भारतकोश सम्पादकीय 21 अगस्त 2012: Difference between revisions

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यादों का फंडा -आदित्य चौधरी


          पिंकी और पिंकू एक दूसरे के प्यार में पागल थे। सात जन्म, सात समन्दर और सातवें आसमान तक साथ निभाने के वादे थे। अब तो आप समझ ही गये होंगे कि उनके क्या इरादे थे। पिंकी, पिंकू को बहुत चाहती थी और पिंकू, पिंकी को बहुत चाहता था। दोनों एक दूसरे को चाहते रहते थे। इस चाहने से जो थोड़ा बहुत समय मिलता था उसमें वे एक-दूसरे को याद कर लेते थे, बाक़ी दुनियादारी के कामों के लिए उनके पास वक़्त नहीं था। फिर एक वक़्त ऐसा आया जिसमें 'ज़ुल्मी' पिंकू ने 'डिच' करके 'स्विच' करने में कोई 'हिच' नहीं की।

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          इस धोखे से पिंकी पर जो असर हुए वो थे- हैरानी, रोना, चीख़ना, उदासी, अकेलापन और पिंकू को भुला देने की पूरी कोशिश। पिंकू को भुलाने के लिए पिंकी ने अपने मोबाइल फ़ोन से पिंकू के सारे फ़ोटो, एम.एम.एस और सारे एस.एम.एस डिलीट कर दिये। सारी 'टैक्सटिंग' और 'चैट' अपने कम्प्यूटर से उड़ा दी। हॉलमार्क और आर्चीज़ के जो कार्ड पिंकू ने दिये थे, पिंकी ने, पहले तो वो गुस्से में फाड़े और फिर सत्ताइस नम्बर छाप माचिस से जला दिये।
          ई-मेल इनबॉक्स में जितने याहू और 123 ग्रिटिंग कार्ड थे, वो पहले तो डिलीट किये, फिर अपना ई-मेल एकाउंट  [email protected] भी बंद कर दिया। अपने फ़ेसबुक एकाउंट wowpinky94 की 'क्लोज़ फ़्रॅन्ड' लिस्ट से पिंकू को 'अनफ़्रॅन्ड' कर दिया। अपने 'प्रोफ़ाइल' से वो गाने और फ़िल्में भी 'लाइक' से हटा दिये जो पिंकू को पसंद होने की वजह से पिंकी ने 'लाइक' किये थे। पिंकू के दोस्तों और पिंकू की बहन को भी अपनी फ्रेंड लिस्ट में से हटा दिया। पिछले तीन वैलेंटाइन-डे पर जो फूल पिंकू ने दिये थे और उन्हें पिंकी ने अपनी हिंदी की किताब में सुखा के रखा हुआ था उन फूलों को पहले बहुत देर तक देखा फिर पैरों से कुचला और कूड़े में फेंक दिये। जिस किताब में वो रखे थे, वो किताब, अपने सलवार-कुर्ते सिलने वाली चढ्डा आंटी की बेटी को दे दी। पिंकू के दिए तीनों फ़्रॅन्डशिप बॅन्ड क़ैंची से छोटे-छोटे टुकड़ों में काट के बाथरूम में फ्लश कर दिये। 
          एक बड़े से पॉलिथिन बैग में तीन परफ़्यूम, दो टी-शर्ट, एक कुर्ता, एक हेयर पिन, दो टॅडीबीयर (एक छोटा और एक बड़ा), एक कड़ा, दो नेलपेंट, दो लिपिस्टिक, एक जोड़ा हॅडफ़ोंस का, एक पर्स, पैक करके अपने यहाँ काम करने वाली को दे दिये (ज़ाहिर है ये गिफ़्ट पिंकू ने दिये थे) साथ ही कह दिया "ये सारी चीज़ें ले जाओ लेकिन ये ध्यान रखना कि इनमें से किसी भी चीज़ को यहाँ पहन कर मत आना"। इसके अलावा भी बहुत से ऐसे काम किये गये जिनसे पिंकू की याद पूरी तरह से मिट जाये जैसे- उन रेस्त्रां, मॉल, पार्क आदि में ना जाना जिनमें पिंकू ले गया था।
          कुल-मिलाकर हमारी कहानी की हिरोइन पिंकी ने अपने बॉयफ़्रॅन्ड, पिंकू को भुलाने की पूरी कोशिश की लेकिन जितना ज़्यादा भुलाने की कोशिश की जा रही थी उतनी ही पिंकू की याद और मज़बूत होती जा रही थी। पिंकू को भुलाने की कोशिश ही उसको याद करना बनता जा रहा था। दिन-रात पिंकी के दिमाग में पिंकू का चेहरा, पिंकू की बातें वग़ैरा-वग़ैरा चलती रहती थीं।

