गायत्री: Difference between revisions
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*प्रात:काल ये सूर्यमण्डल के मध्य में विराजमान रहती है। उस समय इनके शरीर का रंग लाल रहता है। ये अपने दो हाथों में क्रमश: अक्षसूत्र और कमण्डलु धारण करती हैं। इनका वाहन हंस है तथा इनकी कुमारी अवस्था है। इनका यही स्वरूप ब्रह्मशक्ति गायत्री के नाम से प्रसिद्ध है। इसका वर्णन [[ॠग्वेद]] में प्राप्त होता है। | *प्रात:काल ये सूर्यमण्डल के मध्य में विराजमान रहती है। उस समय इनके शरीर का रंग लाल रहता है। ये अपने दो हाथों में क्रमश: अक्षसूत्र और कमण्डलु धारण करती हैं। इनका वाहन हंस है तथा इनकी कुमारी अवस्था है। इनका यही स्वरूप ब्रह्मशक्ति गायत्री के नाम से प्रसिद्ध है। इसका वर्णन [[ॠग्वेद]] में प्राप्त होता है। | ||
*मध्याह्न काल में इनका युवा स्वरूप है। इनकी चार भुजाएँ और तीन नेत्र हैं। इनके चारों हाथों में क्रमश: शंख, चक्र, [[गदा]] और पद्म शोभा पाते हैं। इनका वाहन गरूड है। गायत्री का यह स्वरूप वैष्णवी शक्ति का परिचायक है। इस स्वरूप को सावित्री भी कहते हैं। इसका वर्णन [[यजुर्वेद]] में मिलता है। | *मध्याह्न काल में इनका युवा स्वरूप है। इनकी चार भुजाएँ और तीन नेत्र हैं। इनके चारों हाथों में क्रमश: शंख, चक्र, [[गदा]] और पद्म शोभा पाते हैं। इनका वाहन गरूड है। गायत्री का यह स्वरूप वैष्णवी शक्ति का परिचायक है। इस स्वरूप को सावित्री भी कहते हैं। इसका वर्णन [[यजुर्वेद]] में मिलता है। | ||
*सायं काल में गायत्री की अवस्था वृद्धा मानी गयी है। इनका वाहन वृषभ है तथा शरीर का वर्ण शुक्ल है। ये अपने चारों हाथों में क्रमश: त्रिशूल, डमरू, पाश और पात्र धारण करती हैं। यह रुद्र शक्ति की परिचायिका हैं इसका वर्णन [[सामवेद]] में प्राप्त होता है। | *सायं काल में गायत्री की अवस्था वृद्धा मानी गयी है। इनका वाहन वृषभ है तथा शरीर का वर्ण शुक्ल है। ये अपने चारों हाथों में क्रमश: त्रिशूल, [[डमरू]], पाश और पात्र धारण करती हैं। यह रुद्र शक्ति की परिचायिका हैं इसका वर्णन [[सामवेद]] में प्राप्त होता है। | ||
==ब्रह्मस्वरूपा गायत्री== | ==ब्रह्मस्वरूपा गायत्री== |
Revision as of 10:57, 25 May 2011
भगवती श्री गायत्री
thumb|200px|गायत्री देवी
Gayatri Devi
- भगवती गायत्री आद्याशक्ति प्रकृति के पाँच स्वरूपों में एक मानी गयी हैं। इनका विग्रह तपाये हुए स्वर्ण के समान है। यही वेद माता कहलाती हैं। वास्तव में भगवती गायत्री नित्यसिद्ध परमेश्वरी हैं। किसी समय ये सविता की पुत्री के रूप में अवतीर्ण हुई थीं, इसलिये इनका नाम सावित्री पड़ गया।
- कहते हैं कि सविता के मुख से इनका प्रादुर्भाव हुआ था। भगवान सूर्य ने इन्हें ब्रह्माजी को समर्पित कर दिया। तभी से इनकी ब्रह्माणी संज्ञा हुई।
- कहीं-कहीं सावित्री और गायत्री के पृथक्-पृथक् स्वरूपों का भी वर्णन मिलता है। इन्होंने ही प्राणों का त्राण किया था, इसलिये भी इनका गायत्री नाम प्रसिद्ध हुआ।
- उपनिषदों में भी गायत्री और सावित्री की अभिन्नता का वर्णन है- गायत्रीमेव सावित्रीमनुब्रूयात्।
- गायत्री ज्ञान-विज्ञान की मूर्ति हैं। ये द्विजाति मात्र की आराध्या देवी हैं। इन्हें परब्रह्मस्वरूपिणी कहा गया है। वेदों, उपनिषदों और पुराणादि में इनकी विस्तृत महिमा का वर्णन मिलता है।
उपासना
