अकाली: Difference between revisions
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अकाली का अर्थ है 'अमरणशील' जो 'अकाल पुरुष' शब्द से लिया गया है। अकाली सैनिक साधुओं का पंथ है, जिसकी स्थापना सन् 1690 ई. में हुई। उपर्युक्त नवों सिक्ख सम्प्रदान नानकशाही 'पंजग्रन्थी' से प्रार्थना आदि करते हैं। 'जपुजी', 'रहरास', 'सोहिला', 'सुखमनी' एवं 'आसा-दी-वार' का संग्रह ही 'पंजग्रन्थी' है।
सिक्खों में 'सहिजधारी' और 'सिंह' दो विभाग हैं। सहिजधारी वे हैं, जो विशेष रूप या बाना नहीं धारण करते। इनकी नानकपंथी, उदासी, हन्दाली, मीन, रामरंज और सेवापंथी छ: शाखाएँ हैं। सिंह लोगों के तीन पंथ हैं-
- खालसा, जिसे गुरु गोविन्द सिंह ने चलाया।
- निर्मल, जिसे वीरसिंह ने चलाया
- अकाली, जिसे मानसिंह ने चलाया।
अकाली सम्प्रदाय
अकाली सम्प्रदाय दूसरे सिक्ख सम्प्रदायों से भिन्न है। क्योंकि नागा तथा गोसाइयों की तरह इनका यह सैनिक संगठन है। इसके संस्थापक मूलत: स्वयं गुरु गोविन्द सिंह थे। अकाली नीली धारीदार पोशाक पहनते हैं, कलाई पर लोहे का कड़ा, ऊँची तिकोनी नीली पगड़ी में तेज़ धारवाला लोहचक्र, कटार, छुरी तथा लोहे की जंजीर धारण करते हैं।
सैनिक की हैसियत से अकाली 'निहंग' कहे जाते हैं। जिसका अर्थ है 'अनियंत्रित'। सिक्खों के इतिहास में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। सन् 1818 में मुट्ठीभर अकालियों ने मुल्तान पर घेरा डाला तथा उस पर विजय प्राप्त की। फूलसिंह का चरित्र अकालियों के पराक्रम पर प्रकाश डालता है। फूलसिंह ने पहले-पहल अकालियों के नेता के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त की, जब उसने लॉर्ड मेटकॉफ़ के अंगरक्षकों पर हमला बोल दिया था। फिर वह रणजीत सिंह की सेवा में आ गया। फूलसिंह के नेतृत्व में अकालियों ने सन् 1823 में यूसुफ़जइयों (पठानों) पर रणजीत सिंह को विजय दिलवायी। इस युद्ध में फूलसिंह को वीरगति प्राप्त हुई। उसका स्मारक नौशेरा में बना हुआ है। जो हिन्दू एवं मुसलमान तीर्थयात्रियों के लिए समान श्रद्धा का स्थान है।
अकालियों का मुख्य कार्यालय अमृतसर में 'अकाल बुंगा' है। जो |सिक्खों के कई पूज्य सिंहासनों में से एक है। अकाली लोग धार्मिक कृत्यों का निर्देश वहीं से ग्रहण करते हैं। ये अपने को खालसों का नेता समझते हैं। रणजीत सिंह के राज्यकाल में इनका मुख्य कार्यालय आनन्दपुर हो गया था, किन्तु अब इनका प्रभाव बहुत कम पड़ गया है।
अकाली संघ के सदस्य ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। उनका कोई नियमित मुखिया या शिष्य नहीं होता, किन्तु फिर भी वे अपने गुरु की आज्ञा का पालन करते हैं। गुरु की जूठन चेले (शिष्य) प्रसाद के रूप में खाते हैं। वे दूसरे सिक्खों की तरह मांस एवं मदिरा का सेवन नहीं करते हैं। किन्तु भाँग का सेवन अधिक मात्रा में करते हैं।
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