          होता ये है कि हम जिसको भुलाने की बहुत ज़्यादा कोशिश करते हैं उसको भुला पाना उतना ही मुश्किल होता चला जाता है।

          एक दूसरी कहानी, चिंटू और चिंकी की है। दोनों में बहुत और कुछ ज़्यादा ही बहुत, प्यार था। मोटर साइकिल एक्सिडेंट में चिंटू के क़ीमती प्राण पखेरू उड़ गये यानि मुहब्बत के बीच सफ़र में ही चिंटू 'टें' बोल गया। चिंकी पर दु:खों के सारे हिलस्टेशन टूट पड़े। चिंटू से सच्चा प्यार किया था चिंकी ने, इसलिए उसकी यादों को अपनी ज़िंदगी का मक़सद बनाए रखना चिंकी के लिए सबसे ज़्यादा ज़रूरी हो गया। चिंकी ने मन ही मन चिंटू को अपना पति मान लिया था।
          उसने एक लॉकेट बनवाया, जिसमें चिंटू का फ़ोटो और अपना फ़ोटो लगा लिया और गले में पहन लिया। अपने बॅडरूम की दीवारों पर बहुत सारे फ़ोटो चिंटू के लगा लिये। chintumemory.com के नाम से एक ब्लॉग भी शुरू कर दिया जिस पर चिंटू की फ़ोटो और दूसरी यादें अपडेट की जाने लगी। चिंटू ने जो ई-मेल किये थे और ई-कार्ड भेजे थे वो सब प्रिंट कराके अलबम बना ली गई। इस तरह से चिंकी के चारों तरफ चिंटू ही चिंटू घूमने लगा। 
धीरे-धीरे एक साल से अधिक गुज़र गया।
          चिंकी की एक समझदार सहेली ने एक दिन चिंकी से कहा "चिंटू को तुम भुला नहीं सकती... क्या वो तुम्हारी यादों में इतना बसा हुआ है"
"चिंटू को मैं कैसे भुला सकती हूँ... उसे भुलाने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता"... लेकिन तुमने ये सवाल पूछा ही क्यों ?
"देखो चिंकी ! तुमने चिंटू को याद रखने की बहुत कोशिश की और वो शायद इसलिए क्योंकि तुम ख़ुद को यह दिखाना चाहती हो कि तुम चिंटू से इतना प्यार करती हो कि उसे कभी भुला नहीं सकती लेकिन असलियत ये है कि तुम चिंटू को भूल चुकी हो और ज़बरदस्ती उसकी याद अपने मन में बनाए रखना चाहती हो"
"तुमको ऐसा क्यों लगता है ?"

चित्र:Blockquote-open.gif असल में हमारा दिमाग़ वरीयता क्रम के हिसाब से याददाश्त को सहेजता है। इस सम्बंध में मस्तिष्क, संवेदना से जुड़ी बातों को वरीयता क्रम में ऊपर रखता है। जो बातें सामान्यत: यांत्रिक रूप से हमें याद रखनी होती हैं अर्थात जिन घटनाओं, पाठों, व्यक्तियों आदि से सम्पर्क में आने पर हमारे शरीर का रक्तचाप, हृदय की धड़कन, आँखों का आकार बदलना, चेहरे की मांसपेशियों का फैलना-सिकुड़ना आदि प्रक्रियाऐं प्रभावित नहीं होती उनको अपनी याददाश्त में शामिल करने में मस्तिष्क की कोई विशेष रुचि नहीं होती। चित्र:Blockquote-close.gif

