चैतन्य चरितावली: Difference between revisions
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'''श्री श्री चैतन्य चरितावली''' प्रसिद्ध [[प्रभुदत्त ब्रह्मचारी|संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी]] द्वारा रचित है। इसका प्रकाशन गीता प्रेस द्वारा किया गया था। यह बहुत पुराना संस्करण ([[1930]]-[[1935]]) है। यह पाँच भागों में है। सभी एक साथ हैं, परन्तु इसका प्रथम भाग थोड़ा अस्पष्ट है। आगे के सभी भाग अच्छे और पढने योग्य है। | '''श्री श्री चैतन्य चरितावली''' प्रसिद्ध [[प्रभुदत्त ब्रह्मचारी|संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी]] द्वारा रचित है। इसका प्रकाशन गीता प्रेस द्वारा किया गया था। यह बहुत पुराना संस्करण ([[1930]]-[[1935]]) है। यह पाँच भागों में है। सभी एक साथ हैं, परन्तु इसका प्रथम भाग थोड़ा अस्पष्ट है। आगे के सभी भाग अच्छे और पढने योग्य है। | ||
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इस पुस्तक की प्रस्तावना में [[प्रभुदत्त ब्रह्मचारी|प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी]] कहते हैं कि, "[[चैतन्य महाप्रभु|चैतन्यदेव]] के महान जीवन में चैतन्यता का बीजारोपण तो [[गया|गयाधाम]] में हुआ, [[नवद्वीप]] में आकर वह अंकुरित और कुछ-कुछ परिवर्धित हुआ। श्री नीलाचल ([[जगन्नाथ पुरी]]) में वह पल्लवित, पुष्पित और अमृतमय फलों वाला बन गया। उसके अमृतमय सुस्वादु फलों से असंख्य प्राणी सदा के लिये तृप्त हो गये और उनकी बुभुक्षा का अत्यन्ताभाव ही हो गया। उसकी नित्यानन्द और अद्वैत रूपी दो बड़ी-बड़ी शाखाओं ने सम्पूर्ण देश को सुखमय और शान्तिमय बना दिया। इसलिये हमारी प्रार्थना है कि पाठक इस मधुमय, आनन्दमय और प्रेममय दिव्य चरित्र को श्रद्धाभक्ति के साथ पढ़ें। इसके पठन से शान्ति सन्देहों का भंजन होगा, भक्तों के चरणों में प्रीति होगी और भगवान के समीप तक पहुँचने की अधिकारिभेद से जिज्ञासा उत्पन्न होगी। इससे पाठक यह न समझ बैठे़ कि इसमें कुछ मेरी कारीगरी या लेखन-चातुरी है, यह तो चैतन्य-चरित्र की विशेषता है। मुझ जैसे क्षुद्र जीव की चातुरी हो ही क्या सकती है? यदि इस [[ग्रन्थ]] के लेखन में कहीं मनोहरता, सुन्दरता या सरसता आदि आ गयी हो तो इन सबका श्रेय श्री कृष्णदास गोस्वामी, [[वृन्दावनदास ठाकुर|श्री वृन्दावनदास ठाकुर]], श्री लोचनदास ठाकुर, श्री मुरारी गुप्त तथा श्री शिशिर कुमार घोष आदि पूर्ववर्ती चरित्र-लेखक महानुभावों को ही है और जहाँ-जहाँ कहीं विषमता, तीक्ष्णता, विरसता आदि दूषण आ गये हों, उन सबका दोष इस क्षुद्र लेखक को है और इसका एकमात्र कारण इस अज्ञानी की अल्पज्ञता ही है। | इस पुस्तक की प्रस्तावना में [[प्रभुदत्त ब्रह्मचारी|प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी]] कहते हैं कि, "[[चैतन्य महाप्रभु|चैतन्यदेव]] के महान जीवन में चैतन्यता का बीजारोपण तो [[गया|गयाधाम]] में