जैन साहित्य: Difference between revisions
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ऐतिहसिक जानकारी हेतु [[जैन साहित्य]] भी [[बौद्ध साहित्य]] की ही तरह महत्त्वपूर्ण हैं। अब तक उपलब्ध जैन साहित्य [[प्राकृत]] एवं [[संस्कृत]] भाषा में मिलतें है। जैन साहित्य, जिसे ‘आगम‘ कहा जाता है, इनकी संख्या 12 बतायी जाती है। आगे चलकर इनके 'उपांग' भी लिखे गये । आगमों के साथ-साथ जैन ग्रंथों में 10 प्रकीर्ण, 6 छंद सूत्र, एक नंदि सूत्र एक अनुयोगद्वार एवं चार मूलसूत्र हैं। इन आगम ग्रंथों की रचना सम्भवतः श्वेताम्बर सम्प्रदाय के आचार्यो द्वारा [[महावीर|महावीर स्वामी]] की मृत्यु के बाद की गयी। | ऐतिहसिक जानकारी हेतु [[जैन साहित्य]] भी [[बौद्ध साहित्य]] की ही तरह महत्त्वपूर्ण हैं। अब तक उपलब्ध जैन साहित्य [[प्राकृत]] एवं [[संस्कृत]] भाषा में मिलतें है। जैन साहित्य के विशेषज्ञ तथा अनुसन्धानपूर्ण लेखक [[अगरचन्द नाहटा]] थे। जैन साहित्य, जिसे ‘आगम‘ कहा जाता है, इनकी संख्या 12 बतायी जाती है। आगे चलकर इनके 'उपांग' भी लिखे गये । आगमों के साथ-साथ जैन ग्रंथों में 10 प्रकीर्ण, 6 छंद सूत्र, एक नंदि सूत्र एक अनुयोगद्वार एवं चार मूलसूत्र हैं। इन आगम ग्रंथों की रचना सम्भवतः [[श्वेताम्बर सम्प्रदाय]] के आचार्यो द्वारा [[महावीर|महावीर स्वामी]] की मृत्यु के बाद की गयी। | ||
*बारह आगम इस प्रकार हैं- | *बारह आगम इस प्रकार हैं- | ||
1. आचरांग सुत्त, 2. सूर्यकडंक, 3. थापंग, 4. समवायांग, 5. भगवतीसूत्र, 6. न्यायधम्मकहाओ, 7. उवासगदसाओं, 8. अन्तगडदसाओ, 9. अणुत्तरोववाइयदसाओं, | 1. आचरांग सुत्त, 2. सूर्यकडंक, 3. थापंग, 4. समवायांग, 5. भगवतीसूत्र, 6. न्यायधम्मकहाओ, 7. उवासगदसाओं, 8. अन्तगडदसाओ, 9. अणुत्तरोववाइयदसाओं, | ||
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* छेदसूत्र की संख्या 6 है- 1. निशीथ, 2. महानिशीथ, 3. व्यवहार, 4. आचारदशा, 5. कल्प और 6. पंचकल्प आदि। | * छेदसूत्र की संख्या 6 है- 1. निशीथ, 2. महानिशीथ, 3. व्यवहार, 4. आचारदशा, 5. कल्प और 6. पंचकल्प आदि। | ||
*एक नंदि सूत्र एवं एक अनुयोग द्वारा जैन धर्म अनुयायियों के स्वतंत्र ग्रंथ एवं विश्वकोष हैं। | *एक नंदि सूत्र एवं एक अनुयोग द्वारा जैन धर्म अनुयायियों के स्वतंत्र ग्रंथ एवं विश्वकोष हैं। | ||
*जैन साहित्य में [[पुराण|पुराणों]] का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है | *जैन साहित्य में [[पुराण|पुराणों]] का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है जिन्हें 'चरित' भी कहा जाता है। ये [[प्राकृत]], [[संस्कृत]] तथा [[अपभ्रंश भाषा|अपभ्रंश]] तीनों भाषाओं में लिखें गयें हैं। इनमें [[पउम चरिउ|पद्म पुराण]], [[रिट्ठिनेमि चरिउ|हरिवंश पुराण]], आदि पुराण, इत्यादि उल्लेखनीय हैं। जैन पुराणों का समय छठी शताब्दी से सोलहवीं-सत्रवहीं शताब्दी तक निर्धारित किया गया है। | ||
