तीर्थंकर पार्श्वनाथ: Difference between revisions
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*84 दिन तक कठोर तप करने के बाद [[चैत्र मास]] के कृष्ण पक्ष की [[चतुर्थी]] को वाराणसी में ही 'घातकी वृक्ष' के नीचे इन्होनें '[[कैवल्य ज्ञान]]' को प्राप्त किया। | *84 दिन तक कठोर तप करने के बाद [[चैत्र मास]] के कृष्ण पक्ष की [[चतुर्थी]] को वाराणसी में ही 'घातकी वृक्ष' के नीचे इन्होनें '[[कैवल्य ज्ञान]]' को प्राप्त किया। | ||
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*प्रसिद्ध दार्शनिक सर राधाकृष्णन ने भी अपने [[दर्शन शास्त्र|भारतीय दर्शन]] में इसे स्वीकार किया है। | *प्रसिद्ध दार्शनिक सर राधाकृष्णन ने भी अपने [[दर्शन शास्त्र|भारतीय दर्शन]] में इसे स्वीकार किया है। | ||
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{{लेख प्रगति |आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1|माध्यमिक=|पूर्णता=|शोध=}} | {{लेख प्रगति |आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1|माध्यमिक=|पूर्णता=|शोध=}} | ||
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Latest revision as of 12:00, 8 May 2018
[[चित्र:23rd-Tirthankara-Parsvanatha-Jain-Museum-Mathura-9.jpg|250px|thumb|तीर्थंकर पार्श्वनाथ
Tirthankara Parsvanatha
राजकीय जैन संग्रहालय, मथुरा]]
पार्श्वनाथ जैनों के तेईसवें तीर्थंकर थे। इनका जन्म अरिष्टनेमि के एक हज़ार वर्ष बाद इक्ष्वाकु वंश में पौष माह के कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि को विशाखा नक्षत्र में वाराणसी में हुआ था। इनकी माता का नाम वामा देवी और पिता का नाम राजा अश्वसेन था। इनके शरीर का वर्ण नीला जबकि इनका चिह्न सर्प है। पार्श्वनाथ के यक्ष का नाम पार्श्व और यक्षिणी का नाम पद्मावती देवी था।
- जैन धर्मावलम्बियों के अनुसार भगवान पार्श्वनाथ के गणधरों की कुल संख्या 10 थी, जिनमें आर्यदत्त स्वामी इनके प्रथम गणधर थे।
- इनके प्रथम आर्य का नाम पुष्पचुड़ा था।
- पार्श्वनाथ ने पौष माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी को वाराणसी में दीक्षा की प्राप्ति की थी।
- दीक्षा प्राप्ति के पश्चात् दो दिन बाद खीर से इन्होनें प्रथम पारणा किया।
- पार्श्वनाथ 30 साल की अवस्था में सांसारिक मोहमाया और गृह का त्याग कर संन्यासी हो गए थे।
- 84 दिन तक कठोर तप करने के बाद चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को वाराणसी में ही 'घातकी वृक्ष' के नीचे इन्होनें 'कैवल्य ज्ञान' को प्राप्त किया।
- एक कथा के अनुसार एक दिन कुमार पार्श्व वन-क्रीडा के लिए गंगा के किनारे गये। जहाँ एक तापसी पंचग्नितप कर रहा था। वह अग्नि में पुराने और पोले लक्कड़ जला रहा था। पार्श्व की पैनी दृष्टि उधर गयी और देखा कि उस लक्कड़ में एक नाग-नागिन का जोड़ा है और जो अर्धमृतक-जल जाने से मरणासन्न अवस्था में है। कुमार पार्श्व ने यह बात तापसी से कही। तापसी झुंझलाकर बोला – ‘इसमें कहाँ नाग-नागिन है? और जब उस लक्कड़ को फाड़ा, उसमें मरणासन्न नाग-नागिनी को देखा। पार्श्व ने ‘णमोकारमन्त्र’ पढ़कर उस नाग-नागिनी के युगल को संबोधा, जिसके प्रभाव से वह मरकर देव जाति से धरणेन्द्र पद्मावती हुआ।
- जैन मन्दिरों में पार्श्वनाथ की अधिकांश मूर्तियों के मस्तक पर जो फणामण्डल बना हुआ देखा जाता है वह धरणेन्द्र के फणामण्डल मण्डप का अंकन है, जिसे उसने कृतज्ञतावश योग-मग्न पार्श्वनाथ पर कमठ द्वारा किये गये उपसर्गों के निवारणार्थ अपनी विक्रिया से बनाया था।
[[चित्र:Canopied-Head-Of-Parsvanatha-Mathura-Museum-56.jpg|250px|thumb|तीर्थंकर पार्श्वनाथ का सिर
Canopied Head Of Parsvanatha
राजकीय जैन संग्रहालय, मथुरा|left]]
- उपर्युक्त घटना से प्रतीत होता है कि पार्श्व के समय में कितनी मूढ़ताएं-अज्ञानताएं धर्म के नाम पर लोक में व्याप्त थीं।
- पार्श्वकुमार इसी निमित्त को पाकर विरक्त हो प्रव्रजित हो गये, न विवाह किया और न राज्य किया। कठोर तपस्या कर तीर्थंकर केवली बन गये और जगह-जगह पदयात्रा करके लोक में फैली मूढ़ताओं को दूर किया तथा सम्यक् तप, ज्ञान का सम्यक् प्रचार किया।
- अन्त में बिहार प्रदेश में स्थित सम्मेद-शिखर पर्वत से, जिसे आज ‘पार्श्वनाथ हिल’ कहा जाता है, तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने मुक्ति-लाभ किया।
- इनकी ऐतिहासिकता के प्रमाण प्राप्त हो चुके हैं और उनके अस्तित्व को मान लिया गया है।
- प्रसिद्ध दार्शनिक सर राधाकृष्णन ने भी अपने भारतीय दर्शन में इसे स्वीकार किया है।
- पार्श्वनाथ जैनों के 23वें तीर्थंकर गिने जाते हैं, जिनका निर्वाण पारसनाथ पहाड़ पर हुआ था, जो हज़ारीबाग़ के दक्षिण-पूर्व 448 फीट ऊंचा पहाड़ है।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ पौराणिक कोश |लेखक: राणा प्रसाद शर्मा |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 562, परिशिष्ट 'ग' |