हुआ, [[नवद्वीप]] में आकर वह अंकुरित और कुछ-कुछ परिवर्धित हुआ। श्री नीलाचल ([[जगन्नाथ पुरी]]) में वह पल्लवित, पुष्पित और अमृतमय फलों वाला बन गया। उसके अमृतमय सुस्वादु फलों से असंख्य प्राणी सदा के लिये तृप्त हो गये और उनकी बुभुक्षा का अत्यन्ताभाव ही हो गया। उसकी नित्यानन्द और अद्वैत रूपी दो बड़ी-बड़ी शाखाओं ने सम्पूर्ण देश को सुखमय और शान्तिमय बना दिया। इसलिये हमारी प्रार्थना है कि पाठक इस मधुमय, आनन्दमय और प्रेममय दिव्य चरित्र को श्रद्धाभक्ति के साथ पढ़ें। इसके पठन से शान्ति सन्देहों का भंजन होगा, भक्तों के चरणों में प्रीति होगी और भगवान के समीप तक पहुँचने की अधिकारिभेद से जिज्ञासा उत्पन्न होगी। इससे पाठक यह न समझ बैठे़ कि इसमें कुछ मेरी कारीगरी या लेखन-चातुरी है, यह तो चैतन्य-चरित्र की विशेषता है। मुझ जैसे क्षुद्र जीव की चातुरी हो ही क्या सकती है? यदि इस [[ग्रन्थ]] के लेखन में कहीं मनोहरता, सुन्दरता या सरसता आदि आ गयी हो तो इन सबका श्रेय श्री कृष्णदास गोस्वामी, [[वृन्दावनदास ठाकुर|श्री वृन्दावनदास ठाकुर]], श्री लोचनदास ठाकुर, श्री मुरारी गुप्त तथा श्री शिशिर कुमार घोष आदि पूर्ववर्ती चरित्र-लेखक महानुभावों को ही है और जहाँ-जहाँ कहीं विषमता, तीक्ष्णता, विरसता आदि दूषण आ गये हों, उन सबका दोष इस क्षुद्र लेखक को है और इसका एकमात्र कारण इस अज्ञानी की अल्पज्ञता ही है।<ref name="aa">{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=श्री श्री चैतन्य चरितावली|लेखक= |अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=गीता प्रेस, गोरखपुर|संकलन= भारतकोश पुस्तकालय|संपादन=प्रभुदत्त ब्रह्मचारी|पृष्ठ संख्या=8, 9, 15, 16|url=}}</ref> | ||
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[[प्रभुदत्त ब्रह्मचारी|प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी]] ने [[मार्गशीर्ष]] की [[पूर्णिमा]] को 'श्री चैतन्य-चरितावली' का लिखना प्रारम्भ किया और [[वैशाख|वैशाखी]] [[पूर्णिमा]] को इसकी परिसमाप्ति हो गयी। संत प्रभुदत्त जी कहते हैं कि "इन पाँच महीनों में निरन्तर चैतन्य-चरित्रों का चिन्तन होता रहा। उठते-बैठते, सोते-जागते, नहाते-धोते, खाते-पीते, भजन-[[ध्यान]], पाठ-[[पूजा]] और जप करते समय चैतन्य ही साथ बने रहे। | [[प्रभुदत्त ब्रह्मचारी|प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी]] ने [[मार्गशीर्ष]] की [[पूर्णिमा]] को 'श्री चैतन्य-चरितावली' का लिखना प्रारम्भ किया और [[वैशाख|वैशाखी]] [[पूर्णिमा]] को इसकी परिसमाप्ति हो गयी। संत प्रभुदत्त जी कहते हैं कि "इन पाँच महीनों में निरन्तर चैतन्य-चरित्रों का चिन्तन होता रहा। उठते-बैठते, सोते-जागते, नहाते-धोते, खाते-पीते, भजन-[[ध्यान]], पाठ-[[पूजा]] और जप करते समय चैतन्य ही साथ बने रहे। | ||
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प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी ने कहा है कि "यह मैं स्पष्ट बताये देता हूँ कि केवल ‘[[चैतन्य भागवत]]’ और ‘[[चैतन्य चरितामृत]]’ से केवल इसकी कथानक घटनाएँ ही ली गई हैं, बाकी तो यह ‘नानापुराणनिगमागमसम्मत’ जो ज्ञान है, उसके आधार पर लिखी गयी हैं। ‘अमियनिमाईचरित’ की मैंने केवल सूची भर देखी है। मैंने उसे बिलकुल पढ़ा ही नहीं, तब मैं कैसे कहूँ कि उसमें क्या है। घटना तो उन्होंने भी इन्हीं ग्रन्थों से ली हागी और क्या है, इसका मुझे कुछ पता नहीं। ‘चैतन्यमंगल’ भावुक भक्तों की चीज है, इसलिये मुझ-जैसे शुष्क-चरित-लेखकों के वह काम की विशेष नहीं है, इसलिये उसकी घटनाओं का आश्रय बहुत ही कम लिया गया है। घटना क्रम देखने के लिये पुस्तकें पढ़ता नहीं तो दिन-रात चिन्तन में ही बीतता। | प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी ने कहा है कि "यह मैं स्पष्ट बताये देता हूँ कि केवल ‘[[चैतन्य भागवत]]’ और ‘[[चैतन्य चरितामृत]]’ से केवल इसकी कथानक घटनाएँ ही ली गई हैं, बाकी तो यह ‘नानापुराणनिगमागमसम्मत’ जो ज्ञान है, उसके आधार पर लिखी गयी हैं। ‘अमियनिमाईचरित’ की मैंने केवल सूची भर देखी है। मैंने उसे बिलकुल पढ़ा ही नहीं, तब मैं कैसे कहूँ कि उसमें क्या है। घटना तो उन्होंने भी इन्हीं ग्रन्थों से ली हागी और क्या है, इसका मुझे कुछ पता नहीं। ‘चैतन्यमंगल’ भावुक भक्तों की चीज है, इसलिये मुझ-जैसे शुष्क-चरित-लेखकों के वह काम की विशेष नहीं है, इसलिये उसकी घटनाओं का आश्रय बहुत ही कम लिया गया है। घटना क्रम देखने के लिये पुस्तकें पढ़ता नहीं तो दिन-रात चिन्तन में ही बीतता। | ||
मुझमें न तो विद्या है न बुद्धि, 'चैतन्य-चरित' लिखने के लिये जितनी क्षमता, दक्षता, पटुता, सच्चरित्रता, एकनिष्ठा, सहनशीलता, [[भक्ति]], श्रद्धा और प्रेम की आवश्यकता है, उसका शतांश भी मैं अपने में नहीं पाता। फिर भी इस कार्य को कराने के लिए मुझे ही निमित बनाया गया है, वह उस काले चैतन्य की इच्छा। वह तो मूक को भी वाचाल बना सकता है और पंगु से भी पर्वतलंघन करा सकता है। इसलिये अपने सभी प्रेमी बन्धुओं से मेरी यही प्रार्थना है कि वे मेरे कुल-शील, विद्या-बुद्धि की ओर ध्यान न दें। वे चैतन्य रूपी मधुर मधु के रसास्वादन से ही अपनी रसना को आनन्द मय बनावें। | मुझमें न तो विद्या है न बुद्धि, 'चैतन्य-चरित' लिखने के लिये जितनी क्षमता, दक्षता, पटुता, सच्चरित्रता, एकनिष्ठा, सहनशीलता, [[भक्ति]], श्रद्धा और प्रेम की आवश्यकता है, उसका शतांश भी मैं अपने में नहीं पाता। फिर भी इस कार्य को कराने के लिए मुझे ही निमित बनाया गया है, वह उस काले चैतन्य की इच्छा। वह तो मूक को भी वाचाल बना सकता है और पंगु से भी पर्वतलंघन करा सकता है। इसलिये अपने सभी प्रेमी बन्धुओं से मेरी यही प्रार्थना है कि वे मेरे कुल-शील, विद्या-बुद्धि की ओर ध्यान न दें। वे चैतन्य रूपी मधुर मधु के रसास्वादन से ही अपनी रसना को आनन्द मय बनावें।<ref name="aa"/> | ||
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Revision as of 09:51, 22 May 2015
चैतन्य चरितावली
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लेखक | संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी |
मूल शीर्षक | श्री श्री चैतन्य चरितावली |
मुख्य पात्र | चैतन्य महाप्रभु |
प्रकाशक | गीता प्रेस, गोरखपुर |
देश | भारत |
विषय | इस पुस्तक में चैतन्य देव के सम्पूर्ण जीवन-चरित्र की सुन्दर परिक्रमा है। |
पुस्तक कोड | 123 |
अन्य जानकारी | इस पुस्तक में कीर्तन के रंग में रँगे महाप्रभु की लीलाएँ, अधर्मों के उद्धार की घटनाएँ, श्री चैतन्य में विभिन्न भगवद्भावों का आवेश, यवनों को भी पावन करने की कथा, श्रीवास, पुण्डरीक आदि की घटनाएँ वर्णित हैं। |
श्री श्री चैतन्य चरितावली प्रसिद्ध संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी द्वारा रचित है। इसका प्रकाशन गीता प्रेस द्वारा किया गया था। यह बहुत पुराना संस्करण (1930-1935) है। यह पाँच भागों में है। सभी एक साथ हैं, परन्तु इसका प्रथम भाग थोड़ा अस्पष्ट है। आगे के सभी भाग अच्छे और पढने योग्य है।
प्रस्तावना
इस पुस्तक की प्रस्तावना में प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी कहते हैं कि, "चैतन्यदेव के महान जीवन में चैतन्यता का बीजारोपण तो गयाधाम में हुआ, नवद्वीप में आकर वह अंकुरित और कुछ-कुछ परिवर्धित हुआ। श्री नीलाचल (जगन्नाथ पुरी) में वह पल्लवित, पुष्पित और अमृतमय फलों वाला बन गया। उसके अमृतमय सुस्वादु फलों से असंख्य प्राणी सदा के लिये तृप्त हो गये और उनकी बुभुक्षा का अत्यन्ताभाव ही हो गया। उसकी नित्यानन्द और अद्वैत रूपी दो बड़ी-बड़ी शाखाओं ने सम्पूर्ण देश को सुखमय और शान्तिमय बना दिया। इसलिये हमारी प्रार्थना है कि पाठक इस मधुमय, आनन्दमय और प्रेममय दिव्य चरित्र को श्रद्धाभक्ति के साथ पढ़ें। इसके पठन से शान्ति सन्देहों का भंजन होगा, भक्तों के चरणों में प्रीति होगी और भगवान के समीप तक पहुँचने की अधिकारिभेद से जिज्ञासा उत्पन्न होगी। इससे पाठक यह न समझ बैठे़ कि इसमें कुछ मेरी कारीगरी या लेखन-चातुरी है, यह तो चैतन्य-चरित्र की विशेषता है। मुझ जैसे क्षुद्र जीव की चातुरी हो ही क्या सकती है? यदि इस ग्रन्थ के लेखन में कहीं मनोहरता, सुन्दरता या सरसता आदि आ गयी हो तो इन सबका श्रेय श्री कृष्णदास गोस्वामी, श्री वृन्दावनदास ठाकुर, श्री लोचनदास ठाकुर, श्री मुरारी गुप्त तथा श्री शिशिर कुमार घोष आदि पूर्ववर्ती चरित्र-लेखक महानुभावों को ही है और जहाँ-जहाँ कहीं विषमता, तीक्ष्णता, विरसता आदि दूषण आ गये हों, उन सबका दोष इस क्षुद्र लेखक को है और इसका एकमात्र कारण इस अज्ञानी की अल्पज्ञता ही है।[1]
लेखन
प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी ने मार्गशीर्ष की पूर्णिमा को 'श्री चैतन्य-चरितावली' का लिखना प्रारम्भ किया और वैशाखी पूर्णिमा को इसकी परिसमाप्ति हो गयी। संत प्रभुदत्त जी कहते हैं कि "इन पाँच महीनों में निरन्तर चैतन्य-चरित्रों का चिन्तन होता रहा। उठते-बैठते, सोते-जागते, नहाते-धोते, खाते-पीते, भजन-ध्यान, पाठ-पूजा और जप करते समय चैतन्य ही साथ बने रहे।
विषयवस्तु
इस पुस्तक में मात्र चार सौ वर्ष पूर्व बंगाल में भक्ति और प्रेम की अजस्र धारा प्रवाहित करने वाले कलिपावनावतार श्री चैतन्य महाप्रभु का विस्तृत जीवन-परिचय है। स्वनामधन्य परम संत श्री प्रभुदत्त जी ब्रह्मचारी द्वारा प्रणीत यह ग्रन्थ श्री चैतन्य देव के सम्पूर्ण जीवन-चरित्र की सुन्दर परिक्रमा है। इसमें कीर्तन के रंग में रँगे महाप्रभु की लीलाएँ, अधर्मों के उद्धार की घटनाएँ, श्री चैतन्य में विभिन्न भगवद्भावों का आवेश, यवनों को भी पावन करने की कथा, श्रीवास, पुण्डरीक, हरिदास आदि भक्तों के चरित्र, श्री रघुनाथ का गृह-त्याग आदि अलौकिक प्रेमपूर्ण घटनाओं को पढ़कर हृदय प्रेम-समुद्र में डुबकी लगाने लगता है। वास्तव में महाप्रभु का सम्पूर्ण जीवन-चरित्र भगवद्भक्ति का महामन्त्र है।[2]
प्राक्कथन
प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी ने कहा है कि "यह मैं स्पष्ट बताये देता हूँ कि केवल ‘चैतन्य भागवत’ और ‘चैतन्य चरितामृत’ से केवल इसकी कथानक घटनाएँ ही ली गई हैं, बाकी तो यह ‘नानापुराणनिगमागमसम्मत’ जो ज्ञान है, उसके आधार पर लिखी गयी हैं। ‘अमियनिमाईचरित’ की मैंने केवल सूची भर देखी है। मैंने उसे बिलकुल पढ़ा ही नहीं, तब मैं कैसे कहूँ कि उसमें क्या है। घटना तो उन्होंने भी इन्हीं ग्रन्थों से ली हागी और क्या है, इसका मुझे कुछ पता नहीं। ‘चैतन्यमंगल’ भावुक भक्तों की चीज है, इसलिये मुझ-जैसे शुष्क-चरित-लेखकों के वह काम की विशेष नहीं है, इसलिये उसकी घटनाओं का आश्रय बहुत ही कम लिया गया है। घटना क्रम देखने के लिये पुस्तकें पढ़ता नहीं तो दिन-रात चिन्तन में ही बीतता।
मुझमें न तो विद्या है न बुद्धि, 'चैतन्य-चरित' लिखने के लिये जितनी क्षमता, दक्षता, पटुता, सच्चरित्रता, एकनिष्ठा, सहनशीलता, भक्ति, श्रद्धा और प्रेम की आवश्यकता है, उसका शतांश भी मैं अपने में नहीं पाता। फिर भी इस कार्य को कराने के लिए मुझे ही निमित बनाया गया है, वह उस काले चैतन्य की इच्छा। वह तो मूक को भी वाचाल बना सकता है और पंगु से भी पर्वतलंघन करा सकता है। इसलिये अपने सभी प्रेमी बन्धुओं से मेरी यही प्रार्थना है कि वे मेरे कुल-शील, विद्या-बुद्धि की ओर ध्यान न दें। वे चैतन्य रूपी मधुर मधु के रसास्वादन से ही अपनी रसना को आनन्द मय बनावें।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 श्री श्री चैतन्य चरितावली |प्रकाशक: गीता प्रेस, गोरखपुर |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |संपादन: प्रभुदत्त ब्रह्मचारी |पृष्ठ संख्या: 8, 9, 15, 16 |
- ↑ श्री-श्री चैतन्य-चरितावली (हिन्दी) गीताप्रेस, गोरखपुर। अभिगमन तिथि: 22 मई, 2015।
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