*जैन ग्रंथों में परिशिष्ट पर्व, भद्रबाहुचरित, आवश्यकसूत्र, आचारांगसूत्र, भगवतीसूत्र, कालिकापुराणा आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इनसे ऐतिहासिक घटनाओं की सूचना मिलती है। | *जैन ग्रंथों में परिशिष्ट पर्व, भद्रबाहुचरित, आवश्यकसूत्र, आचारांगसूत्र, भगवतीसूत्र, कालिकापुराणा आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इनसे ऐतिहासिक घटनाओं की सूचना मिलती है। | ||
भारतीय धर्मग्रन्थों में '[[पुराण]]' शब्द का प्रयोग इतिहास के अर्थ में आता है। कितने विद्वानों ने इतिहास और पुराण को पंचम [[वेद]] माना है। [[चाणक्य]] ने अपने अर्थशास्त्र में इतिवृत्त, पुराण, आख्यायिका, उदाहरण, धर्मशास्त्र तथा अर्थशास्त्र का समावेश किया है। इससे यह सिद्ध होता है कि इतिहास और पुराण दोनों ही विभिन्न हैं। इतिवृत्त का उल्लेख समान होने पर भी दोनों अपनी अपनी विशेषता रखते हैं। इतिहास जहाँ घटनाओं का वर्णन कर निर्वृत हो जाता है वहाँ पुराण उनके परिणाम की ओर पाठक का चित्त आकृष्ट करता है। | भारतीय धर्मग्रन्थों में '[[पुराण]]' शब्द का प्रयोग इतिहास के अर्थ में आता है। कितने विद्वानों ने इतिहास और पुराण को पंचम [[वेद]] माना है। [[चाणक्य]] ने अपने अर्थशास्त्र में इतिवृत्त, पुराण, आख्यायिका, उदाहरण, धर्मशास्त्र तथा अर्थशास्त्र का समावेश किया है। इससे यह सिद्ध होता है कि इतिहास और पुराण दोनों ही विभिन्न हैं। इतिवृत्त का उल्लेख समान होने पर भी दोनों अपनी अपनी विशेषता रखते हैं। इतिहास जहाँ घटनाओं का वर्णन कर निर्वृत हो जाता है वहाँ पुराण उनके परिणाम की ओर पाठक का चित्त आकृष्ट करता है। | ||
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जिसमें सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, [[मन्वन्तर]] और वंश-परम्पराओं का वर्णन हो, वह पुराण है। सर्ग, प्रतिसर्ग आदि पुराण के पाँच लक्षण हैं। तात्पर्य यह कि इतिवृत्त केवल घटित घटनाओं का उल्लेख करता है परन्तु पुराण महापुरुषों के घटित घटनाओं का उल्लेख करता हुआ उनसे प्राप्त फलाफल पुण्य-पाप का भी वर्णन करता है तथा व्यक्ति के चरित्र निर्माण की अपेक्षा बीच-बीच में नैतिक और धार्मिक शिक्षाओं का प्रदर्शन भी करता है। इतिवृत्त में जहाँ केवल वर्तमान की घटनाओं का उल्लेख रहता है वहाँ पुराण में नायक के अतीत और अनागत भवों का भी उल्लेख रहता है और वह इसलिये कि जनसाधारण समझ सके कि महापुरुष कैसे बना जा सकता है। अवनत से उन्नत बनने के लिये क्या-क्या त्याग, परोपकार और तपस्याएँ करनी पड़ती हैं। मानव के जीवन-निर्माण में पुराण का बड़ा ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। यही कारण है कि उसमें जनसाधारण की श्रद्धा आज भी यथापूर्व अक्षुण्ण है। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[जैन पुराण साहित्य]] | जिसमें सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, [[मन्वन्तर]] और वंश-परम्पराओं का वर्णन हो, वह पुराण है। सर्ग, प्रतिसर्ग आदि पुराण के पाँच लक्षण हैं। तात्पर्य यह कि इतिवृत्त केवल घटित घटनाओं का उल्लेख करता है परन्तु पुराण महापुरुषों के घटित घटनाओं का उल्लेख करता हुआ उनसे प्राप्त फलाफल पुण्य-पाप का भी वर्णन करता है तथा व्यक्ति के चरित्र निर्माण की अपेक्षा बीच-बीच में नैतिक और धार्मिक शिक्षाओं का प्रदर्शन भी करता है। इतिवृत्त में जहाँ केवल वर्तमान की घटनाओं का उल्लेख रहता है वहाँ पुराण में नायक के अतीत और अनागत भवों का भी उल्लेख रहता है और वह इसलिये कि जनसाधारण समझ सके कि महापुरुष कैसे बना जा सकता है। अवनत से उन्नत बनने के लिये क्या-क्या त्याग, परोपकार और तपस्याएँ करनी पड़ती हैं। मानव के जीवन-निर्माण में पुराण का बड़ा ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। यही कारण है कि उसमें जनसाधारण की श्रद्धा आज भी यथापूर्व अक्षुण्ण है। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[जैन पुराण साहित्य]] | ||
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[[जैन]] धर्म के अनुसार आध्यात्मिक विकास की पूर्णता हेतु श्रावक या गृहस्थधर्म (श्रावकाचार) पूर्वार्ध है और श्रमण या मुनिधर्म (श्रमणाचार) उत्तरार्ध। श्रमणधर्म की नींव गृहस्थ धर्म पर | [[जैन]] धर्म के अनुसार आध्यात्मिक विकास की पूर्णता हेतु श्रावक या गृहस्थधर्म (श्रावकाचार) पूर्वार्ध है और श्रमण या मुनिधर्म (श्रमणाचार) उत्तरार्ध। श्रमणधर्म की नींव गृहस्थ धर्म पर मज़बूत होती है। यहाँ गृहस्थ धर्म की महत्त्वपूर्ण भूमिका इसलिए भी है क्योंकि श्रावकाचार की भूमिका में एक सामान्य गृहस्थ त्याग और भोग-इन दोनों को समन्वयात्मक दृष्टि में रखकर आध्यात्मिक विकास में अग्रसर होता है। अत: प्रस्तुत प्रसंग में सर्वप्रथम श्रावकाचार का स्वरूप विवेचन आवश्यक है। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[जैन आचार-मीमांसा]] | ||
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*आचार्य वीरसेन स्वामी<ref>जयधवला, पृ0 1 प्रस्ता0 पृ0 72।</ref> ने धवला की पूर्णता<ref> | *आचार्य वीरसेन स्वामी<ref>जयधवला, पृ0 1 प्रस्ता0 पृ0 72।</ref> ने धवला की पूर्णता<ref>शक सं0 738</ref> के पश्चात् शौरसेनी प्राकृत भाषा में निबद्ध आचार्य गुणधर द्वारा विरचित कसायपाहुड<ref>कषाय प्राभृत</ref> की टीका जयधवला का कार्य आरंभ किया और जीवन के अंतिम सात वर्षों में उन्होंने उसका एक तिहाई भाग लिखा। तत्पश्चात् शक सं0 745 में उनके दिवंगत होने पर शेष दो तिहाई भाग उनके योग्यतम शिष्य जिनसेनाचार्य (शक सं0 700 से 760) ने पूरा किया। 21 वर्षों की सुदीर्घ ज्ञानसाधना की अवधि में यह लिखी जाकर शक सं0 759 में पूरी हुई। | ||
