कुचिपुड़ि नृत्य: Difference between revisions

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आज के समय में कुचीपुडी में भी [[भरतनाट्यम]] के समान अनेक परिवर्तन हो गए हैं। वर्तमान समय के नर्तक और नृत्‍यांगनाएं कुचीपुडी शैली में उन्‍नत प्रशिक्षण लेते हैं और अपनी वैयक्तिक शैली में इस कला का प्रदर्शन करते हैं। इसमें वर्तमान समय में केवल दो मेलम या पुरुष प्रदर्शकों के व्‍यावसायिक दल हैं। इसमें अधिकांश नृत्‍य महिलाएं करती हैं। वर्तमान समय के प्रदर्शन में कुचीपुडी नृत्‍य नाटिका से घट कर नृत्‍य तक रह गया है, यह जटिल रंग मंच अभ्‍यास के स्‍थान पर नियमित मंच प्रदर्शन बन गया है।
आज के समय में कुचीपुडी में भी [[भरतनाट्यम]] के समान अनेक परिवर्तन हो गए हैं। वर्तमान समय के नर्तक और नृत्‍यांगनाएं कुचीपुडी शैली में उन्‍नत प्रशिक्षण लेते हैं और अपनी वैयक्तिक शैली में इस कला का प्रदर्शन करते हैं। इसमें वर्तमान समय में केवल दो मेलम या पुरुष प्रदर्शकों के व्‍यावसायिक दल हैं। इसमें अधिकांश नृत्‍य महिलाएं करती हैं। वर्तमान समय के प्रदर्शन में कुचीपुडी नृत्‍य नाटिका से घट कर नृत्‍य तक रह गया है, यह जटिल रंग मंच अभ्‍यास के स्‍थान पर नियमित मंच प्रदर्शन बन गया है।
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Revision as of 13:40, 14 September 2010

[[चित्र:Kuchipudi-Dance.jpg|thumb|कुची पुडी नृत्य, आंध्र प्रदेश
Kuchipudi Dance, Andhra Pradesh]]

कुचीपुडी आंध्र प्रदेश की एक स्‍वदेशी नृत्‍य शैली है जिसने इसी नाम के गांव में जन्‍म लिया और पनपी, इसका मूल नाम कुचेलापुरी या कुचेलापुरम था, जो कृष्‍णा जिले का एक कस्‍बा है। अपने मूल से ही यह तीसरी शता‍ब्‍दी बीसी में अपने धुंधले अवशेष छोड़ आई है, यह इस क्षेत्र की एक निरंतर और जीवित नृत्‍य परम्‍परा है। कुचीपुडी कला का जन्‍म अधिकांश भारतीय शास्‍त्रीय नृत्‍यों के समान धर्मों के साथ जुड़ा हुआ है। एक लम्‍बे समय से यह कला केवल मंदिरों में और वह भी आंध्र प्रदेश के कुछ मंदिरों में वार्षिक उत्‍सव के अवसर पर प्रदर्शित की जाती थी।

इतिहास

परम्‍परा के अनुसार कुचीपुडी नृत्‍य मूलत: केवल पुरुषों द्वारा किया जाता था और वह भी केवल ब्राह्मण समुदाय के पुरुषों द्वारा। ये ब्राह्मण परिवार कुचीपुडी के भागवतथालू कहलाते थे। कुचीपुडी के भागवतथालू ब्राह्मणों का पहला समूह 1502 ए. डी. निर्मित किया गया था। उनके कार्यक्रम देवताओं को समर्पित किए जाते थे तथा उन्‍होंने अपने समूहों में महिलाओं को प्रवेश नहीं दिया।

पुन: परिभाषित

महिला नृत्‍यांगनाओं के शोषण के कारण नृत्य कला के ह्रास के युग में एक सिद्ध पुरुष सिद्धेंद्र योगी ने नृत्‍य को पुन: परिभाषित किया। कुचीपुडी के पंद्रह ब्राह्मण परिवारों ने पांच शताब्दियों से अधिक समय तक परम्‍परा को आगे बढ़ाया है। प्रतिष्ठित गुरु जैसे वेदांतम लक्ष्‍मी नारायण, चिंता कृष्‍णा मूर्ति और ता‍देपल्‍ली पेराया ने महिलाओं को इसमें शामिल कर नृत्‍य को और समृद्ध बनाया है। डॉ. वेमापति चिन्‍ना सत्‍यम ने इसमें कई नृत्‍य नाटिकाओं को जोड़ा और कई एकल प्रदर्शनों की नृत्‍य संरचना तैयार की और इस प्रकार नृत्‍य रूप के क्षितिज को व्‍यापक बनाया। यह परम्‍परा तब से महान बनी हुई है जब पुरुष ही महिलाओं का अभिनय करते थे और अब महिलाएं पुरुषों का अभिनय करने लगी हैं।