गायत्री की उपासना तीनों कालों में की जाती है, प्रात: मध्याह्न और सायं। तीनों कालों के लिये इनका पृथक्-पृथक् ध्यान है।
- प्रात:काल ये सूर्यमण्डल के मध्य में विराजमान रहती है। उस समय इनके शरीर का रंग लाल रहता है। ये अपने दो हाथों में क्रमश: अक्षसूत्र और कमण्डलु धारण करती हैं। इनका वाहन हंस है तथा इनकी कुमारी अवस्था है। इनका यही स्वरूप ब्रह्मशक्ति गायत्री के नाम से प्रसिद्ध है। इसका वर्णन ॠग्वेद में प्राप्त होता है।
- मध्याह्न काल में इनका युवा स्वरूप है। इनकी चार भुजाएँ और तीन नेत्र हैं। इनके चारों हाथों में क्रमश: शंख, चक्र, गदा और पद्म शोभा पाते हैं। इनका वाहन गरूड है। गायत्री का यह स्वरूप वैष्णवी शक्ति का परिचायक है। इस स्वरूप को सावित्री भी कहते हैं। इसका वर्णन यजुर्वेद में मिलता है।
- सायं काल में गायत्री की अवस्था वृद्धा मानी गयी है। इनका वाहन वृषभ है तथा शरीर का वर्ण शुक्ल है। ये अपने चारों हाथों में क्रमश: त्रिशूल, डमरू, पाश और पात्र धारण करती हैं। यह रुद्र शक्ति की परिचायिका हैं इसका वर्णन सामवेद में प्राप्त होता है।
ब्रह्मस्वरूपा गायत्री
[[चित्र:Gayatri Tapobhumi Mathura 2.jpg|गायत्री तपोभूमि, मथुरा
Gayatri Tapobhumi, Mathura|thumb|250px]]
इस प्रकार गायत्री, सावित्री और सरस्वती एक ही ब्रह्मशक्ति के नाम हैं। इस संसार में सत-असत जो कुछ हैं, वह सब ब्रह्मस्वरूपा गायत्री ही हैं। भगवान व्यास कहते हैं- 'जिस प्रकार पुष्पों का सार मधु, दूध का सार घृत और रसों का सार पय है, उसी प्रकार गायत्री मन्त्र समस्त वेदों का सार है। गायत्री वेदों की जननी और पाप-विनाशिनी हैं, गायत्री-मन्त्र से बढ़कर अन्य कोई पवित्र मन्त्र पृथ्वी पर नहीं है।
गायत्री-मन्त्र ऋक्, यजु, साम, काण्व, कपिष्ठल, मैत्रायणी, तैत्तिरीय आदि सभी वैदिक संहिताओं में प्राप्त होता है, किन्तु सर्वत्र एक ही मिलता है। इसमें चौबीस अक्षर हैं। मन्त्र का मूल स्वरूप इस प्रकार है-
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।[1] अर्थात् 'सृष्टिकर्ता प्रकाशमान परमात्मा के प्रसिद्ध पवणीय तेज़ का (हम) ध्यान करते हैं, वे परमात्मा हमारी बुद्धि को (सत् की ओर) प्रेरित करें।
गायत्री भाष्य
याज्ञवल्क्य आदि ऋषियों ने जिस गायत्री भाष्य की रचना की है वह इन चौबीस अक्षरों की विस्तृत व्याख्या है। इस महामन्त्र के द्रष्टा महर्षि विश्वामित्र हैं। गायत्री-मन्त्र के चौबीस अक्षर तीन पदों में विभक्त हैं। अत: यह त्रिपदा गायत्री कहलाती है। गायत्री दैहिक, दैविक, भौतिक त्रिविध तापहन्त्री एवं परा विद्या की स्वरूपा हैं। यद्यपि गायत्री के अनेक रूप हैं। परन्तु शारदातिलक के अनुसार इनका मुख्य ध्यान इस प्रकार है- भगवती गायत्री के पाँच मुख हैं, जिन पर मुक्ता, वैदूर्य, हेम, नीलमणि तथा धवल वर्ण की आभा सुशोभित है, त्रिनेत्रों वाली ये देवी चन्द्रमा से युक्त रत्नों का मुकुट धारण करती हैं तथा आत्मतत्त्व की प्रकाशिका हैं। ये कमल के आसन पर आसीन होकर रत्नों के आभूषण धारण करती हैं। इनके दस हाथों में क्रमश: शंख, चक्र, कमलयुग्म, वरद तथा अभयमुद्रा, कोड़ा, अंकुश, शुभ्र कपाल और रुद्राक्ष की माला सुशोभित है। ऐसी भगवती गायत्री का हम भजन करते हैं।
- REDIRECTसाँचा:इन्हें भी देखें
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (वाजसनेयी सं0 3।35)
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