*आचार्य जिनसेन स्वामी ने सर्वप्रथम [[संस्कृत]] महाकाव्य पार्श्वाभ्युदय की रचना<ref> | *आचार्य जिनसेन स्वामी ने सर्वप्रथम [[संस्कृत]] महाकाव्य पार्श्वाभ्युदय की रचना<ref>शक सं0 700</ref> में की थी। इनकी दूसरी प्रसिद्ध कृति 'महापुराण' है। उसके पूर्वभाग-'आदिपुराण' के 42 सर्ग ही वे बना पाए थे और दिवंगत हो गए। शेष की पूर्ति उनके शिष्य गुणभद्राचार्य ने की।<ref>तदेव पु0 1, पृ0 73 ।</ref> आगे विस्तार में पढ़ें:- [[जयधवल टीका]] | ||
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*गोम्मटसार के अच्छे ज्ञाता थे। इनका कन्नड़ तथा संस्कृत दोनों पर समान अधिकार है। यदि इन्होंने केशववर्णी की टीका को संस्कृत रूप नहीं दिया होता तो पं. टोडरमल जी हिन्दी में लिखी गई अपनी सम्यग्ज्ञानचंद्रिका नहीं लिख पाते। | *गोम्मटसार के अच्छे ज्ञाता थे। इनका कन्नड़ तथा संस्कृत दोनों पर समान अधिकार है। यदि इन्होंने केशववर्णी की टीका को संस्कृत रूप नहीं दिया होता तो पं. टोडरमल जी हिन्दी में लिखी गई अपनी सम्यग्ज्ञानचंद्रिका नहीं लिख पाते। | ||
*ये नेमिचन्द्र गणित के भी विशेषज्ञ थे। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[जीवतत्त्व प्रदीपिका]] | *ये नेमिचन्द्र गणित के भी विशेषज्ञ थे। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[जीवतत्त्व प्रदीपिका]] | ||
*जैन साहित्य के क्षेत्र में जैन साध्वी पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने बीसवीं सदी में एक कीर्तिमान उपस्थित किया है। उन्होंने न्याय- व्याकरण- छंद -अलंकार- सिद्धान्त- अध्यात्म- काव्य- पूजन आदि सभी प्रकार का साहित्य रचा है। उनकी 250 से अधिक पुस्तकें जम्बूद्वीप - [[हस्तिनापुर]] से प्रकाशित हुई हैं। षट्खण्डागम ग्रंथों पर उन्होंने 16 पुस्तकों की सिद्धांतचिन्तामणि नामक संस्कृत टीका लिखकर आचार्य श्री वीरसेनस्वामी की याद को ताज़ा कर दिया है। वर्तमान युग में [[संस्कृत]] टीका लिखने वाली मात्र एक ही साध्वी हैं। इन ग्रंथों की [[हिन्दी]] टीका उनकी शिष्या प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी ने किया है, जिनकी 10 पुस्तकें छप चुकी हैं। उन्हें मँगाकर आप स्वाध्याय कर सकते हैं। संस्कृत की सोलहों पुस्तकें छप चुकी हैं। | |||
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*महावीर जी के बाद भी कई शताब्दियों तक उन्हें लिपिबद्ध नहीं किया गया था। | *महावीर जी के बाद भी कई शताब्दियों तक उन्हें लिपिबद्ध नहीं किया गया था। | ||
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जैन पुराण साहित्य
ऐतिहसिक जानकारी हेतु जैन साहित्य भी बौद्ध साहित्य की ही तरह महत्त्वपूर्ण हैं। अब तक उपलब्ध जैन साहित्य प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में मिलतें है। जैन साहित्य के विशेषज्ञ तथा अनुसन्धानपूर्ण लेखक अगरचन्द नाहटा थे। जैन साहित्य, जिसे ‘आगम‘ कहा जाता है, इनकी संख्या 12 बतायी जाती है। आगे चलकर इनके 'उपांग' भी लिखे गये । आगमों के साथ-साथ जैन ग्रंथों में 10 प्रकीर्ण, 6 छंद सूत्र, एक नंदि सूत्र एक अनुयोगद्वार एवं चार मूलसूत्र हैं। इन आगम ग्रंथों की रचना सम्भवतः श्वेताम्बर सम्प्रदाय के आचार्यो द्वारा महावीर स्वामी की मृत्यु के बाद की गयी।
