ग़रीबी का दिमाग़ -आदित्य चौधरी: Difference between revisions
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हमको यह सोचना और जानना ही होगा कि इन सारी असमानता बढ़ाने वाली नीतियों के पीछे कौन सी सोच काम कर रही है। क्यों सभी राजनीतिक दल, सार्वजनिक समस्याओं को हाशिए पर रखकर, जनता की व्यक्तिगत आवश्यकताओं को पूरा करने की सोचते रहते हैं। | हमको यह सोचना और जानना ही होगा कि इन सारी असमानता बढ़ाने वाली नीतियों के पीछे कौन सी सोच काम कर रही है। क्यों सभी राजनीतिक दल, सार्वजनिक समस्याओं को हाशिए पर रखकर, जनता की व्यक्तिगत आवश्यकताओं को पूरा करने की सोचते रहते हैं। | ||
इसके लिए केवल एक ही कारण है। हमारे देश में राजनीतिक दलों की संख्या का अनियंत्रित होना। किसी भी देश के प्रजातांत्रिक ढांचे में देश के समग्र विकास के लिए विचारधाराओं के आधार पर ही राजनीतिक दलों का गठन होना चाहिए। ये विचारधाराएं दो या अधिकतम तीन ही हो सकती हैं, इससे अधिक होने का सीधा अर्थ है कि नए राजनीतिक दल के गठन के पीछे कोई न कोई धर्म, जाति, भाषा या क्षेत्र का मुद्दा है। | इसके लिए केवल एक ही कारण है। हमारे देश में राजनीतिक दलों की संख्या का अनियंत्रित होना। किसी भी देश के प्रजातांत्रिक ढांचे में देश के समग्र विकास के लिए विचारधाराओं के आधार पर ही राजनीतिक दलों का गठन होना चाहिए। ये विचारधाराएं दो या अधिकतम तीन ही हो सकती हैं, इससे अधिक होने का सीधा अर्थ है कि नए राजनीतिक दल के गठन के पीछे कोई न कोई धर्म, जाति, भाषा या क्षेत्र का मुद्दा है। | ||
सामान्यत: जनता के मन में तीन प्रकार की सोच ही समायी रहती हैं; दक्षिणपंथी, वामपंथी और मध्यमार्गी। इन तीन विचारधाराओं से दीगर कोई और सोच कभी भी समग्र समाज का प्रतिनिधित्व | सामान्यत: जनता के मन में तीन प्रकार की सोच ही समायी रहती हैं; दक्षिणपंथी, वामपंथी और मध्यमार्गी। इन तीन विचारधाराओं से दीगर कोई और सोच कभी भी समग्र समाज का प्रतिनिधित्व नहीं करती। दक्षिणपंथी विचारधारा में; परम्परा, धर्म, पूंजीवाद आदि समाहित रहते हैं। वामपंथी विचारधारा में प्रगति, धर्म निरपेक्षता और समाजवाद समाहित होते हैं। मध्यमार्गी विचारधारा इन दोनों के बीच की सोच है जिसमें विकास, सर्व धर्म समभाव और पूंजीवाद-समाजवाद का सम्मिश्रण समाहित होते हैं। | ||
भारत में राजनीतिक दल बनाना कोई फ़र्म या कम्पनी बनाने जितना आसान है। 2-4 विधायक या सांसदों को लेकर किसी सरकार में शामिल हो जाना एक खेल बन गया है। जब किसी राजनीतिक दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता तो अनेक राजनीतिक दल मिलकर एक गुट बनाते हैं। ज़ाहिर है कि मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री किसी ऐसे व्यक्ति को चुना जाता है जो अपेक्षाकृत कम प्रभावशाली हो क्योंकि राजनीतिक प्रभाव वाले व्यक्ति से सभी दल डरते हैं कि 'कहीं ये हमारे विधायकों या सांसदों को अपनी ओर 'तोड़' न ले'। | भारत में राजनीतिक दल बनाना कोई फ़र्म या कम्पनी बनाने जितना आसान है। 2-4 विधायक या सांसदों को लेकर किसी सरकार में शामिल हो जाना एक खेल बन गया है। जब किसी राजनीतिक दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता तो अनेक राजनीतिक दल मिलकर एक गुट बनाते हैं। ज़ाहिर है कि मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री किसी ऐसे व्यक्ति को चुना जाता है जो अपेक्षाकृत कम प्रभावशाली हो क्योंकि राजनीतिक प्रभाव वाले व्यक्ति से सभी दल डरते हैं कि 'कहीं ये हमारे विधायकों या सांसदों को अपनी ओर 'तोड़' न ले'। | ||
इस प्रक्रिया के चलते भारत ने कई कठपुतली प्रधानमंत्रियों को झेला है। इसी तरह परिवारवाद भी राजनीति का अभिन्न अंग बन गया है और अनेक बार हमारे देश और राज्यों का शासन ऐसे ही अयोग्य उत्तराधिकारियों के हाथों में रहा है। इस प्रक्रिया के बचाव में एक सामान्य सा उदाहरण दिया जाता है कि व्यापारी का वंशज व्यापारी, अभिनेता का वंशज अभिनेता, खिलाड़ी का वंशज खिलाड़ी तो फिर नेता का वंशज नेता क्यों नहीं? सीधी-साधी जनता इस मूर्खतापूर्ण तर्क को सहज ही मान लेती है। जबकि सच्चाई इससे बिल्कुल अलग है। व्यापार, खेल और फ़िल्मी दुनिया की उपलब्धियाँ, व्यक्तिगत हितों को आधार बना कर ही की जातीं हैं, जिसमें जनता का कोई लेना-देना या भागीदारी सामान्यत: नहीं होती। राजनीति की सीढ़ियाँ तो स्पष्ट रूप से जनता की भागीदारी से ही निर्मित होती हैं, जिन पर किसी का व्यक्तिगत अधिकार जमाना पूर्णत: अनैतिक है। यह तो ठीक वैसे ही हुआ जैसे कि कोई सेनाधिकारी अपने वंशज को अपना पद बिना किसी प्रतियोगिता के देना चाहे। जिस प्रकार देश की सेना देश के लिए जवाबदेह है उसी प्रकार राजनीतिक नेता भी। ज़रा सोचिए जिन गुणों, संघर्षों, बलिदानों को ध्यान में रखते हुए जनता ने किसी को नेता माना हो और वह नेता अपने वंशज को अपना पद देना चाहे तो क्या समझदार जनता को इसे स्वीकारना चाहिए? | इस प्रक्रिया के चलते भारत ने कई कठपुतली प्रधानमंत्रियों को झेला है। इसी तरह परिवारवाद भी राजनीति का अभिन्न अंग बन गया है और अनेक बार हमारे देश और राज्यों का शासन ऐसे ही अयोग्य उत्तराधिकारियों के हाथों में रहा है। इस प्रक्रिया के बचाव में एक सामान्य सा उदाहरण दिया जाता है कि व्यापारी का वंशज व्यापारी, अभिनेता का वंशज अभिनेता, खिलाड़ी का वंशज खिलाड़ी तो फिर नेता का वंशज नेता क्यों नहीं? सीधी-साधी जनता इस मूर्खतापूर्ण तर्क को सहज ही मान लेती है। जबकि सच्चाई इससे बिल्कुल अलग है। व्यापार, खेल और फ़िल्मी दुनिया की उपलब्धियाँ, व्यक्तिगत हितों को आधार बना कर ही की जातीं हैं, जिसमें जनता का कोई लेना-देना या भागीदारी सामान्यत: नहीं होती। राजनीति की सीढ़ियाँ तो स्पष्ट रूप से जनता की भागीदारी से ही निर्मित होती हैं, जिन पर किसी का व्यक्तिगत अधिकार जमाना पूर्णत: अनैतिक है। यह तो ठीक वैसे ही हुआ जैसे कि कोई सेनाधिकारी अपने वंशज को अपना पद बिना किसी प्रतियोगिता के देना चाहे। जिस प्रकार देश की सेना देश के लिए जवाबदेह है उसी प्रकार राजनीतिक नेता भी। ज़रा सोचिए जिन गुणों, संघर्षों, बलिदानों को ध्यान में रखते हुए जनता ने किसी को नेता माना हो और वह नेता अपने वंशज को अपना पद देना चाहे तो क्या समझदार जनता को इसे स्वीकारना चाहिए? |
Latest revision as of 11:17, 1 May 2020
50px|right|link=|
20px|link=http://www.facebook.com/bharatdiscovery|फ़ेसबुक पर भारतकोश (नई शुरुआत) भारतकोश ग़रीबी का दिमाग़ -आदित्य चौधरी शास्त्रों में तीन हठ गिनाए गए हैं। बाल हठ, त्रिया हठ और राज हठ।
एक ग़रीब ने दूसरे से फ़ुसफ़ुसा कर कहा-
राजपुत्र- "डाइरेक्ट खेत से तो ऑरगेनिक फ़ूड मिलता होगा आपको?"
राजपुत्र- "पाँच रुपए में खाना तो बांग्ला देश और श्रीलंका में भी नहीं मिलता फिर ये चक्कर क्या है?" |
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