ref>{{cite book | last ='दिनकर' | first =रामधारी सिंह  | title =रश्मिरथी  | edition = | publisher =लोकभारती प्रकाशन | location =भारत डिस्कवरी पुस्तकालय | language =हिंदी  | pages =पृष्ठ 11 | chapter =प्रथम सर्ग}}</ref>
*[[दुर्योधन]] को अर्जुन से द्वेष तो था ही, उसने सभा के समक्ष ही कर्ण को अंग देश का राजा बना दिया।- 
*[[दुर्योधन]] को अर्जुन से द्वेष तो था ही, उसने सभा के समक्ष ही कर्ण को अंग देश का राजा बना दिया।- 


Line 45: Line 57:
मानवता की इस विभूति का, धरती के इस धन का ?
मानवता की इस विभूति का, धरती के इस धन का ?
बिना राज्य यदि नहीं वीरता का इसको अधिकार,
बिना राज्य यदि नहीं वीरता का इसको अधिकार,
तो मेरी यह खुली घोषणा सुने सकल संसार।
तो मेरी यह खुली घोषणा सुने सकल संसार।<ref>{{cite book | last ='दिनकर' | first =रामधारी सिंह  | title =रश्मिरथी  | edition = | publisher =लोकभारती प्रकाशन | location =भारत डिस्कवरी पुस्तकालय | language =हिंदी  | pages =पृष्ठ 12  | chapter =प्रथम सर्ग}}</ref>


‘‘अंगदेश का मुकुट कर्ण के मस्तक पर धरता हूँ,
‘‘अंगदेश का मुकुट कर्ण के मस्तक पर धरता हूँ,
एक राज्य इस महावीर के हित अर्पित करता हूँ।
एक राज्य इस महावीर के हित अर्पित करता हूँ।
रखा कर्ण के सिर पर उसने अपना मुकुट उतार,
रखा कर्ण के सिर पर उसने अपना मुकुट उतार,
गूँजी रंगभूमि में दुर्योधन की जय-जय-कार।
गूँजी रंगभूमि में दुर्योधन की जय-जय-कार।<ref>{{cite book | last ='दिनकर' | first =रामधारी सिंह  | title =रश्मिरथी  | edition = | publisher =लोकभारती प्रकाशन | location =भारत डिस्कवरी पुस्तकालय | language =हिंदी  | pages =पृष्ठ 12  | chapter =प्रथम सर्ग}}</ref>


*फिर [[भीम]] और दुर्योधन में गाली गलौज होने लगी, जिसे कृपाचार्य ने रोक दिया। जब सभा विसर्जित हुई और लोग अपने अपने घर जाने लगे, तब रास्ते में द्रोणाचार्य ने अर्जुन से कहा कि 'अर्जुन, कर्ण तुम्हारा बैरी और प्रतिबल होगा। मैंने [[एकलव्य]] का अँगूठा तो इसलिए कटवा लिया कि तुम्हारे समान धनुर्धर और कोई ना हो, किंतु, इस कर्ण के  साथ  क्या बर्ताव करें? एक बात तो ठीक है कि मैं उसे अपना शिष्य नहीं बनाऊँगा?'-
*फिर [[भीम]] और दुर्योधन में गाली गलौज होने लगी, जिसे कृपाचार्य ने रोक दिया। जब सभा विसर्जित हुई और लोग अपने अपने घर जाने लगे, तब रास्ते में द्रोणाचार्य ने अर्जुन से कहा कि 'अर्जुन, कर्ण तुम्हारा बैरी और प्रतिबल होगा। मैंने [[एकलव्य]] का अँगूठा तो इसलिए कटवा लिया कि तुम्हारे समान धनुर्धर और कोई ना हो, किंतु, इस कर्ण के  साथ  क्या बर्ताव करें? एक बात तो ठीक है कि मैं उसे अपना शिष्य नहीं बनाऊँगा?'-
Line 57: Line 69:
टँगा रहा है एक इसी पर ध्यान आज तक मेरा।
टँगा रहा है एक इसी पर ध्यान आज तक मेरा।
एकलव्य से लिया अँगूठा, कढ़ी न मुख से आह,
एकलव्य से लिया अँगूठा, कढ़ी न मुख से आह,
रखा चाहता हूँ निष्कण्टक बेटा ! तेरी राह।
रखा चाहता हूँ निष्कण्टक बेटा ! तेरी राह।<ref>{{cite book | last ='दिनकर' | first =रामधारी सिंह  | title =रश्मिरथी  | edition = | publisher =लोकभारती प्रकाशन | location =भारत डिस्कवरी पुस्तकालय | language =हिंदी  | pages =पृष्ठ 14 | chapter =प्रथम सर्ग}}</ref>