- बारह आगम इस प्रकार हैं-
1. आचरांग सुत्त, 2. सूर्यकडंक, 3. थापंग, 4. समवायांग, 5. भगवतीसूत्र, 6. न्यायधम्मकहाओ, 7. उवासगदसाओं, 8. अन्तगडदसाओ, 9. अणुत्तरोववाइयदसाओं, 10. पण्हावागरणिआई, 11. विवागसुयं, और 12 द्विट्ठिवाय।
- इन आगम ग्रंथो के 'आचरांगसूत्त' से जैन भिक्षुओं के विधि-निषेधों एवं आचार-विचारों का विवरण एवं 'भगवतीसूत्र' से महावीर स्वामी के जीवन-शिक्षाओं आदि के बारे में उपयुक्त जानकारी मिलती है, जो इस प्रकार हैं- 1. औपपातिक, 2. राजप्रश्नीय, 3. जीवाभिगम, 4. प्रज्ञापणा, 5. सूर्यप्रज्ञप्ति, 6. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, 7. चन्दप्रज्ञप्ति, 8. निर्यावलिका, 9. कल्पावंतसिका, 10. पुष्पिका, 11. पुष्पचूलिका और 12. वृष्णिदशा।
- आगम ग्रंन्थों के अतिरिक्त 10 प्रकीर्ण इस प्रकार हैं- 1. चतुःशरण, 2. आतुर प्रत्याख्यान, 3. भक्तिपरीज्ञा, 4. संस्तार, 5. तांदुलवैतालिक, 6. चंद्रवेध्यक, 7. गणितविद्या, 8. देवेन्द्रस्तव, 9. वीरस्तव और 10.महाप्रत्याख्यान।
- छेदसूत्र की संख्या 6 है- 1. निशीथ, 2. महानिशीथ, 3. व्यवहार, 4. आचारदशा, 5. कल्प और 6. पंचकल्प आदि।
- एक नंदि सूत्र एवं एक अनुयोग द्वारा जैन धर्म अनुयायियों के स्वतंत्र ग्रंथ एवं विश्वकोष हैं।
- जैन साहित्य में पुराणों का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है जिन्हें 'चरित' भी कहा जाता है। ये प्राकृत, संस्कृत तथा अपभ्रंश तीनों भाषाओं में लिखें गयें हैं। इनमें पद्म पुराण, हरिवंश पुराण, आदि पुराण, इत्यादि उल्लेखनीय हैं। जैन पुराणों का समय छठी शताब्दी से सोलहवीं-सत्रवहीं शताब्दी तक निर्धारित किया गया है।
- जैन ग्रंथों में परिशिष्ट पर्व, भद्रबाहुचरित, आवश्यकसूत्र, आचारांगसूत्र, भगवतीसूत्र, कालिकापुराणा आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इनसे ऐतिहासिक घटनाओं की सूचना मिलती है।
भारतीय धर्मग्रन्थों में 'पुराण' शब्द का प्रयोग इतिहास के अर्थ में आता है। कितने विद्वानों ने इतिहास और पुराण को पंचम वेद माना है। चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र में इतिवृत्त, पुराण, आख्यायिका, उदाहरण, धर्मशास्त्र तथा अर्थशास्त्र का समावेश किया है। इससे यह सिद्ध होता है कि इतिहास और पुराण दोनों ही विभिन्न हैं। इतिवृत्त का उल्लेख समान होने पर भी दोनों अपनी अपनी विशेषता रखते हैं। इतिहास जहाँ घटनाओं का वर्णन कर निर्वृत हो जाता है वहाँ पुराण उनके परिणाम की ओर पाठक का चित्त आकृष्ट करता है।
सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च।
वंशानुचरितान्येव पुराणं पंचलक्षणम्॥
