गुरु हरगोबिंद सिंह: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
No edit summary
No edit summary
 
(4 intermediate revisions by 4 users not shown)
Line 8: Line 8:
|मृत्यु=[[3 मार्च]], 1644
|मृत्यु=[[3 मार्च]], 1644
|मृत्यु स्थान= कीरतपुर, ([[पंजाब]])  
|मृत्यु स्थान= कीरतपुर, ([[पंजाब]])  
|अविभावक=माता गंगा पिता [[गुरु अर्जन देव]]
|अभिभावक=[[माता]]- गंगा, [[पिता]]- [[गुरु अर्जन देव]]
|पति/पत्नी=
|पति/पत्नी=
|संतान=
|संतान=
Line 39: Line 39:
|अद्यतन=
|अद्यतन=
}}
}}
'''गुरु हरगोबिंद सिंह''' ([[अंग्रेज़ी]]:''Guru Hargobind Singh'')  [[सिक्ख|सिक्खों]] के छठे गुरु थे,  जिनका जन्म माता गंगा व पिता [[गुरु अर्जुन सिंह]] के यहाँ [[14 जून]], सन् 1595 ई. में बडाली ([[भारत]]) में हुआ था। गुरु हरगोबिंद सिंह ने एक मज़बूत सिक्ख सेना संगठित की और अपने पिता गुरु अर्जुन के (मुग़ल शासकों (1606) के हाथों पहले सिख शहीद) निर्देशानुसार सिक्ख पंथ को योद्धा-चरित्र प्रदान किया था।
'''गुरु हरगोबिंद सिंह''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Guru Hargobind Singh'')  [[सिक्ख|सिक्खों]] के छठे गुरु थे,  जिनका जन्म माता गंगा व पिता [[गुरु अर्जुन सिंह]] के यहाँ [[14 जून]], सन् 1595 ई. में बडाली ([[भारत]]) में हुआ था। गुरु हरगोबिंद सिंह ने एक मज़बूत सिक्ख सेना संगठित की और अपने पिता गुरु अर्जुन के (मुग़ल शासकों के हाथों 1606 में पहले सिक्ख शहीद) निर्देशानुसार सिक्ख पंथ को योद्धा-चरित्र प्रदान किया था। गुरु हरगोबिंद सिंह [[25 मई]], 1606 ई. को सिक्खों के छठे गुरु बने थे और वे इस पद पर [[28 फ़रवरी]], 1644 ई. तक रहे।
 
==इतिहास==
==इतिहास==
गुरु हरगोविंद से पहले सिक्ख पंथ निष्क्रिय था। प्रतीक रूप में अस्त्र-शस्त्र धारण कर, हरगोविंद गुरु के तख़्त पर बैठे। उन्होंने अपना ज़्यादातर समय युद्ध प्रशिक्षण एव युद्ध कला में लगाया तथा बाद में वह कुशल तलवारबाज़ और कुश्ती व घुड़ सवारी में माहिर हो गए। तमाम विरोध के बावज़ूद हरगोविंद ने अपनी सेना संगठित की और अपने शहरों की क़िलेबंदी की। 1609 में उन्होंने [[अमृतसर]] में [[अकाल तख्त]] (ईश्वर का सिंहासन ) का निर्माण किया, इसमें संयुक्त रूप से एक मंदिर और सभागार हैं, जहाँ सिख-राष्ट्रीयता से संबंधित आध्यात्मिक और सांसारिक मामलों को निपटाया जा सकता था।
गुरु हरगोविंद से पहले सिक्ख पंथ निष्क्रिय था। प्रतीक रूप में अस्त्र-शस्त्र धारण कर, हरगोविंद गुरु के तख़्त पर बैठे। उन्होंने अपना ज़्यादातर समय युद्ध प्रशिक्षण एव युद्ध कला में लगाया तथा बाद में वह कुशल तलवारबाज़ और कुश्ती व घुड़ सवारी में माहिर हो गए। तमाम विरोध के बावज़ूद हरगोविंद ने अपनी सेना संगठित की और अपने शहरों की क़िलेबंदी की। 1609 में उन्होंने [[अमृतसर]] में [[अकाल तख्त]] (ईश्वर का सिंहासन ) का निर्माण किया, इसमें संयुक्त रूप से एक मंदिर और सभागार हैं, जहाँ सिख-राष्ट्रीयता से संबंधित आध्यात्मिक और सांसारिक मामलों को निपटाया जा सकता था।
==सिक्खों के प्रति आस्था==
==सिक्खों के प्रति आस्था==
उन्होंने अमृतसर के निकट एक क़िला बनवाया और उसका नाम लौहगढ़ रखा। उन्होंने बड़ी कुशलता से अपने अनुयायियों में युद्ध के लिए इच्छाशक्ति और आत्मविश्वास पैदा किया। [[मुग़ल]] बदशाह [[जहाँगीर]] ने [[सिक्ख|सिक्खों]] की मज़बूत होती हुई स्थिति को ख़तरा मानकर गुरु हरगोबिंद सिंह को [[ग्वालियर]] में क़ैद कर लिया। गुरु हरगोबिंद सिंह बारह वर्षो तक क़ैद में रहे, लेकिन उनके प्रति सिक्खों की आस्था और मज़बूत हुई। अंतत: मुग़लों का विरोध करने वाले भारतीय राज्यों के ख़िलाफ़ सिक्खों का समर्थन प्राप्त करने के उद्देश्य से बादशाह पीछे हटे और गुरु को रिहा कर दिया। हरगोबिंद ने यह भाँपकर कि मुग़लों के साथ संघर्ष का समय नज़दीक है, अपनी पुरानी युद्ध नीति जारी रखी।
उन्होंने अमृतसर के निकट एक क़िला बनवाया और उसका नाम लौहगढ़ रखा। उन्होंने बड़ी कुशलता से अपने अनुयायियों में युद्ध के लिए इच्छाशक्ति और आत्मविश्वास पैदा किया। [[मुग़ल]] बदशाह [[जहाँगीर]] ने [[सिक्ख|सिक्खों]] की मज़बूत होती हुई स्थिति को ख़तरा मानकर गुरु हरगोबिंद सिंह को [[ग्वालियर]] में क़ैद कर लिया। गुरु हरगोबिंद सिंह बारह वर्षो तक क़ैद में रहे, लेकिन उनके प्रति सिक्खों की आस्था और मज़बूत हुई। अंतत: मुग़लों का विरोध करने वाले भारतीय राज्यों के ख़िलाफ़ सिक्खों का समर्थन प्राप्त करने के उद्देश्य से बादशाह पीछे हटे और गुरु को रिहा कर दिया। हरगोबिंद ने यह भाँपकर कि मुग़लों के साथ संघर्ष का समय नज़दीक है, अपनी पुरानी युद्ध नीति जारी रखी।
==धर्म की रक्षा==
==धर्म की रक्षा==
[[जहाँगीर]] की मृत्यु (1627) के बाद नए मुग़ल बादशाह [[शाहजहाँ]] ने उग्रता से सिक्खों पर अत्याचार शुरू किया। मुग़लों की अजेयता को झुठलाते हुए गुरु हरगोविंद के नेतृव्य में सिक्खों ने चार बार शाहजहाँ की सेना को मात दी। इस प्रकार अपने पूर्वजों द्वारा स्थापित आदर्शों में गुरु हरगोबिंद सिंह ने एक और आदर्श जोड़ा, सिक्खों का यह अधिकार और कर्तव्य है कि अगर ज़रुरत हो, तो वे तलवार उठाकर भी अपने धर्म की रक्षा करें। अपनी मृत्यु से ठीक पहले गुरु हरगोविंद ने अपने पोते [[गुरु हर राय]] को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।
[[जहाँगीर]] की मृत्यु (1627) के बाद नए मुग़ल बादशाह [[शाहजहाँ]] ने उग्रता से सिक्खों पर अत्याचार शुरू किया। मुग़लों की अजेयता को झुठलाते हुए गुरु हरगोविंद के नेतृव्य में सिक्खों ने चार बार शाहजहाँ की सेना को मात दी। इस प्रकार अपने पूर्वजों द्वारा स्थापित आदर्शों में गुरु हरगोबिंद सिंह ने एक और आदर्श जोड़ा, सिक्खों का यह अधिकार और कर्तव्य है कि अगर ज़रुरत हो, तो वे तलवार उठाकर भी अपने धर्म की रक्षा करें। अपनी मृत्यु से ठीक पहले गुरु हरगोविंद ने अपने पोते [[गुरु हर राय]] को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।
==सिक्ख धर्म में दीवाली==
==सिक्ख धर्म में दीवाली==
सिक्खों के छठे गुरु हरगोबिंद सिंह जी को [[दीवाली]] वाले दिन मुग़ल बादशाह जहाँगीर की क़ैद से मुक्ति मिली थी। गुरु हरगोबिंद सिंह जी की बढ़ती शक्ति से घबरा कर मुग़ल बादशाह जहाँगीर ने उन्हें और उनके 52 साथियों को ग्वालियर के क़िले में बंदी बनाया हुआ था। जहाँगीर ने सन् 1619 ई. में देश भर के लोगों द्वारा हरगोविंद सिंह जी को छोड़ने की अपील पर गुरु को दीवाली वाले दिन मुक्त किया था। हरगोविंद सिंह जी  कैद से मुक्त होते ही अमृतसर पहुँचे और वहाँ विशेष प्रार्थना का आयोजन किया गया। हरगोविंद सिंह जी के रिहा होने की खुशी में गुरु की माता ने सभी लोगों में मिठाई बाँटी और चारों ओर दीप जलाए गए। इसी वज़ह से [[सिक्ख]] धर्म में दीवाली को 'बंदी छोड़ दिवस' के रूप में मनाया जाता है। सन् 1577 में दीवाली के दिन ही अमृतसर के प्रसिद्घ स्वर्ण मंदिर की नींव रखी गई थी। [[सिक्ख धर्म]] में दीवाली के त्योहार को तीन दिन तक आनंद के साथ मनाया जाता है। अमृतसर में दीवाली के दिन विशेष समारोह का आयोजन किया जाता है, जिसमें दूर-दूर से लोग आते हैं। पवित्र सरोवर में इस दिन लोग सुबह-सुबह डुबकी लगाते हैं और [[स्वर्ण मंदिर]] के दर्शन करते हैं।  
सिक्खों के छठे गुरु हरगोबिंद सिंह जी को [[दीवाली]] वाले दिन मुग़ल बादशाह जहाँगीर की क़ैद से मुक्ति मिली थी। गुरु हरगोबिंद सिंह जी की बढ़ती शक्ति से घबरा कर मुग़ल बादशाह जहाँगीर ने उन्हें और उनके 52 साथियों को ग्वालियर के क़िले में बंदी बनाया हुआ था। जहाँगीर ने सन् 1619 ई. में देश भर के लोगों द्वारा हरगोविंद सिंह जी को छोड़ने की अपील पर गुरु को दीवाली वाले दिन मुक्त किया था। हरगोविंद सिंह जी  कैद से मुक्त होते ही अमृतसर पहुँचे और वहाँ विशेष प्रार्थना का आयोजन किया गया। हरगोविंद सिंह जी के रिहा होने की खुशी में गुरु की माता ने सभी लोगों में मिठाई बाँटी और चारों ओर दीप जलाए गए। इसी वज़ह से [[सिक्ख]] धर्म में दीवाली को 'बंदी छोड़ दिवस' के रूप में मनाया जाता है। सन् 1577 में दीवाली के दिन ही अमृतसर के प्रसिद्घ स्वर्ण मंदिर की नींव रखी गई थी। [[सिक्ख धर्म]] में दीवाली के त्योहार को तीन दिन तक आनंद के साथ मनाया जाता है। अमृतसर में दीवाली के दिन विशेष समारोह का आयोजन किया जाता है, जिसमें दूर-दूर से लोग आते हैं। पवित्र सरोवर में इस दिन लोग सुबह-सुबह डुबकी लगाते हैं और [[स्वर्ण मंदिर]] के दर्शन करते हैं।  
==हस्तलिखित लेख==
==हस्तलिखित लेख==
[[बदायूँ]] में कांशीरामगनर जनपद के [[क़स्बा]] [[सोरो]] में सिक्खों के गुरु श्री हरगोविंद सिंह जी महाराज का हस्तलिखित लेख (हुकुमनामा) मिला है। नानकमत्ता के कारसेवक बाबा तरसेम सिंह ने आज वहाँ जाकर उसे देखा और उसे हासिल करने के प्रयास शुरू कर दिए हैं।
[[बदायूँ]] में कांशीरामगनर जनपद के [[क़स्बा]] [[सोरो]] में सिक्खों के गुरु श्री हरगोविंद सिंह जी महाराज का हस्तलिखित लेख (हुकुमनामा) मिला है। नानकमत्ता के कारसेवक बाबा तरसेम सिंह ने आज वहाँ जाकर उसे देखा और उसे हासिल करने के प्रयास शुरू कर दिए हैं।
==मृत्यु==  
==मृत्यु==  
बादशाह जहाँगीर के आदेश से पाँचवें [[गुरु अर्जन देव|गुरु अर्जुन]] को फ़ाँसी दे दी जाने पर गुरु हरगोबिंद सिंह गद्दी पर बैठे। वे केवल धर्मोपदेशक ही नहीं, कुशल संगठनकर्ता भी थे और उन्होंने अपने अनुयायियों को शस्त्र धारण करने के लिए प्रेरित किया तथा छोटी सी सेना इकट्ठी कर ली। इससे कुपित होकर बादशाह जहाँगीर ने उनको बारह वर्ष तक क़ैद में डाले रखा। रिहा होने पर उन्होंने शाहजहाँ के ख़िलाफ़ बगावत कर दी और 1628 ई. में अमृतसर के निकट संग्राम में शाही फ़ौज को हरा दिया। अंत में उन्हें [[कश्मीर]] के पहाड़ में शरण लेनी पड़ी, जहाँ सन् 1644 ई. में [[कीरतपुर]] ([[पंजाब]]) [[भारत]] में उनकी मृत्यु हो गई।
[[जहाँगीर|बादशाह जहाँगीर]] के आदेश से पाँचवें [[गुरु अर्जन देव|गुरु अर्जुन]] को फ़ाँसी दे दी जाने पर गुरु हरगोबिंद सिंह गद्दी पर बैठे। वे केवल धर्मोपदेशक ही नहीं, कुशल संगठनकर्ता भी थे और उन्होंने अपने अनुयायियों को शस्त्र धारण करने के लिए प्रेरित किया तथा छोटी सी सेना इकट्ठी कर ली। इससे कुपित होकर बादशाह जहाँगीर ने उनको बारह वर्ष तक क़ैद में डाले रखा। रिहा होने पर उन्होंने शाहजहाँ के ख़िलाफ़ बगावत कर दी और 1628 ई. में अमृतसर के निकट संग्राम में शाही फ़ौज को हरा दिया। अंत में उन्हें [[कश्मीर]] के पहाड़ में शरण लेनी पड़ी, जहाँ सन 1644 ई. में [[कीरतपुर]] ([[पंजाब]]) [[भारत]] में उनकी मृत्यु हो गई।




Line 67: Line 61:
==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==
{{सिक्ख धर्म}}
{{सिक्ख धर्म}}
[[Category:सिक्ख_धर्म_कोश]]
[[Category:सिक्ख_धर्म_कोश]][[Category:सिक्खों_के_गुरु]][[Category:प्रसिद्ध व्यक्तित्व कोश]][[Category:चरित कोश]][[Category:सिक्ख धर्म]]
[[Category:सिक्खों_के_गुरु]]
[[Category:प्रसिद्ध व्यक्तित्व कोश]][[Category:चरित कोश]]
[[Category:सिक्ख धर्म]]
__INDEX__
__INDEX__
__NOTOC__
__NOTOC__

Latest revision as of 05:16, 14 June 2018

गुरु हरगोबिंद सिंह
जन्म 14 जून, सन् 1595
जन्म भूमि बडाली, अमृतसर
मृत्यु 3 मार्च, 1644
मृत्यु स्थान कीरतपुर, (पंजाब)
अभिभावक माता- गंगा, पिता- गुरु अर्जन देव
कर्म भूमि भारत
पुरस्कार-उपाधि सिक्खों के छ्ठे गुरु
विशेष योगदान गुरु हरगोबिंद सिंह ने एक मज़बूत सिक्ख सेना संगठित की और अपने पिता गुरु अर्जुन के निर्देशानुसार सिक्ख पंथ को योद्धा-चरित्र प्रदान किया था।
नागरिकता भारतीय
पूर्वाधिकारी गुरु अर्जन देव
उत्तराधिकारी गुरु हरराय

गुरु हरगोबिंद सिंह (अंग्रेज़ी: Guru Hargobind Singh) सिक्खों के छठे गुरु थे, जिनका जन्म माता गंगा व पिता गुरु अर्जुन सिंह के यहाँ 14 जून, सन् 1595 ई. में बडाली (भारत) में हुआ था। गुरु हरगोबिंद सिंह ने एक मज़बूत सिक्ख सेना संगठित की और अपने पिता गुरु अर्जुन के (मुग़ल शासकों के हाथों 1606 में पहले सिक्ख शहीद) निर्देशानुसार सिक्ख पंथ को योद्धा-चरित्र प्रदान किया था। गुरु हरगोबिंद सिंह 25 मई, 1606 ई. को सिक्खों के छठे गुरु बने थे और वे इस पद पर 28 फ़रवरी, 1644 ई. तक रहे।

इतिहास

गुरु हरगोविंद से पहले सिक्ख पंथ निष्क्रिय था। प्रतीक रूप में अस्त्र-शस्त्र धारण कर, हरगोविंद गुरु के तख़्त पर बैठे। उन्होंने अपना ज़्यादातर समय युद्ध प्रशिक्षण एव युद्ध कला में लगाया तथा बाद में वह कुशल तलवारबाज़ और कुश्ती व घुड़ सवारी में माहिर हो गए। तमाम विरोध के बावज़ूद हरगोविंद ने अपनी सेना संगठित की और अपने शहरों की क़िलेबंदी की। 1609 में उन्होंने अमृतसर में अकाल तख्त (ईश्वर का सिंहासन ) का निर्माण किया, इसमें संयुक्त रूप से एक मंदिर और सभागार हैं, जहाँ सिख-राष्ट्रीयता से संबंधित आध्यात्मिक और सांसारिक मामलों को निपटाया जा सकता था।

सिक्खों के प्रति आस्था

उन्होंने अमृतसर के निकट एक क़िला बनवाया और उसका नाम लौहगढ़ रखा। उन्होंने बड़ी कुशलता से अपने अनुयायियों में युद्ध के लिए इच्छाशक्ति और आत्मविश्वास पैदा किया। मुग़ल बदशाह जहाँगीर ने सिक्खों की मज़बूत होती हुई स्थिति को ख़तरा मानकर गुरु हरगोबिंद सिंह को ग्वालियर में क़ैद कर लिया। गुरु हरगोबिंद सिंह बारह वर्षो तक क़ैद में रहे, लेकिन उनके प्रति सिक्खों की आस्था और मज़बूत हुई। अंतत: मुग़लों का विरोध करने वाले भारतीय राज्यों के ख़िलाफ़ सिक्खों का समर्थन प्राप्त करने के उद्देश्य से बादशाह पीछे हटे और गुरु को रिहा कर दिया। हरगोबिंद ने यह भाँपकर कि मुग़लों के साथ संघर्ष का समय नज़दीक है, अपनी पुरानी युद्ध नीति जारी रखी।

धर्म की रक्षा

जहाँगीर की मृत्यु (1627) के बाद नए मुग़ल बादशाह शाहजहाँ ने उग्रता से सिक्खों पर अत्याचार शुरू किया। मुग़लों की अजेयता को झुठलाते हुए गुरु हरगोविंद के नेतृव्य में सिक्खों ने चार बार शाहजहाँ की सेना को मात दी। इस प्रकार अपने पूर्वजों द्वारा स्थापित आदर्शों में गुरु हरगोबिंद सिंह ने एक और आदर्श जोड़ा, सिक्खों का यह अधिकार और कर्तव्य है कि अगर ज़रुरत हो, तो वे तलवार उठाकर भी अपने धर्म की रक्षा करें। अपनी मृत्यु से ठीक पहले गुरु हरगोविंद ने अपने पोते गुरु हर राय को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।

सिक्ख धर्म में दीवाली

सिक्खों के छठे गुरु हरगोबिंद सिंह जी को दीवाली वाले दिन मुग़ल बादशाह जहाँगीर की क़ैद से मुक्ति मिली थी। गुरु हरगोबिंद सिंह जी की बढ़ती शक्ति से घबरा कर मुग़ल बादशाह जहाँगीर ने उन्हें और उनके 52 साथियों को ग्वालियर के क़िले में बंदी बनाया हुआ था। जहाँगीर ने सन् 1619 ई. में देश भर के लोगों द्वारा हरगोविंद सिंह जी को छोड़ने की अपील पर गुरु को दीवाली वाले दिन मुक्त किया था। हरगोविंद सिंह जी कैद से मुक्त होते ही अमृतसर पहुँचे और वहाँ विशेष प्रार्थना का आयोजन किया गया। हरगोविंद सिंह जी के रिहा होने की खुशी में गुरु की माता ने सभी लोगों में मिठाई बाँटी और चारों ओर दीप जलाए गए। इसी वज़ह से सिक्ख धर्म में दीवाली को 'बंदी छोड़ दिवस' के रूप में मनाया जाता है। सन् 1577 में दीवाली के दिन ही अमृतसर के प्रसिद्घ स्वर्ण मंदिर की नींव रखी गई थी। सिक्ख धर्म में दीवाली के त्योहार को तीन दिन तक आनंद के साथ मनाया जाता है। अमृतसर में दीवाली के दिन विशेष समारोह का आयोजन किया जाता है, जिसमें दूर-दूर से लोग आते हैं। पवित्र सरोवर में इस दिन लोग सुबह-सुबह डुबकी लगाते हैं और स्वर्ण मंदिर के दर्शन करते हैं।

हस्तलिखित लेख

बदायूँ में कांशीरामगनर जनपद के क़स्बा सोरो में सिक्खों के गुरु श्री हरगोविंद सिंह जी महाराज का हस्तलिखित लेख (हुकुमनामा) मिला है। नानकमत्ता के कारसेवक बाबा तरसेम सिंह ने आज वहाँ जाकर उसे देखा और उसे हासिल करने के प्रयास शुरू कर दिए हैं।

मृत्यु

बादशाह जहाँगीर के आदेश से पाँचवें गुरु अर्जुन को फ़ाँसी दे दी जाने पर गुरु हरगोबिंद सिंह गद्दी पर बैठे। वे केवल धर्मोपदेशक ही नहीं, कुशल संगठनकर्ता भी थे और उन्होंने अपने अनुयायियों को शस्त्र धारण करने के लिए प्रेरित किया तथा छोटी सी सेना इकट्ठी कर ली। इससे कुपित होकर बादशाह जहाँगीर ने उनको बारह वर्ष तक क़ैद में डाले रखा। रिहा होने पर उन्होंने शाहजहाँ के ख़िलाफ़ बगावत कर दी और 1628 ई. में अमृतसर के निकट संग्राम में शाही फ़ौज को हरा दिया। अंत में उन्हें कश्मीर के पहाड़ में शरण लेनी पड़ी, जहाँ सन 1644 ई. में कीरतपुर (पंजाब) भारत में उनकी मृत्यु हो गई।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका-टिप्पणी और संदर्भ

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख