गुरु दत्त: Difference between revisions
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Revision as of 10:02, 30 June 2011
गुरु दत्त
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पूरा नाम | गुरुदत्त |
जन्म | 9 जुलाई 1925 |
जन्म भूमि | बंगलोर, कर्नाटक |
मृत्यु | 10 अक्तूबर 1964 (आत्महत्या) |
मृत्यु स्थान | बंबई {वर्तमान मुंबई}, महाराष्ट्र |
कर्म भूमि | मुंबई |
कर्म-क्षेत्र | अभिनेता, निर्माता व निर्देशक |
मुख्य फ़िल्में | प्यासा (1957), काग़ज़ के फूल (1959) और साहब, बीबी और गुलाम (1962), चौदहवीं का चाँद |
प्रसिद्धि | इनकी फ़िल्मों में कैमरा और प्रकाश व्यवस्था |
नागरिकता | भारतीय |
गुरुदत्त (जन्म- 9 जुलाई 1925, बंगलोर, कर्नाटक, भारत; मृत्यु- 10 अक्तूबर 1964, बंबई {वर्तमान मुंबई}, महाराष्ट्र), हिंदी सिनेमा के निर्देशक तथा अभिनेता थे।
फ़िल्मी सफ़र
कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में शिक्षा प्राप्त करने के बाद दत्त ने अल्मोड़ा स्थित उदय शंकर की नृत्य अकादमी में प्रशिक्षण प्राप्त किया और उसके बाद कलकत्ता में टेलीफ़ोन ऑपरेटर का काम करने लगे। बाद में वह पुणे (भूतपूर्व पूना) चले गए और प्रभात स्टूडियो से जुड़ गए, जहाँ उन्होंने पहले अभिनेता और फिर नृत्य-निर्देशक के रूप में काम किया। उनकी पहली फ़ीचर फ़िल्म बाज़ी (1951) देवानंद की नवकेतन फ़िल्म्स के बैनर तले बनी थी। इसके बाद उनकी दूसरी सफल फ़िल्म जाल (1952) बनी, जिसमें वही सितारे (देवानंद और गीता बाली) शामिल थे। इसके बाद गुरूदत्त ने बाज़ (1953) फ़िल्म के निर्माण के लिए अपनी प्रोडक्शन कंपनी शुरू की। हालांकि उन्होंने अपने संक्षिप्त, किंतु प्रतिभासंपन्न पेशेवर जीवन में कई शैलियों में प्रयोग किया, लेकिन उनकी प्रतिभा का सर्वश्रेष्ठ रूप उत्कट भावुकतापूर्ण फ़िल्मों में प्रदर्शित हुआ।
- प्रसिद्धि का स्रोत
मुख्य रूप से दत्त की प्रसिद्धि का स्रोत बारीकी से गढ़ी गई, उदास व चिंतन भरी उनकी तीन बेहतरीन फ़िल्में हैं- प्यासा (1957), काग़ज़ के फूल (1959) और साहब, बीबी और गुलाम (1962)। हालांकि साहब, बीबी और गुलाम का श्रेय उनके सह पटकथा लेखक अबरार अल्वी को दिया जाता है, लेकिन यह स्पष्ट रूप से गुरूदत्त की कृति थी। गुरूदत्त ने सी.आई.डी. से वहीदा रहमान का फ़िल्म जगत में परिचय कराया और फिर प्यास तथा काग़ज़ के फूल जैसी फ़िल्मों से उन्हे कीर्तिस्तंभ की तरह स्थापित कर दिया। प्रकाश और छाया के कल्पनाशील उपयोग, भावपूर्ण दृश्यबिंब, कथा में कई विषय- वस्तुओं की परतें गूंथने की अद्भुत क्षमता और गीतों के मंत्रमुग्धकारी छायांकन ने उन्हें भारतीय सिनेमा के सबसे निपूण शैलीकारों में ला खड़ा किया।
निधन
शराब की लत से लंबे समय तक जूझने के बाद 1964 में उन्होंने आत्महत्या कर ली और इस प्रकार एक प्रतिभाशाली जीवन का असमय अंत हो गया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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