जिसमें सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर और वंश-परम्पराओं का वर्णन हो, वह पुराण है। सर्ग, प्रतिसर्ग आदि पुराण के पाँच लक्षण हैं। तात्पर्य यह कि इतिवृत्त केवल घटित घटनाओं का उल्लेख करता है परन्तु पुराण महापुरुषों के घटित घटनाओं का उल्लेख करता हुआ उनसे प्राप्त फलाफल पुण्य-पाप का भी वर्णन करता है तथा व्यक्ति के चरित्र निर्माण की अपेक्षा बीच-बीच में नैतिक और धार्मिक शिक्षाओं का प्रदर्शन भी करता है। इतिवृत्त में जहाँ केवल वर्तमान की घटनाओं का उल्लेख रहता है वहाँ पुराण में नायक के अतीत और अनागत भवों का भी उल्लेख रहता है और वह इसलिये कि जनसाधारण समझ सके कि महापुरुष कैसे बना जा सकता है। अवनत से उन्नत बनने के लिये क्या-क्या त्याग, परोपकार और तपस्याएँ करनी पड़ती हैं। मानव के जीवन-निर्माण में पुराण का बड़ा ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। यही कारण है कि उसमें जनसाधारण की श्रद्धा आज भी यथापूर्व अक्षुण्ण है। आगे विस्तार में पढ़ें:- जैन पुराण साहित्य
जैन आचार-मीमांसा
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जैन धर्म के अनुसार आध्यात्मिक विकास की पूर्णता हेतु श्रावक या गृहस्थधर्म (श्रावकाचार) पूर्वार्ध है और श्रमण या मुनिधर्म (श्रमणाचार) उत्तरार्ध। श्रमणधर्म की नींव गृहस्थ धर्म पर मज़बूत होती है। यहाँ गृहस्थ धर्म की महत्त्वपूर्ण भूमिका इसलिए भी है क्योंकि श्रावकाचार की भूमिका में एक सामान्य गृहस्थ त्याग और भोग-इन दोनों को समन्वयात्मक दृष्टि में रखकर आध्यात्मिक विकास में अग्रसर होता है। अत: प्रस्तुत प्रसंग में सर्वप्रथम श्रावकाचार का स्वरूप विवेचन आवश्यक है। आगे विस्तार में पढ़ें:- जैन आचार-मीमांसा
गोम्मट पंजिका
- REDIRECTसाँचा:मुख्य
- आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती (10वीं शती) द्वारा प्राकृत भाषा में लिखित गोम्मटसार पर सर्वप्रथम लिखी गई यह एक संस्कृत पंजिका टीका है।
- इसका उल्लेख उत्तरवर्ती आचार्य अभयचन्द्र ने अपनी मन्दप्रबोधिनी टीका में किया है।[1]
- इस पंजिका की एकामात्र उपलब्ध प्रति (सं0 1560) पं. परमानन्द जी शास्त्री के पास रही।
- इस टीका का प्रमाण पाँच हज़ार श्लोक है।
- इस प्रति में कुल पत्र 98 हैं। आगे विस्तार में पढ़ें:- गोम्मट पंजिका
गोम्मटसार जीवतत्त्व प्रदीपिका
- यह टीका केशववर्णी द्वारा रचित है।
- उन्होंने इसे संस्कृत और कन्नड़ दोनों भाषाओं में लिखा है।
- जैसे वीरसेन स्वामी ने अपनी संस्कृत प्राकृत मिश्रित धवला टीका द्वारा षट्खंडागम के रहस्यों का उद्घाटन किया है उसी प्रकार केशववर्णी ने भी अपनी इस जीवतत्त्व प्रदीपिका द्वारा जीवकाण्ड के रहस्यों का उद्घाटन कन्नड़ मिश्रित संस्कृत में किया है। आगे विस्तार में पढ़ें:- गोम्मटसार जीवतत्त्व प्रदीपिका
जयधवल टीका
- REDIRECTसाँचा:मुख्य
- आचार्य वीरसेन स्वामी[2] ने धवला की पूर्णता[3] के पश्चात् शौरसेनी प्राकृत भाषा में निबद्ध आचार्य गुणधर द्वारा विरचित कसायपाहुड[4] की टीका जयधवला का कार्य आरंभ किया और जीवन के अंतिम सात वर्षों में उन्होंने उसका एक तिहाई भाग लिखा। तत्पश्चात् शक सं0 745 में उनके दिवंगत होने पर शेष दो तिहाई भाग उनके योग्यतम शिष्य जिनसेनाचार्य (शक सं0 700 से 760) ने पूरा किया। 21 वर्षों की सुदीर्घ ज्ञानसाधना की अवधि में यह लिखी जाकर शक सं0 759 में पूरी हुई।
- आचार्य जिनसेन स्वामी ने सर्वप्रथम संस्कृत महाकाव्य पार्श्वाभ्युदय की रचना[5] में की थी। इनकी दूसरी प्रसिद्ध कृति 'महापुराण' है। उसके पूर्वभाग-'आदिपुराण' के 42 सर्ग ही वे बना पाए थे और दिवंगत हो गए। शेष की पूर्ति उनके शिष्य गुणभद्राचार्य ने की।[6] आगे विस्तार में पढ़ें:- जयधवल टीका
जीवतत्त्व प्रदीपिका
- REDIRECTसाँचा:मुख्य
- यह नेमिचन्द्रकृत चतुर्थ टीका है।
- तीसरी टीका की तरह इसका नाम भी जीवतत्त्व प्रदीपिका है।
- यह केशववर्णी की कर्नाटकवृत्ति में लिखी गई संस्कृत मिश्रित जीवतत्त्व प्रदीपिका का ही संस्कृत रूपान्तर है।
- इसके रचयिता नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती से भिन्न और उत्तरवर्ती नेमिचन्द्र हैं।
- ये नेमिचन्द्र ज्ञानभूषण के शिष्य थे।
- गोम्मटसार के अच्छे ज्ञाता थे। इनका कन्नड़ तथा संस्कृत दोनों पर समान अधिकार है। यदि इन्होंने केशववर्णी की टीका को संस्कृत रूप नहीं दिया होता तो पं. टोडरमल जी हिन्दी में लिखी गई अपनी सम्यग्ज्ञानचंद्रिका नहीं लिख पाते।
- ये नेमिचन्द्र गणित के भी विशेषज्ञ थे। आगे विस्तार में पढ़ें:- जीवतत्त्व प्रदीपिका
- जैन साहित्य के क्षेत्र में जैन साध्वी पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने बीसवीं सदी में एक कीर्तिमान उपस्थित किया है। उन्होंने न्याय- व्याकरण- छंद -अलंकार- सिद्धान्त- अध्यात्म- काव्य- पूजन आदि सभी प्रकार का साहित्य रचा है। उनकी 250 से अधिक पुस्तकें जम्बूद्वीप - हस्तिनापुर से प्रकाशित हुई हैं। षट्खण्डागम ग्रंथों पर उन्होंने 16 पुस्तकों की सिद्धांतचिन्तामणि नामक संस्कृत टीका लिखकर आचार्य श्री वीरसेनस्वामी की याद को ताज़ा कर दिया है। वर्तमान युग में संस्कृत टीका लिखने वाली मात्र एक ही साध्वी हैं। इन ग्रंथों की हिन्दी टीका उनकी शिष्या प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी ने किया है, जिनकी 10 पुस्तकें छप चुकी हैं। उन्हें मँगाकर आप स्वाध्याय कर सकते हैं। संस्कृत की सोलहों पुस्तकें छप चुकी हैं।
आगम
- REDIRECTसाँचा:मुख्य
- भगवान महावीर के उपदेश जैन धर्म के मूल सिद्धान्त हैं, जिन्हें 'आगम' कहा जाता है।
- वे अर्धमागधी प्राकृत भाषा में हैं । उन्हें आचारांगादि बारह 'अंगों' में संकलित किया गया, जो 'द्वादशंग आगम' कहे जाते हैं।
- वैदिक संहिताओं की भाँति जैन आगम भी पहले श्रुत रूप में ही थे।
- महावीर जी के बाद भी कई शताब्दियों तक उन्हें लिपिबद्ध नहीं किया गया था।
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