"मुझे ऐसा लगता नहीं है बल्कि ऐसा सचमुच है... तुम्हारे गले में जो लॉकेट है उसमें से चिंटू का फ़ोटो मैंने पंद्रह दिन पहले ही निकाल लिया था। जब तुम मेरे घर आयीं थीं और बाथरूम में इस लॉकेट को भूल गयी थीं। तुमको आज तक मालूम नहीं है कि लॉकेट में चिंटू का फ़ोटो नहीं है क्योंकि तुमने न जाने कितने महीनों से इस लॉकेट को खोल के ही नहीं देखा। तुमने जो चिंटू की अलबम बना कर अपने बॅडरूम में रखी हुई है उस अलबम के कई पन्ने मैंने काफ़ी पहले ही निकाल दिये थे उसका भी तुम्हें आजतक पता नहीं चला। ऐसा लगता है कि बहुत लम्बे समय से तुमने वो अलबम ही नहीं खोल कर देखी। इससे भी बड़ी बात ये है कि तुमने जो ब्लॉग चिंटू के लिए शुरू किया था उस पर मैंने पिछले महीने एक कमॅन्ट लिखा था, जिसमें लिखा था कि चिंकी अब चिंटू को पूरी तरह भुला चुकी है। वो कमैंट अभी भी तुम देख सकती हो... तुमने ना जाने कब से उस ब्लॉग को खोल के भी नहीं देखा... एक बात और है... तुम्हारे बॅडरूम में जो 15-20 फ़ोटो चिंटू के लगे हैं उनमें से एक मैंने बदल दिया था और वो फ़ोटो एक्टर सलमान ख़ान का है... तुमने तो ध्यान भी नहीं दिया... सही बात ये है चिंकी कि हम जिसे याद रखने की 'कोशिश' करते हैं उसे जल्द ही भुला देते हैं।" 
          
          ऊपर लिखी दोनों कहानियों से हमारी याददाश्त और भूल जाने की प्रक्रिया की कुछ झलक मिलती है। हम याद रखने की 'कोशिश' उन्हीं बातों के लिए करते हैं जिन्हें भूल जाने का डर होता है या फिर कहें तो जिन्हें हम याद ही नहीं रखना चाहते निश्चित ही ऐसी घटनाऐं, प्रसंग, बातें और व्यक्ति हमें प्रिय नहीं होते। इसी तरह जो कुछ भी हमें अच्छा लगता है अथवा हमारे लिए महत्त्वपूर्ण होता है उसे हम बिना किसी याद करने की कोशिश के ही भुला नहीं पाते।

एक और उदाहरण-
          बाज़ार में एक लड़के को उसके पिता के दोस्त मिले। उन्होंने इस लड़के को अपना नाम बताया और अपना फ़ोन नम्बर भी लिखवा दिया और कह दिया कि अपने पिताजी को बता देना कि वो मुझे फोन कर लेंगे। कुछ ही देर बाद इसी लड़के को इसकी क्लास में पढ़ने वाली एक ख़ूबसूरत लड़की मिली, जिसने इस लड़के को सिर्फ एक बार बोल कर अपना मोबाइल नम्बर बताया। घर आकर ये लड़का अपने पिता के दोस्त का नाम भूल चुका था और वो काग़ज़ भी गुम हो गया था जिसमें नम्बर लिखा था। जब दो दिन बाद इसके पिता ने अपने उसी मित्र का ज़िक्र किया तब इस लड़के को ध्यान आया कि वो तो बाज़ार में मिले थे और उन्होंने फोन नम्बर भी दिया था लेकिन लड़के को यह बताना याद नहीं रहा। उसी दिन वह लड़की भी मिली थी और उसका मोबाइल नम्बर सिर्फ़ एक बार बताने पर ही हमेशा के लिए याद हो गया था।