‘‘मगर, आज जो कुछ देखा, उससे धीरज हिलता है,
‘‘मगर, आज जो कुछ देखा, उससे धीरज हिलता है,
मुझे कर्ण में चरम वीरता का लक्षण मिलता है।
मुझे कर्ण में चरम वीरता का लक्षण मिलता है।
बढ़ता गया अगर निष्कण्टक यह उद्भट भट बाल,
बढ़ता गया अगर निष्कण्टक यह उद्भट भट बाल,
अर्जुन ! तेरे लिए कभी वह हो सकता है काल !
अर्जुन ! तेरे लिए कभी वह हो सकता है काल !<ref>{{cite book | last ='दिनकर' | first =रामधारी सिंह  | title =रश्मिरथी  | edition = | publisher =लोकभारती प्रकाशन | location =भारत डिस्कवरी पुस्तकालय | language =हिंदी  | pages =पृष्ठ 14 | chapter =प्रथम सर्ग}}</ref>


*कर्ण ने कहा भी है-
*कर्ण ने कहा भी है-
Line 69: Line 81:
शरमाते हैं नहीं जगत् में जाति पूछनेवाले।
शरमाते हैं नहीं जगत् में जाति पूछनेवाले।
सूतपुत्र हूँ मैं, लेकिन, थे पिता पार्थ के कौन ?
सूतपुत्र हूँ मैं, लेकिन, थे पिता पार्थ के कौन ?
साहस हो तो कहो, ग्लानि से रह जाओ मत मौन।
साहस हो तो कहो, ग्लानि से रह जाओ मत मौन।<ref>{{cite book | last ='दिनकर' | first =रामधारी सिंह  | title =रश्मिरथी  | edition = | publisher =लोकभारती प्रकाशन | location =भारत डिस्कवरी पुस्तकालय | language =हिंदी  | pages =पृष्ठ 11  | chapter =प्रथम सर्ग}}</ref>


‘‘मस्तक ऊँचा किये, जाति का नाम लिये चलते हो,
‘‘मस्तक ऊँचा किये, जाति का नाम लिये चलते हो,
पर, अधर्ममय शोषण के बल से सुख में पलते हो।
पर, अधर्ममय शोषण के बल से सुख में पलते हो।
अधम जातियों से थर-थर काँपते तुम्हारे प्राण,
अधम जातियों से थर-थर काँपते तुम्हारे प्राण,
छल से माँग लिया करते हो अँगूठे का दान।
छल से माँग लिया करते हो अँगूठे का दान।<ref>{{cite book | last ='दिनकर' | first =रामधारी सिंह  | title =रश्मिरथी  | edition = | publisher =लोकभारती प्रकाशन | location =भारत डिस्कवरी पुस्तकालय | language =हिंदी  | pages =पृष्ठ 11 | chapter =प्रथम सर्ग}}</ref>


*जब कृपाचार्य ने सभा में कर्ण की जाति पूछी थी, उस समय [[कुंती]] परदे के पीछे रनिवास में बैठी हुई थी। किंतु उन्हें इतना साहस नहीं हुआ कि बढ़कर कृपाचार्य से यह कहा दें कि कर्ण की माता मैं ही हूँ। फिर भी, शोक के कारण वह मूर्छित हो गयीं और जब घर लौटने लगीं,  तब रथ तक जाने में भी उनके पाँव डगमगाने लगे।-
*जब कृपाचार्य ने सभा में कर्ण की जाति पूछी थी, उस समय [[कुंती]] परदे के पीछे रनिवास में बैठी हुई थी। किंतु उन्हें इतना साहस नहीं हुआ कि बढ़कर कृपाचार्य से यह कहा दें कि कर्ण की माता मैं ही हूँ। फिर भी, शोक के कारण वह मूर्छित हो गयीं और जब घर लौटने लगीं,  तब रथ तक जाने में भी उनके पाँव डगमगाने लगे।-
Line 81: Line 93:
सबके पीछे चलीं एक विकला मसोसती मन को।
सबके पीछे चलीं एक विकला मसोसती मन को।
उजड़ गये हों स्वप्न कि जैसे हार गयी हों दाँव,
उजड़ गये हों स्वप्न कि जैसे हार गयी हों दाँव,
नहीं उठाये भी उठ पाते थे कुन्ती के पाँव। </poem>
नहीं उठाये भी उठ पाते थे कुन्ती के पाँव। <ref>{{cite book | last ='दिनकर' | first =रामधारी सिंह  | title =रश्मिरथी  | edition = | publisher =लोकभारती प्रकाशन | location =भारत डिस्कवरी पुस्तकालय | language =हिंदी  | pages =पृष्ठ 14  | chapter =प्रथम सर्ग}}</ref></poem>


