महारास: Difference between revisions
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'''महारास''' [[कृष्ण|भगवान श्रीकृष्ण]] से सम्बंधित है। [[सोलह कला|सोलह कलाओं]] से परिपूर्ण भगवान श्रीकृष्ण का अवतार मुख्यत: आनंद प्रधान माना जाता है। उनके आनंद भाव का पूर्ण विकास उनकी मधुर रस लीला में हुआ है। यह मधुर रस लीला उनकी दिव्य रास क्रीड़ा है, जो शृंगार और [[रस]] से पूर्ण होते हुए भी इस स्थूल | '''महारास''' [[कृष्ण|भगवान श्रीकृष्ण]] से सम्बंधित है। [[सोलह कला|सोलह कलाओं]] से परिपूर्ण भगवान श्रीकृष्ण का अवतार मुख्यत: आनंद प्रधान माना जाता है। उनके आनंद भाव का पूर्ण विकास उनकी मधुर रस लीला में हुआ है। यह मधुर रस लीला उनकी दिव्य रास क्रीड़ा है, जो शृंगार और [[रस]] से पूर्ण होते हुए भी इस स्थूल जगत् के प्रेम व वासना से मुक्त है। इस [[रासलीला]] में वे अपने अंतरंग विशुद्ध [[भक्त|भक्तों]]<ref>जो उनकी निज रसरूपा राधा की सोलह हजार कायरूपा गोपियां हैं।</ref> के साथ शरत् की रात्रियों में विलास करते हैं। कृष्ण की इस रासलीला में दो धाराएं हैं, जो दोनों ओर से आती हैं और एकाकार हो जाती हैं। हर क्षण नया मिलन, नया रूप, नया रस और नई तृप्ति- यही प्रेम-रस का अद्वैत स्वरूप है और इसी का नाम 'रास' है।<ref name="aa">{{cite web |url=http://hindi.speakingtree.in/article/content-246950 |title= प्रेम का ही अद्वैत स्वरूप है कृष्ण का महारास|accessmonthday= 8 मार्च|accessyear= 2016|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= speakingtree.in|language= हिन्दी}}</ref> | ||
[[श्रीमद्भागवत]] के दसवें भाग के 29वें अध्याय के प्रथम [[श्लोक]] में लिखा है- "भगवानपि ता रात्री: शरदोत्फुल्लमिलका।" जो यह संकेत करता है कि भगवान के साथ रासलीला के लिए जीवात्मा का दिव्य शरीर और दिव्य मन होना अनिवार्य है। दूसरे शब्दों में, इस मधुर रस लीला में शुद्ध जीव का ब्रह्म से विलासपूर्ण मिलन है, जिसमें लौकिक प्रेम व काम अंशमात्र भी नहीं है। शुद्ध जीव का अर्थ है- माया के आवरण से रहित जीव। ऐसे जीव का ही ब्रह्म से मिलन होता है। इसीलिए [[गोपी|गोपियों]] के साथ [[कृष्ण|श्रीकृष्ण]] ने महारास से पूर्व '[[चीरहरण लीला|चीरहरण]]' की लीला की थी। जीवात्मा का परमात्मा के सामने कोई पर्दा नहीं रह सकता। पर्दा माया में ही है। पर्दा होने से वासना और अज्ञान आत्मा को ढक देते हैं और परमात्मा को दूर करते हैं। चीरहरण से गोपियों का उक्त मोह भंग हुआ। जीव का ब्रह्म से मिलन सहज नहीं होता। वह जब परमात्मा के निकट पहुंचता है, तब वे उससे पूछते हैं- मेरे पास क्यों आया है? जैसे कृष्ण ने गोपियों से कहा- "कहो, कैसे आना हुआ इस घोर रात्रि में? अपने पति, पुत्र, सगे-सम्बन्धी, गुरु और प्रियजनों की सेवा करना तुम्हारा धर्म है। तुम लौट जाओ अपने घर।" गोपियां स्वर्ग-मोक्ष-काम आदि से रहित हैं। उन्होंने उत्तर दिया- "पादौ पदं न चलतस्तव पादमूलाद , याम: कथं ब्रजमधो करवाम किं वा।।"<ref>श्रीमद्भागवत्- 10.29.34</ref> अर्थात "हे गोविन्द! हमारे पांव आपके चरण-कमलों को छोड़कर एक पग भी पीछे हटने को तैयार नहीं हैं। हम [[ब्रज]] को लौटें तो कैसे ? और यदि हम लौटें भी तो मन के बिना वहां हम क्या करें ? तब [[कृष्ण]] ने अपने अंतिम प्रश्न में गोपियों को उनके संतान मोह की ओर इशारा करते हुए कहा- "तो क्या तुम्हें अपने पुत्रों का भी मोह नहीं है ?" गोपियों का उत्तर था- "हे मोहन! आप में ही हमारा मोह सर्वोपरि है, क्योंकि पुत्रादि में भी आप ही स्थित हैं। ऐसी कौन सी वस्तु है, जो आपसे अलग है?