एक और उदाहरण-
          अमरीका में एक कॉलेज में एक लेडी-टीचर ने अनोखे प्रयोग किये। एक बार उसने रसायन विज्ञान का एक फ़ॉर्मूला छात्रों को याद करवाने की कोशिश की। कक्षा में केवल तीन छात्र ऐसे थे जो उस कठिन सूत्र को याद कर पाये थे। अगले दिन वो टीचर मिनी स्कर्ट पहनकर कक्षा में गयी और साथ ही अपनी टाँग पर मोटे पॅन से वो पूरा फ़ॉर्मूला भी लिख कर ले गयी। उस दिन कक्षा के सभी लड़कों को ये रसायन विज्ञान का कठिन सूत्र याद हो गया।
          याददाश्त के सम्बंध में मनुष्य का मस्तिष्क जिस तरह से व्यवहार करता है उसे यदि हम समझने में सफल हो जाएँ तो हमारी याददाश्त और एकाग्रता काफ़ी हद तक हमारे नियंत्रण में आ सकती है। भुलक्कड़पन जिसे हम कहते हैं वह कुशाग्र और विशेष बुद्धि वाले लोगों में सामान्य बात है। अनेक वैज्ञानिक, दार्शनिक, कलाकार आदि अपने इस भुलक्कड़ स्वभाव के लिए जाने जाते रहे हैं। इस भुलक्कड़ स्वभाव का अर्थ यह नहीं है कि वे अपने विषय से सम्बंधित बातों को भूल जाते थे बल्कि अपने विषय से भिन्न बातों को भूल जाना उनके लिए सामान्य प्रक्रिया है। इसका कारण भी वही है जो ऊपर बताया गया है।
          असल में हमारा दिमाग़ वरीयता क्रम के हिसाब से याददाश्त को सहेजता है। इस सम्बंध में मस्तिष्क, संवेदना से जुड़ी बातों को वरीयता क्रम में ऊपर रखता है। जो बातें सामान्यत: यांत्रिक रूप से हमें याद रखनी होती हैं अर्थात जिन घटनाओं, पाठों, व्यक्तियों आदि से सम्पर्क में आने पर हमारे शरीर का रक्तचाप, हृदय की धड़कन, आँखों का आकार बदलना, चेहरे की मासपेशियों का फैलना-सिकुड़ना आदि प्रक्रियाऐं प्रभावित नहीं होती उनको अपनी याददाश्त में शामिल करने में मस्तिष्क की कोई विशेष रुचि नहीं होती।

चित्र:Blockquote-open.gif मेरा विचार है कि मेरे इस लेख से नई पीढ़ी को कुछ ना कुछ लाभ अवश्य होगा। वैसे मैं अधिकतर सम्पादकीय इसलिए लिखता हूँ कि नई पीढ़ी, प्रत्येक विषय और समाज के प्रत्येक पक्ष को भली-भाँति समझ सके। चित्र:Blockquote-close.gif

          यदि इस सम्बंध में और अधिक सोचें तो हम देखते हैं कि हमें व्यक्तियों के चेहरे तो याद रह जाते हैं लेकिन उनके नाम आसानी से याद नहीं आते। इसी तरह फ़िल्मी गानों की धुनें तो हम गुनगुना पाते हैं लेकिन गाने के बोल हमें याद करने पड़ते हैं। छोटे बच्चे जानवरों की पहचान उनकी आवाजों से आसानी से कर लेते हैं जबकि उन्हीं जानवरों के नाम ठीक तरह से नहीं ले पाते। इसका कारण बहुत साधारण सा है कि भाषा मनुष्य निर्मित है और कालांतर में किसी भी भाषा के साहित्यिक रूप ने उस भाषा को ऐसा बना डाला कि मस्तिष्क को एक यंत्र की तरह प्रयोग किये बिना उस भाषा से परिचित नहीं हुआ जा सकता। 
          मस्तिष्क को वैज्ञानिकों ने एक कम्प्यूटर की तरह मानकर ही इसका अध्ययन किया है और यह अध्ययन लगातार जारी है। वैज्ञानिक मस्तिष्क की याददाश्त की क्षमता को अद्‌भुत मानते हैं और यह भी प्रमाणित है कि मस्तिष्क को जितने भी संदेश मिलते हैं वह उन्हें संचित कर लेता है। किंतु हिप्पोकॅम्पस में संचित इन संदेशों को पुन: प्रस्तुत करने के लिए मनुष्य के मस्तिष्क के पास कोई सुगम प्रणाली नहीं होती। कम्प्यूटर की भाषा में कहें तो 'स्टोर' की गई फ़ाइल का 'पाथ' मालूम नहीं होता। इसलिए हमें इन संचित, संचिकाओं को व्यवस्थित करने के लिए और आवश्यक समय पर उपयोग करने के लिए कुछ ना कुछ ऐसी प्रणालियों और संकेतों का सहारा लेना पड़ता है, जो इस कठिन कार्य को सरलीकृत कर सकें। 
          
          क्या हैं ये संकेत और प्रणालियाँ ? 

          किसी व्यक्ति को उसके नाम सहित याद रखने के लिए जो तरीक़ा सबसे प्रभावशाली माना गया है वह यह है कि जिस समय हम उस व्यक्ति से मिल रहे हैं तो उस व्यक्ति का एक विलक्षण रूप अपने मन में बनाकर उसका नाम याद करें। उदाहरण के लिए- आप एक राम नाम के एक व्यक्ति से मिलते हैं जिसने सूट और टाई पहनी हुई है तो मन में यह तस्वीर सोचिए कि इस व्यक्ति राम ने गले में मोर पंख लटका रखा है। ऐसा करने से आप इस व्यक्ति का चेहरा और नाम कभी नहीं भूलेंगे। 
          ऐसे बड़े-बड़े लेखों, जिनमें बहुत सारे शीर्षक हों, और शीर्षक आप को याद करने हों, तो इन शीर्षकों को एक साधारण सी कविता का रूप दे दीजिए साथ ही शीर्षक यदि लम्बा है तो उसे छोटा करके कविता बनायें।
          वस्तुनिष्ठ प्रश्न आज की दुनिया में परीक्षाओं की अनिवार्य आवश्यकता हो गई है। हज़ारों वस्तुविष्ठ प्रश्नों के उत्तर याद करना परीक्षार्थियों के लिए अक्सर चुनौती होती है। इसके लिए एक पुरानी पद्धति को अपनाना सबसे प्रभावकारी सिद्ध होता है। यह पद्धति गणित के पहाड़े याद करने वाली थी जिस तरह गाकर पहाड़े याद किये जाते थे उसी तरह वस्तुनिष्ठ प्रश्न भी याद किये जा सकते हैं। शीर्षकों और वस्तुनिष्ठ प्रश्नों को याद रखने के लिए इनका लिखा जाना और बोला जाना भी इनको याद रखने में बहुत सहायक होता है। जब हम किसी शब्द को बोलकर लिखते हैं तो आँखों के द्वारा उस शब्द की तस्वीर मस्तिष्क में संचित हो जाती है। इसी तरह कानों के द्वारा उस शब्द की ध्वनि को भी मस्तिष्क संजो लेता है। जब पुन: इस शब्द की आवश्यकता हमें होती है तो इसे उपस्थित करने में मस्तिष्क को अपेक्षाकृत अधिक सरलता होती है। 
          मेरा विचार है कि मेरे इस लेख से नई पीढ़ी को कुछ ना कुछ लाभ अवश्य होगा। वैसे मैं अधिकतर सम्पादकीय इसलिए लिखता हूँ कि नई पीढ़ी, प्रत्येक विषय और समाज के प्रत्येक पक्ष को भली-भाँति समझ सके।  
                  
इस सप्ताह इतना ही... अगले सप्ताह कुछ और...
-आदित्य चौधरी
संस्थापक एवं प्रधान सम्पादक




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