उर्मिला (महाकाव्य): Difference between revisions
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* उर्मिला का विरह अवश्य कवि की प्रकृति के अनुकूल था और कला की दृष्टि से सबसे सरस एवं प्रौढ़ अंश वही है। अत्यन्त विलम्ब से प्रकाशित होने के कारण सम्यक् ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में इस ग्रन्थ का मूल्यांकन नहीं हो सका है। यह विलम्ब उनकी सभी कृतियों के प्रकाशन में हुआ है। | * उर्मिला का विरह अवश्य कवि की प्रकृति के अनुकूल था और कला की दृष्टि से सबसे सरस एवं प्रौढ़ अंश वही है। अत्यन्त विलम्ब से प्रकाशित होने के कारण सम्यक् ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में इस ग्रन्थ का मूल्यांकन नहीं हो सका है। यह विलम्ब उनकी सभी कृतियों के प्रकाशन में हुआ है। | ||
*उर्मिला और लक्ष्मण का पारस्परिक प्रेम एक-दूसरे को पूर्णता की ओर अग्रसर करता है। इस युगल का प्रेम शुद्ध, सात्विक और आत्मिक है। उसमें कहीं उच्छृंखलता, विलासिता और पार्थिवता की दुर्गन्ध नहीं है। तभी तो संयोग की अपूर्व वेला में उर्मिला लक्ष्मण से पूछती है कि- | |||
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चित्र:Disamb2.jpg उर्मिला | एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- उर्मिला (बहुविकल्पी) |
उर्मिला हिंदी साहित्य के प्रमुख महाकाव्यों में शामिल प्रसिद्ध रचना है जिसकी रचना बालकृष्ण शर्मा नवीन की है।
- महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा ने ही कवियों की चिर-उपेक्षिता 'उर्मिला' का लेखन उनसे 1921 ई. में प्रारम्भ कराया, जो पूरा सन् 1934 ई. में हुआ एवं प्रकाशित सन् 1957 ई. में हुआ।
- इस काव्य में द्विवेदी युग की इतिवृत्तात्मकता, स्थूल नैतिकता या प्रयोजन (जैसे राम वनगमन को आर्य संस्कृति का प्रसार मानना) स्पष्ट देखे जा सकते हैं, परन्तु मूलत: स्वच्छन्दतावादी गीतितत्वप्रधान 'नवीन' का यह प्रयास प्रबन्धत्व की दृष्टि से बहुत सफल नहीं कहा जा सकता।
- छ: सर्गों वाले इस महाकाव्य ग्रन्थ में उर्मिला के जन्म से लेकर लक्ष्मण से पुनर्मिलन तक की कथा कही गयी है, पर वर्णन प्रधान कथा के मार्मिक स्थलों की न तो उन्हें पहचान है और न राम-सीता के विराट व्यक्तित्व के आगे लक्ष्मण-उर्मिला बहुत उभर ही सके हैं।
- उर्मिला का विरह अवश्य कवि की प्रकृति के अनुकूल था और कला की दृष्टि से सबसे सरस एवं प्रौढ़ अंश वही है। अत्यन्त विलम्ब से प्रकाशित होने के कारण सम्यक् ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में इस ग्रन्थ का मूल्यांकन नहीं हो सका है। यह विलम्ब उनकी सभी कृतियों के प्रकाशन में हुआ है।
- उर्मिला और लक्ष्मण का पारस्परिक प्रेम एक-दूसरे को पूर्णता की ओर अग्रसर करता है। इस युगल का प्रेम शुद्ध, सात्विक और आत्मिक है। उसमें कहीं उच्छृंखलता, विलासिता और पार्थिवता की दुर्गन्ध नहीं है। तभी तो संयोग की अपूर्व वेला में उर्मिला लक्ष्मण से पूछती है कि-
प्रेम के शुद्ध रूप कहो- सम्मिलन है प्रधान या गौण?
कौन ऊँचा है? भावोद्रेक? या कि नत आत्मनिवेदन मौन?[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ उर्मिला, डॉ. बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ पृ 135
बाहरी कड़ियाँ
संबंधित लेख