<ref name="aa"/> | [[श्रीमद्भागवत]] के दसवें भाग के 29वें अध्याय के प्रथम [[श्लोक]] में लिखा है- "भगवानपि ता रात्री: शरदोत्फुल्लमिलका।" जो यह संकेत करता है कि भगवान के साथ रासलीला के लिए जीवात्मा का दिव्य शरीर और दिव्य मन होना अनिवार्य है। दूसरे शब्दों में, इस मधुर रस लीला में शुद्ध जीव का ब्रह्म से विलासपूर्ण मिलन है, जिसमें लौकिक प्रेम व काम अंशमात्र भी नहीं है। शुद्ध जीव का अर्थ है- माया के आवरण से रहित जीव। ऐसे जीव का ही ब्रह्म से मिलन होता है। इसीलिए [[गोपी|गोपियों]] के साथ [[कृष्ण|श्रीकृष्ण]] ने महारास से पूर्व '[[चीरहरण लीला|चीरहरण]]' की लीला की थी। जीवात्मा का परमात्मा के सामने कोई पर्दा नहीं रह सकता। पर्दा माया में ही है। पर्दा होने से वासना और अज्ञान आत्मा को ढक देते हैं और परमात्मा को दूर करते हैं। चीरहरण से गोपियों का उक्त मोह भंग हुआ। जीव का ब्रह्म से मिलन सहज नहीं होता। वह जब परमात्मा के निकट पहुंचता है, तब वे उससे पूछते हैं- मेरे पास क्यों आया है? जैसे कृष्ण ने गोपियों से कहा- "कहो, कैसे आना हुआ इस घोर रात्रि में? अपने पति, पुत्र, सगे-सम्बन्धी, गुरु और प्रियजनों की सेवा करना तुम्हारा धर्म है। तुम लौट जाओ अपने घर।" गोपियां स्वर्ग-मोक्ष-काम आदि से रहित हैं। उन्होंने उत्तर दिया- "पादौ पदं न चलतस्तव पादमूलाद , याम: कथं ब्रजमधो करवाम किं वा।।"<ref>श्रीमद्भागवत्- 10.29.34</ref> अर्थात "हे गोविन्द! हमारे पांव आपके चरण-कमलों को छोड़कर एक पग भी पीछे हटने को तैयार नहीं हैं। हम [[ब्रज]] को लौटें तो कैसे ? और यदि हम लौटें भी तो मन के बिना वहां हम क्या करें ? तब [[कृष्ण]] ने अपने अंतिम प्रश्न में गोपियों को उनके संतान मोह की ओर इशारा करते हुए कहा- "तो क्या तुम्हें अपने पुत्रों का भी मोह नहीं है ?" गोपियों का उत्तर था- "हे मोहन! आप में ही हमारा मोह सर्वोपरि है, क्योंकि पुत्रादि में भी आप ही स्थित हैं। ऐसी कौन सी वस्तु है, जो आपसे अलग है?<ref name="aa"/> |
Revision as of 14:11, 30 June 2017
महारास भगवान श्रीकृष्ण से सम्बंधित है। सोलह कलाओं से परिपूर्ण भगवान श्रीकृष्ण का अवतार मुख्यत: आनंद प्रधान माना जाता है। उनके आनंद भाव का पूर्ण विकास उनकी मधुर रस लीला में हुआ है। यह मधुर रस लीला उनकी दिव्य रास क्रीड़ा है, जो शृंगार और रस से पूर्ण होते हुए भी इस स्थूल जगत् के प्रेम व वासना से मुक्त है। इस रासलीला में वे अपने अंतरंग विशुद्ध भक्तों[1] के साथ शरत् की रात्रियों में विलास करते हैं। कृष्ण की इस रासलीला में दो धाराएं हैं, जो दोनों ओर से आती हैं और एकाकार हो जाती हैं। हर क्षण नया मिलन, नया रूप, नया रस और नई तृप्ति- यही प्रेम-रस का अद्वैत स्वरूप है और इसी का नाम 'रास' है।[2]
श्रीमद्भागवत के दसवें भाग के 29वें अध्याय के प्रथम श्लोक में लिखा है- "भगवानपि ता रात्री: शरदोत्फुल्लमिलका।" जो यह संकेत करता है कि भगवान के साथ रासलीला के लिए जीवात्मा का दिव्य शरीर और दिव्य मन होना अनिवार्य है। दूसरे शब्दों में, इस मधुर रस लीला में शुद्ध जीव का ब्रह्म से विलासपूर्ण मिलन है, जिसमें लौकिक प्रेम व काम अंशमात्र भी नहीं है। शुद्ध जीव का अर्थ है- माया के आवरण से रहित जीव। ऐसे जीव का ही ब्रह्म से मिलन होता है। इसीलिए गोपियों के साथ श्रीकृष्ण ने महारास से पूर्व 'चीरहरण' की लीला की थी। जीवात्मा का परमात्मा के सामने कोई पर्दा नहीं रह सकता। पर्दा माया में ही है। पर्दा होने से वासना और अज्ञान आत्मा को ढक देते हैं और परमात्मा को दूर करते हैं। चीरहरण से गोपियों का उक्त मोह भंग हुआ। जीव का ब्रह्म से मिलन सहज नहीं होता। वह जब परमात्मा के निकट पहुंचता है, तब वे उससे पूछते हैं- मेरे पास क्यों आया है? जैसे कृष्ण ने गोपियों से कहा- "कहो, कैसे आना हुआ इस घोर रात्रि में? अपने पति, पुत्र, सगे-सम्बन्धी, गुरु और प्रियजनों की सेवा करना तुम्हारा धर्म है। तुम लौट जाओ अपने घर।" गोपियां स्वर्ग-मोक्ष-काम आदि से रहित हैं। उन्होंने उत्तर दिया- "पादौ पदं न चलतस्तव पादमूलाद , याम: कथं ब्रजमधो करवाम किं वा।।"[3] अर्थात "हे गोविन्द! हमारे पांव आपके चरण-कमलों को छोड़कर एक पग भी पीछे हटने को तैयार नहीं हैं। हम ब्रज को लौटें तो कैसे ? और यदि हम लौटें भी तो मन के बिना वहां हम क्या करें ? तब कृष्ण ने अपने अंतिम प्रश्न में गोपियों को उनके संतान मोह की ओर इशारा करते हुए कहा- "तो क्या तुम्हें अपने पुत्रों का भी मोह नहीं है ?" गोपियों का उत्तर था- "हे मोहन! आप में ही हमारा मोह सर्वोपरि है, क्योंकि पुत्रादि में भी आप ही स्थित हैं। ऐसी कौन सी वस्तु है, जो आपसे अलग है?[2]
कृष्ण उनके प्रेम में रम गए और उनके साथ नृत्य करने लगे। नृत्य करते हुए कृष्ण ने महसूस किया कि गोपियों को उनके साथ नृत्य करने, उन्हें पा लेने का अभिमान होने लगा है। लेकिन कृष्ण और राधा के इस रास में जैसे दैहिक वासना की कोई जगह नहीं है, उसी तरह किसी अभिमान के लिए भी जगह नहीं है। गोपियों में व्याप्त अभिमान के इस भाव को दूर करने के लिए वे एकाएक उनके बीच से अर्न्तध्यान हो गए। ऐसे में गोपियां अपने प्रियतम को न देखकर स्वयं को भूल जाती हैं और कृष्णमयी होकर उन्हीं की पूर्व लीलाओं का अनुकरण करने में लीन हो जाती हैं। वे श्रीकृष्ण की चाल-ढाल, हास-विलास और चितवन आदि में उनके समान ही बनकर सुख पाती हैं। यह देखकर कृष्ण द्रवित हो जाते हैं और पुन: उनके बीच प्रकट होकर कहते हैं, मैं तुम्हारे त्याग और प्रीति का ऋणी हूं और अनन्त जन्मों तक ऋणी बना रहूंगा। वे अपने हाथ आगे पसारते हुए कहते हैं- "आओ, महारास करें!" कृष्ण प्रत्येक दो गोपियों के बीच में प्रकट होकर सोलह हजार गोपियों के साथ नृत्य करने में लीन हो गए। सभी गोपियों के हाथ उनके हाथ में थे। यह महारास देखते-देखते ब्रह्मा[4] सोचने लगे कि कृष्ण और गोपियां निष्काम तो हैं, फिर भी देह का भान भूलकर इस प्रकार क्रीड़ा करने से क्या व्यवस्था, शास्त्र और मर्यादा का उल्लंघन नहीं होगा? वे यह नहीं समझ सके कि प्रेम का रास, विलास नहीं, धर्म का फल है, यानी प्रेम का फल है। कृष्ण ने अचानक सभी सोलह हजार गोपियों को अपना स्वरूप दे दिया और सर्वत्र कृष्ण ही कृष्ण दिखाई देने लगे। गोपियां हैं कहां ? महारास प्रेम का अद्वैत स्वरूप है, जिसमें भगवत् स्वरूप हो जाने के बाद जीव का स्वत्व नहीं रहता है।
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