अपने आप पर -आदित्य चौधरी: Difference between revisions

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कभी क्षुब्ध होता हूँ
कभी क्षुब्ध होता हूँ
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अपने आप पर
अपने आप पर


    कभी कुंठाग्रस्त मौन
कभी कुंठाग्रस्त मौन
    ही मेरा आवरण
ही मेरा आवरण
    तो कभी कहीं इतना मुखर
तो कभी कहीं इतना मुखर
    कि जैसे आकश ही मेरा घर
कि जैसे आकश ही मेरा घर


कभी तरस जाता हूँ
कभी तरस जाता हूँ
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रह रह कर
रह रह कर


    कभी धमनियों का रक्त ही
कभी धमनियों का रक्त ही
    जैसे जम जाता है
जैसे जम जाता है
    एक रोटी के लिए
एक रोटी के लिए
    सड़क पर बच्चों की
सड़क पर बच्चों की
    कलाबाज़ी देख कर
कलाबाज़ी देख कर


कभी चमक लाता है
कभी चमक लाता है
Line 38: Line 38:
निडर हो कर
निडर हो कर


    कभी सूरज की रौशनी भी
कभी सूरज की रौशनी भी
    कम पड़ जाती है
कम पड़ जाती है
    तो कभी अच्छा लगता है
तो कभी अच्छा लगता है
    कि चाँद भी दिखे तो
कि चाँद भी दिखे तो
    दूज बन कर
दूज बन कर


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Latest revision as of 14:00, 4 October 2014

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अपने आप पर -आदित्य चौधरी

कभी क्षुब्ध होता हूँ
अपने आप से
तो कभी मुग्ध होता हूँ
अपने आप पर

कभी कुंठाग्रस्त मौन
ही मेरा आवरण
तो कभी कहीं इतना मुखर
कि जैसे आकश ही मेरा घर

कभी तरस जाता हूँ
एक मुस्कान के लिए
या गूँजता है मेरा अट्टहास
अनवरत
रह रह कर

कभी धमनियों का रक्त ही
जैसे जम जाता है
एक रोटी के लिए
सड़क पर बच्चों की
कलाबाज़ी देख कर

कभी चमक लाता है
आखों में मिरी
उसका छीन लेना
अपने हक़ को
निडर हो कर

कभी सूरज की रौशनी भी
कम पड़ जाती है
तो कभी अच्छा लगता है
कि चाँद भी दिखे तो
दूज बन कर