नृत्‍य नाटिका

कुचीपुडी कला एक ऐसे नृत्‍य नाटिका के रूप में आशयित की गई थी, जिसके लिए चरित्र का एक सैट आवश्‍यक था, जो केवल एक नर्तक द्वारा किया जाने वाला नृत्‍य नहीं था जो आज के समय में प्रचलित है। इस नृत्‍य नाटिका को कभी कभी अट्टा भागवतम कहते हैं। इसके नाटक तेलुगु भाषा में लिखे जाते हैं और पारम्‍परिक रूप से सभी भूमिकाएं केवल पुरुषों द्वारा निभाई जाती है।

प्रस्‍तुतिकरण

कुचीपुडी नाटक खुले और अभिनय के लिए तैयार मंचों पर खेले जाते हैं। इसके प्रस्‍तुतिकरण कुछ पारम्‍परिक रीति के साथ शुरू होते हैं और फिर दर्शकों को पूरा दृश्‍य प्रदर्शित किया जाता है। तब सूत्रधार मंच पर सहयोगी संगीतकारों के साथ आता है और ड्रम तथा घंटियों की ताल पर नाटक की शुरूआत करता है। एक कुचीपुडी प्रदर्शन में प्रत्‍येक प्रधान चरित्र दारु के साथ आकर स्‍वयं अपना परिचय देता है। दारु नृत्‍य की एक छोटी रचना है और प्रत्‍येक चरित्र को अपनी पहचान प्रकट करने के लिए एक विशेष गीत दिया जाता है साथ ही वह‍ नृत्‍यकार को कला का कौशल दर्शाने में भी सहायता देता है। एक नृत्‍य नाटिका में लगभग 80 दारु या नृत्‍य क्रम होते हैं। एक सुंदर पर्दे के पीछे, जिसे दो व्‍यक्ति पकड़ते हैं, सत्‍यभामा दर्शकों की ओर पीठ किए हुए मंच पर आती हैं। भामा कल्‍पम में सत्‍यभामा विप्रलांबा नायिकी या नायिका हैं जिसे उसका प्रेमी छोड़ गया है और वह उसकी अनुपस्थिति में उदास है।

मटका नृत्‍य

कुचीपुडी नृत्‍य का सबसे अधिक लोकप्रिय रूप मटका नृत्‍य है जिसमें एक नर्तकी मटके में पानी भर कर और उसे अपने सिर पर रखकर पीतल की थाली में पैर जमा कर नृत्‍य करती है। वह पीतल की थाली पर नियंत्रण रखते हुए पूरे मंच पर नृत्‍य करती है और इस पूरे संचलन के दौरान श्रोताओं को चकित कर देने के लिए उसके मटके से पानी की एक बूंद भी नहीं गिरती है।

गोला कलापम

भामा कल्‍पम के अलावा एक अन्‍य प्रसिद्ध नृत्‍य नाटिका है गोला कलापम जिसे भगवत रामाया ने लिखा है, तिरुमाला नारयण चिरयालु द्वारा लिखित प्रहलाद चरितम, शशि रेखा परिणय आदि।

विशेषता

इस कला की साज सज्‍जा और वेशभूषा इसकी विशेषता हैं। इसकी वेशभूषा और साज सज्‍जा में बहुत अधिक कुछ नहीं होता है। इसकी एक महत्‍वपूर्ण विशेषता इसके अलग अलग प्रकार की सज्‍जा में है और इसके महिला चरित्र कई आभूषण पहनते हैं जैसे कि रकुडी, चंद्र वानिकी, अडाभासा और कसिनासारा तथा फूलों और आभूषणों से सज्जित लंबी वेणी।

संगीत वाद्य

कुचीपुडी का संगीत शास्‍त्रीय कर्नाटक संगीत होता है। मृदंग, वायलिन और एक क्‍लेरीनेट इसमें बजाए जाने वाले सामान्‍य संगीत वाद्य हैं।

वर्तमान समय

आज के समय में कुचीपुडी में भी भरतनाट्यम के समान अनेक परिवर्तन हो गए हैं। वर्तमान समय के नर्तक और नृत्‍यांगनाएं कुचीपुडी शैली में उन्‍नत प्रशिक्षण लेते हैं और अपनी वैयक्तिक शैली में इस कला का प्रदर्शन करते हैं। इसमें वर्तमान समय में केवल दो मेलम या पुरुष प्रदर्शकों के व्‍यावसायिक दल हैं। इसमें अधिकांश नृत्‍य महिलाएं करती हैं। वर्तमान समय के प्रदर्शन में कुचीपुडी नृत्‍य नाटिका से घट कर नृत्‍य तक रह गया है, यह जटिल रंग मंच अभ्‍यास के स्‍थान पर नियमित मंच प्रदर्शन बन गया है।

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