==कर्ण-चरित==  
==कर्ण-चरित==  
कर्ण-चरित के उद्धार की चिन्ता इस बात का प्रमाण है कि हमसे समाज में मानवीय गुणों को पहचान बढ़ने वाली है। कुल और जाति का अहंकार विदा हो रहा है। आगे मनुष्य केवल उसी पद का अधिकारी होगा जो उसके अपने सामर्थ्य से सूचित होता हो, उस पद का नहीं, जो उसके माता-पिता या वंश की देन है। इसी प्रकार व्यक्ति अपने निजी गुणों के कारण जिस पद का अधिकारी है वह उसे मिलकर रहेगा, यहाँ तक कि उसके माता-पिता के दोष भी इसमें कोई बाधा नहीं डाल सकेंगे। '''कर्णचरित का उद्धार एक तरह से, नयी मानवता की स्थापना का ही प्रयास है''' और मुझे संतोष है कि इस प्रयास में मैं अकेला नहीं, अपने अनेक सुयोग्य सहधर्मियों के साथ हूँ।
कर्ण-चरित के उद्धार की चिन्ता इस बात का प्रमाण है कि हमसे समाज में मानवीय गुणों को पहचान बढ़ने वाली है। कुल और जाति का अहंकार विदा हो रहा है। आगे मनुष्य केवल उसी पद का अधिकारी होगा जो उसके अपने सामर्थ्य से सूचित होता हो, उस पद का नहीं, जो उसके माता-पिता या वंश की देन है। इसी प्रकार व्यक्ति अपने निजी गुणों के कारण जिस पद का अधिकारी है वह उसे मिलकर रहेगा, यहाँ तक कि उसके माता-पिता के दोष भी इसमें कोई बाधा नहीं डाल सकेंगे। '''कर्णचरित का उद्धार एक तरह से, नयी मानवता की स्थापना का ही प्रयास है'''
*रश्मिरथी में स्वयं कर्ण के मुख से निकला है-
*रश्मिरथी में स्वयं कर्ण के मुख से निकला है-


Line 90: Line 102:
पूछेगा जग, किन्तु पिता का नाम न बोल सकेंगे,  
पूछेगा जग, किन्तु पिता का नाम न बोल सकेंगे,  
जिनका निखिल विश्व में कोई कहीं न अपना होगा,  
जिनका निखिल विश्व में कोई कहीं न अपना होगा,  
मन में लिये उमंग जिन्हें चिर-काल कलपना होगा।<ref>{{cite web |url= http://pustak.org/home.php?bookid=1996#|title= रश्मिरथी|accessmonthday=22 सितम्बर |accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=भारतीय साहित्य संग्रह |language=हिंदी }}</ref></poem>  
मन में लिये उमंग जिन्हें चिर-काल कलपना होगा।<ref>{{cite book | last ='दिनकर' | first =रामधारी सिंह  | title =रश्मिरथी  | edition = | publisher =लोकभारती प्रकाशन | location =भारत डिस्कवरी पुस्तकालय | language =हिंदी  | pages =पृष्ठ 57  | chapter =चतुर्थ सर्ग}}</ref><ref>{{cite web |url= http://pustak.org/home.php?bookid=1996#|title= रश्मिरथी|accessmonthday=22 सितम्बर |accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=भारतीय साहित्य संग्रह |language=हिंदी }}</ref></poem>  


{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक= प्रारम्भिक2|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक= प्रारम्भिक2|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
<references/>

Latest revision as of 07:57, 7 November 2017

रश्मिरथी प्रथम सर्ग
कवि रामधारी सिंह दिनकर
मूल शीर्षक रश्मिरथी
मुख्य पात्र कर्ण
प्रकाशक लोकभारती प्रकाशन
ISBN 81-85341-03-6
देश भारत
भाषा हिंदी
विधा कविता
प्रकार महाकाव्य
भाग प्रथम सर्ग
मुखपृष्ठ रचना सजिल्द
विशेष 'रश्मिरथी' में कर्ण कथा को विषयवस्तु के रूप में चुनकर लेखक ने सर्जक के नए आयाम का उद्घाटन किया है।
रामधारी सिंह दिनकर की रचनाएँ

रश्मिरथी जिसका अर्थ 'सूर्य की सारथी' है, हिन्दी कवि रामधारी सिंह दिनकर के सबसे लोकप्रिय महाकाव्य कविताओं में से एक है। इसमें 7 सर्ग हैं। 'रश्मिरथी' में कर्ण कथा को विषयवस्तु के रूप में चुनकर लेखक ने सर्जक के नए आयाम का उद्घाटन किया है। यह महाभारत की कहानी है। महाभारत सामूहिक लेखन की देन है। इस अर्थ में दिनकर ने एकदम नयी समस्या की ओर ध्यान खींचा है। कर्ण की कहानी हम वर्षों से सुनते आ रहे हैं। कहानी पुरानी है, काव्य प्रस्तुति नयी है। प्रथम सर्ग की कथा इस प्रकार है -

प्रथम सर्ग

कौरव और पाण्डव जब छात्रावास में थे, तब उन्हें शस्त्रास्त्र की शिक्षा देने के लिए द्रोणाचार्य नियुक्त किये गये। जब कुमारों की शिक्षा पूर्ण हो गयी, तब उनके रण कौशल का जनता के समक्ष प्रदर्शन करने को एक सार्वजनिक आयोजन किया गया। इसी आयोजन में अचानक कर्ण प्रकट हुआ और चूँकि उस दिन सभा में सबसे अधिक प्रशंसा अर्जुन के अस्त्र चालन की हुई थी, इस लिए कर्ण ने अपने साथ भिड़ने की चुनौती भी उसे ही दी। किंतु कृपाचार्य ने कहा कि जब तक यह विदित नहीं हो जाय कि कर्ण की जाति क्या है तथा वह राजपूत्र है या नहीं, तब तक अर्जुन उसके साथ लड़कर उसे सम्मान नहीं देगा। 

‘‘क्षत्रिय है, यह राजपूत्र है, यों ही नहीं लड़ेगा,
जिस-तिस से हाथापाई में कैसे कूद पड़ेगा ?
अर्जुन से लड़ना हो तो मत गहो सभा में मौन,
नाम-धाम कुछ कहो, बताओ कि तुम जाति हो कौन ?[1]

  • कृपाचार्य ने कर्ण से कहा- 


कृपाचार्य ने कहा- ‘‘वृथा तुम क्रुद्ध हुए जाते हो,
साधारण-सी बात, उसे भी समझ नहीं पाते हो।
राजपूत्र से लड़े बिना होता हो अगर अकाज,
अर्जित करना तुम्हें चाहिए पहले कोई राज।[2]

  • दुर्योधन को अर्जुन से द्वेष तो था ही, उसने सभा के समक्ष ही कर्ण को अंग देश का राजा बना दिया।- 


‘‘करना क्या अपमान ठीक है इस अनमोल रतन का,
मानवता की इस विभूति का, धरती के इस धन का ?
बिना राज्य यदि नहीं वीरता का इसको अधिकार,
तो मेरी यह खुली घोषणा सुने सकल संसार।[3]

‘‘अंगदेश का मुकुट कर्ण के मस्तक पर धरता हूँ,
एक राज्य इस महावीर के हित अर्पित करता हूँ।
रखा कर्ण के सिर पर उसने अपना मुकुट उतार,
गूँजी रंगभूमि में दुर्योधन की जय-जय-कार।[4]

  • फिर भीम और दुर्योधन में गाली गलौज होने लगी, जिसे कृपाचार्य ने रोक दिया। जब सभा विसर्जित हुई और लोग अपने अपने घर जाने लगे, तब रास्ते में द्रोणाचार्य ने अर्जुन से कहा कि 'अर्जुन, कर्ण तुम्हारा बैरी और प्रतिबल होगा। मैंने एकलव्य का अँगूठा तो इसलिए कटवा लिया कि तुम्हारे समान धनुर्धर और कोई ना हो, किंतु, इस कर्ण के  साथ  क्या बर्ताव करें? एक बात तो ठीक है कि मैं उसे अपना शिष्य नहीं बनाऊँगा?'-


‘‘जनमे नहीं जगत् में अर्जुन ! कोई प्रतिबल तेरा,
टँगा रहा है एक इसी पर ध्यान आज तक मेरा।
एकलव्य से लिया अँगूठा, कढ़ी न मुख से आह,
रखा चाहता हूँ निष्कण्टक बेटा ! तेरी राह।[5]

‘‘मगर, आज जो कुछ देखा, उससे धीरज हिलता है,
मुझे कर्ण में चरम वीरता का लक्षण मिलता है।
बढ़ता गया अगर निष्कण्टक यह उद्भट भट बाल,
अर्जुन ! तेरे लिए कभी वह हो सकता है काल ![6]

  • कर्ण ने कहा भी है-


‘‘ऊपर सिर पर कनक-छत्र, भीतर काले-के-काले,
शरमाते हैं नहीं जगत् में जाति पूछनेवाले।
सूतपुत्र हूँ मैं, लेकिन, थे पिता पार्थ के कौन ?
साहस हो तो कहो, ग्लानि से रह जाओ मत मौन।[7]

‘‘मस्तक ऊँचा किये, जाति का नाम लिये चलते हो,
पर, अधर्ममय शोषण के बल से सुख में पलते हो।
अधम जातियों से थर-थर काँपते तुम्हारे प्राण,
छल से माँग लिया करते हो अँगूठे का दान।[8]

  • जब कृपाचार्य ने सभा में कर्ण की जाति पूछी थी, उस समय कुंती परदे के पीछे रनिवास में बैठी हुई थी। किंतु उन्हें इतना साहस नहीं हुआ कि बढ़कर कृपाचार्य से यह कहा दें कि कर्ण की माता मैं ही हूँ। फिर भी, शोक के कारण वह मूर्छित हो गयीं और जब घर लौटने लगीं,  तब रथ तक जाने में भी उनके पाँव डगमगाने लगे।-


और हाय, रनिवास चला वापस जब राजभवन को,
सबके पीछे चलीं एक विकला मसोसती मन को।
उजड़ गये हों स्वप्न कि जैसे हार गयी हों दाँव,
नहीं उठाये भी उठ पाते थे कुन्ती के पाँव। [9]

कर्ण-चरित

कर्ण-चरित के उद्धार की चिन्ता इस बात का प्रमाण है कि हमसे समाज में मानवीय गुणों को पहचान बढ़ने वाली है। कुल और जाति का अहंकार विदा हो रहा है। आगे मनुष्य केवल उसी पद का अधिकारी होगा जो उसके अपने सामर्थ्य से सूचित होता हो, उस पद का नहीं, जो उसके माता-पिता या वंश की देन है। इसी प्रकार व्यक्ति अपने निजी गुणों के कारण जिस पद का अधिकारी है वह उसे मिलकर रहेगा, यहाँ तक कि उसके माता-पिता के दोष भी इसमें कोई बाधा नहीं डाल सकेंगे। कर्णचरित का उद्धार एक तरह से, नयी मानवता की स्थापना का ही प्रयास है

  • रश्मिरथी में स्वयं कर्ण के मुख से निकला है-

मैं उनका आदर्श, कहीं जो व्यथा न खोल सकेंगे
पूछेगा जग, किन्तु पिता का नाम न बोल सकेंगे,
जिनका निखिल विश्व में कोई कहीं न अपना होगा,
मन में लिये उमंग जिन्हें चिर-काल कलपना होगा।[10][11]


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 'दिनकर', रामधारी सिंह “प्रथम सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 11।
  2. 'दिनकर', रामधारी सिंह “प्रथम सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 11।
  3. 'दिनकर', रामधारी सिंह “प्रथम सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 12।
  4. 'दिनकर', रामधारी सिंह “प्रथम सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 12।
  5. 'दिनकर', रामधारी सिंह “प्रथम सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 14।
  6. 'दिनकर', रामधारी सिंह “प्रथम सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 14।
  7. 'दिनकर', रामधारी सिंह “प्रथम सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 11।
  8. 'दिनकर', रामधारी सिंह “प्रथम सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 11।
  9. 'दिनकर', रामधारी सिंह “प्रथम सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 14।
  10. 'दिनकर', रामधारी सिंह “चतुर्थ सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 57।
  11. रश्मिरथी (हिंदी) भारतीय साहित्य संग्रह। अभिगमन तिथि: 22 सितम्बर, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख