कवि और कविता -रामधारी सिंह दिनकर: Difference between revisions
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[[हिन्दी]] के बृहत्रयी कवि कौन हैं? [[तुलसीदास]], [[सूरदास]] और [[विद्यापति]] अथवा तुलसीदास, सूरदास और [[कबीर]]? इसका निर्णय आसानी से नहीं किया जा सकता, यद्यपि मत है कि बृहत्रयी की पंक्ति में तीसरे स्थान का अधिकार विद्यापति को ही होना चाहिए। [[हिन्दी साहित्य]] के [[इतिहास]] में विद्यापति 'वीरगाथा काल' के [[कवि]] माने जाते हैं, यद्यपि युद्ध का कुछ थोड़ा वर्णन उनकी 'कीर्तिलता' में ही मिलता है और 'कीर्तिलता' विद्यापति की प्रतिनिधि रचना तो मानी ही नहीं जा सकती। उनकी असली प्रतिभा तो उनके पदों में निखरी है और विद्यापति के पद किसी प्रकार [[चन्दबरदाई]] एवं [[आल्हा खण्ड|आल्हखंड]] के रचयिताओं की कविताओं में मिश्रित नहीं किए जा सकते। लोग विद्यापति को '[[भक्ति काल]]' के कवियों में गिनने से भी हिचकते हैं, क्योंकि विद्यापति का प्रधान स्वर आनन्द का स्वर है, दैहिक आनन्द का स्वर है एवं [[राधा]]-[[कृष्ण]] के नाम उन्होंने नायक-नायिका के रूप में ही लिए हैं। उनका नाम '[[रीतिकाल]]' के भीतर भी खपाया नहीं जा सकता, क्योंकि, यद्यपि, उनके पद पर स्पष्ट गवाही देते हैं कि उन्हें रीतियों का भरपूर ज्ञान था, फिर भी रीति, [[रस]] या [[अलंकार|अलंकारों]] के उदाहरण उपस्थित करने के लिए उन्होंने पदों की रचना नहीं की थी। इस प्रकार विद्यापति किसी भी वर्ग में समा नहीं सकते। उनसे सत्कार के लिए ऐसा सिंहासन चाहिए जिस पर केवल वहीं बैठ सकते हैं। वे केवल [[कवि]] थे और [[कविता]] में सौन्दर्य और आनन्द को छोड़कर वे और किसी बात को स्थान नहीं देते थे।<ref name="aa"/> | [[हिन्दी]] के बृहत्रयी कवि कौन हैं? [[तुलसीदास]], [[सूरदास]] और [[विद्यापति]] अथवा तुलसीदास, सूरदास और [[कबीर]]? इसका निर्णय आसानी से नहीं किया जा सकता, यद्यपि मत है कि बृहत्रयी की पंक्ति में तीसरे स्थान का अधिकार विद्यापति को ही होना चाहिए। [[हिन्दी साहित्य]] के [[इतिहास]] में विद्यापति 'वीरगाथा काल' के [[कवि]] माने जाते हैं, यद्यपि युद्ध का कुछ थोड़ा वर्णन उनकी 'कीर्तिलता' में ही मिलता है और 'कीर्तिलता' विद्यापति की प्रतिनिधि रचना तो मानी ही नहीं जा सकती। उनकी असली प्रतिभा तो उनके पदों में निखरी है और विद्यापति के पद किसी प्रकार [[चन्दबरदाई]] एवं [[आल्हा खण्ड|आल्हखंड]] के रचयिताओं की कविताओं में मिश्रित नहीं किए जा सकते। लोग विद्यापति को '[[भक्ति काल]]' के कवियों में गिनने से भी हिचकते हैं, क्योंकि विद्यापति का प्रधान स्वर आनन्द का स्वर है, दैहिक आनन्द का स्वर है एवं [[राधा]]-[[कृष्ण]] के नाम उन्होंने नायक-नायिका के रूप में ही लिए हैं। उनका नाम '[[रीतिकाल]]' के भीतर भी खपाया नहीं जा सकता, क्योंकि, यद्यपि, उनके पद पर स्पष्ट गवाही देते हैं कि उन्हें रीतियों का भरपूर ज्ञान था, फिर भी रीति, [[रस]] या [[अलंकार|अलंकारों]] के उदाहरण उपस्थित करने के लिए उन्होंने पदों की रचना नहीं की थी। इस प्रकार विद्यापति किसी भी वर्ग में समा नहीं सकते। उनसे सत्कार के लिए ऐसा सिंहासन चाहिए जिस पर केवल वहीं बैठ सकते हैं। वे केवल [[कवि]] थे और [[कविता]] में सौन्दर्य और आनन्द को छोड़कर वे और किसी बात को स्थान नहीं देते थे।<ref name="aa"/> | ||
कविताएँ रचते समय विद्यापति को इस बात का ध्यान नहीं रहता था कि वे उद्भट् | कविताएँ रचते समय विद्यापति को इस बात का ध्यान नहीं रहता था कि वे उद्भट् विद्वान् भी है। उन्होंने जो कुछ लिखा, सहज, सुन्दर और आनन्दमय भाव से लिखा, सौन्दर्य से छककर लिखा, मस्ती के तूफान में लिखा। कविताएँ उनका आत्म-निवेदन नहीं, आत्माभिव्यक्ति हैं। मानव-शरीर की सुन्दरता एवं नर-नारी के प्रणय-व्यापार पर उनकी इतनी श्रद्धा है कि इनका वर्णन करने में उन्हें कहीं भी हिचकिचाहट नहीं होती। श्रृंगारिक कवि तो हमारे साहित्य में एक से बढ़कर एक हुए हैं, किन्तु, श्रृंगार की जो सहजता विद्यापति में है, वह अन्यत्र नहीं दिखाई देती। प्राचीन कवियों से आधुनिक पाठकों की एक शिकायत यह रहती है कि श्रृंगार-वर्णन करते हुए ये कवि अपनी वासना अथवा अपनी उमंग को सीधे न कहकर किसी राजा अथवा लोकोत्तर नायक के मुख से व्यक्त करते हैं। ऐसा होने से प्रेमानुभूति की स्वाभाविकता कुछ मद्विम पड़ जाती है। किन्तु विद्यापति इसके अपवाद हैं। नारी को देखकर नर और नर को देखकर नारी में जो सहज स्वाभाविक आकर्षण जागता है उसका रहस्य सबको ज्ञात है। किन्तु विद्यापति ने इस अनुभूति को जिस निच्छलता से व्यक्त किया है, वह सफाई, वह सच्चाई और वह निश्छलता और कहीं नहीं मिलती- | ||
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कवि और कविता -रामधारी सिंह दिनकर
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कवि | रामधारी सिंह दिनकर |
मूल शीर्षक | 'कवि और कविता' |
प्रकाशक | लोकभारती प्रकाशन |
ISBN | 978-81-8031-324 |
देश | भारत |
भाषा | हिंदी |
विधा | लेख-निबन्ध |
मुखपृष्ठ रचना | सजिल्द |
विशेष | रामधारी सिंह 'दिनकर' के इस संग्रह में विभिन्न विषयों के ज्वलंत प्रश्नों पर उनका मौलिक चिंतन आज भी सार्थक और उपादेय है। |
कवि और कविता भारत के ख्याति प्राप्त राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' के छब्बीस विचारोत्तेजक निबन्धों का मात्र पठनीय ही नहीं, अपितु संग्रहणीय संकलन भी है। दिनकर जी के इस संग्रह में विभिन्न विषयों के ज्वलंत प्रश्नों पर उनका मौलिक चिंतन आज भी सार्थक और उपादेय है।
संग्रह
रामधारी सिंह 'दिनकर' के इस संग्रह में- मैथिल कोकिल विद्यापति, विद्यापति और ब्रजबुलि, कबीर साहब से भेंट, गुप्तजी : कवि के रूप में, महादेवीजी की वेदना, कविवर मधुर, रवीन्द्र-जयन्ती के दिन, कला के अर्धनारीश्वर, महर्षि अरविन्द की साहित्य-साधना, रजत और आलोक की कविता, मराठी के कवि केशवसुत और समकालीन हिन्दी कविता, शेक्सपियर, इलियट का हिन्दी अनुवाद-जैसे शाश्वत विषयों के अतिरिक्त-कविता में परिवेश और मूल्य, कविता, राजनीति और विज्ञान, युद्ध और कविता, कविता का भविष्य, महाकाव्य की वेला, हिन्दी-साहित्य में निर्गुण धारा, निर्गुण पन्थ की सामाजिक पृष्ठभूमि, सगुणोपासना, हिन्दी कविता में एकता का प्रवाह, सर्वभाषा कवि-सम्मेलन, नत्र कविता के उत्थान की रेखाएँ, चार काव्य-संग्रह डोगरी की कविताएँ, जैसे ज्वलंत प्रश्नों पर राष्ट्रकवि दिनकर का मौलिक चिन्तन आज भी उतना ही सार्थक और उपादेय है।[1]
भाषा-शैली
सरल-सुबोध भाषा-शैली तथा नए कलेवर में सजाई सँवारी गई कविवर-विचारक रामधारी सिंह 'दिनकर' की यह एक अनुपम कृति है।
मैथिल कोकिल विद्यापति
हिन्दी के बृहत्रयी कवि कौन हैं? तुलसीदास, सूरदास और विद्यापति अथवा तुलसीदास, सूरदास और कबीर? इसका निर्णय आसानी से नहीं किया जा सकता, यद्यपि मत है कि बृहत्रयी की पंक्ति में तीसरे स्थान का अधिकार विद्यापति को ही होना चाहिए। हिन्दी साहित्य के इतिहास में विद्यापति 'वीरगाथा काल' के कवि माने जाते हैं, यद्यपि युद्ध का कुछ थोड़ा वर्णन उनकी 'कीर्तिलता' में ही मिलता है और 'कीर्तिलता' विद्यापति की प्रतिनिधि रचना तो मानी ही नहीं जा सकती। उनकी असली प्रतिभा तो उनके पदों में निखरी है और विद्यापति के पद किसी प्रकार चन्दबरदाई एवं आल्हखंड के रचयिताओं की कविताओं में मिश्रित नहीं किए जा सकते। लोग विद्यापति को 'भक्ति काल' के कवियों में गिनने से भी हिचकते हैं, क्योंकि विद्यापति का प्रधान स्वर आनन्द का स्वर है, दैहिक आनन्द का स्वर है एवं राधा-कृष्ण के नाम उन्होंने नायक-नायिका के रूप में ही लिए हैं। उनका नाम 'रीतिकाल' के भीतर भी खपाया नहीं जा सकता, क्योंकि, यद्यपि, उनके पद पर स्पष्ट गवाही देते हैं कि उन्हें रीतियों का भरपूर ज्ञान था, फिर भी रीति, रस या अलंकारों के उदाहरण उपस्थित करने के लिए उन्होंने पदों की रचना नहीं की थी। इस प्रकार विद्यापति किसी भी वर्ग में समा नहीं सकते। उनसे सत्कार के लिए ऐसा सिंहासन चाहिए जिस पर केवल वहीं बैठ सकते हैं। वे केवल कवि थे और कविता में सौन्दर्य और आनन्द को छोड़कर वे और किसी बात को स्थान नहीं देते थे।[1]
कविताएँ रचते समय विद्यापति को इस बात का ध्यान नहीं रहता था कि वे उद्भट् विद्वान् भी है। उन्होंने जो कुछ लिखा, सहज, सुन्दर और आनन्दमय भाव से लिखा, सौन्दर्य से छककर लिखा, मस्ती के तूफान में लिखा। कविताएँ उनका आत्म-निवेदन नहीं, आत्माभिव्यक्ति हैं। मानव-शरीर की सुन्दरता एवं नर-नारी के प्रणय-व्यापार पर उनकी इतनी श्रद्धा है कि इनका वर्णन करने में उन्हें कहीं भी हिचकिचाहट नहीं होती। श्रृंगारिक कवि तो हमारे साहित्य में एक से बढ़कर एक हुए हैं, किन्तु, श्रृंगार की जो सहजता विद्यापति में है, वह अन्यत्र नहीं दिखाई देती। प्राचीन कवियों से आधुनिक पाठकों की एक शिकायत यह रहती है कि श्रृंगार-वर्णन करते हुए ये कवि अपनी वासना अथवा अपनी उमंग को सीधे न कहकर किसी राजा अथवा लोकोत्तर नायक के मुख से व्यक्त करते हैं। ऐसा होने से प्रेमानुभूति की स्वाभाविकता कुछ मद्विम पड़ जाती है। किन्तु विद्यापति इसके अपवाद हैं। नारी को देखकर नर और नर को देखकर नारी में जो सहज स्वाभाविक आकर्षण जागता है उसका रहस्य सबको ज्ञात है। किन्तु विद्यापति ने इस अनुभूति को जिस निच्छलता से व्यक्त किया है, वह सफाई, वह सच्चाई और वह निश्छलता और कहीं नहीं मिलती-
ततहि धाओल दुहुं लोचन के
जतए गेलि वर नारि,
आशा लुबुध न तेजइ रे
कृपनक पाछु भिखारि।
अर्थात् "जहाँ-जहाँ वह श्रेष्ठ सुन्दरी जाती है, मेरे दोनों लोचन वहीं-वहीं दौड़ रहे हैं, मानों आशा के लोभ में पड़ा हुआ भिखारी कारण का पीछा न छोड़ रहा हो।" यह प्राकृतिक पुरुष का निश्चल उद्गार है और इसका प्रभाव इसीलिए पड़ता है कि यह निश्चलता से कहा गया है, बिना हिचक के कहा गया है, कृष्ण या आश्रयदाता राजा की ओर से नहीं, सीधे कवि की ओर से कहा गया है।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 कवि और कविता (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 12 अक्टूबर, 2013।
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