बस एक चान्स -आदित्य चौधरी: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
m (Text replacement - "विद्वान " to "विद्वान् ")
m (Text replacement - "हीरोइन" to "हिरोइन")
 
(One intermediate revision by the same user not shown)
Line 34: Line 34:
* चार्ली चॅपलिन ने अपनी मशहूर फ़िल्म 'सिटी लाइट्स' के केवल एक दृश्य को ही सौ से अधिक तरीक़ों से फ़िल्माया और अंत में भी वे पूरी तरह संतुष्ट नहीं थे। यह वही दृश्य है जिसमें कि फ़िल्म की नेत्र-हीन नायिका चार्ली चॅपलिन को भूल-वश अमीर आदमी समझ लेती है।
* चार्ली चॅपलिन ने अपनी मशहूर फ़िल्म 'सिटी लाइट्स' के केवल एक दृश्य को ही सौ से अधिक तरीक़ों से फ़िल्माया और अंत में भी वे पूरी तरह संतुष्ट नहीं थे। यह वही दृश्य है जिसमें कि फ़िल्म की नेत्र-हीन नायिका चार्ली चॅपलिन को भूल-वश अमीर आदमी समझ लेती है।
* ऑल्बेयर कामू ने अपने उपन्यास 'ला पेस्त' में केवल एक अनुच्छेद को लिखने में ही कई दिन लगा दिए थे। 
* ऑल्बेयर कामू ने अपने उपन्यास 'ला पेस्त' में केवल एक अनुच्छेद को लिखने में ही कई दिन लगा दिए थे। 
* महान गणितज्ञ न्यूटन ने आठ साल की मेहनत से अपनी मशहूर किताब 'प्रिंसीपिया मॅथेमेटिका' की सामग्री तैयार की और उनके पालतू कुत्ते 'डायमन्ड' के कारण वह जल गई। न्यूटन फिर लिखने बैठ गए और दोबारा चार साल में किताब पूरी कर ली।
* महान् गणितज्ञ न्यूटन ने आठ साल की मेहनत से अपनी मशहूर किताब 'प्रिंसीपिया मॅथेमेटिका' की सामग्री तैयार की और उनके पालतू कुत्ते 'डायमन्ड' के कारण वह जल गई। न्यूटन फिर लिखने बैठ गए और दोबारा चार साल में किताब पूरी कर ली।
* कार्ल मार्क्स ने बीस से अधिक वर्ष पुस्तकालय में पढ़ते हुए बिताए। एक बार लाइब्रेरियन पुस्तकालय को बन्द करके चला गया। अगले दिन आया तो मार्क्स को पढ़ते हुए पाया। मार्क्स को पता ही नहीं चला था कि कब रात गुज़र गई और अगला दिन भी हो गया।
* कार्ल मार्क्स ने बीस से अधिक वर्ष पुस्तकालय में पढ़ते हुए बिताए। एक बार लाइब्रेरियन पुस्तकालय को बन्द करके चला गया। अगले दिन आया तो मार्क्स को पढ़ते हुए पाया। मार्क्स को पता ही नहीं चला था कि कब रात गुज़र गई और अगला दिन भी हो गया।
         सारी दुनिया में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो हमें बतलाते हैं कि हर एक सृजन के पीछे कड़ी मेहनत छुपी है। इसलिए ध्यान रखिए कि आलोचना करना आसान है लेकिन सृजन करना मुश्किल है, बहुत मुश्किल। 
         सारी दुनिया में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो हमें बतलाते हैं कि हर एक सृजन के पीछे कड़ी मेहनत छुपी है। इसलिए ध्यान रखिए कि आलोचना करना आसान है लेकिन सृजन करना मुश्किल है, बहुत मुश्किल। 
Line 40: Line 40:
"भाग्य ने मेरा साथ दिया", "भाग्य से मुझे सब कुछ मिला", "ईश्वर की कृपा से मैं यहाँ तक पहुँचा" जैसे वाक्य 'सेलिब्रिटी' अक्सर कहते हैं।
"भाग्य ने मेरा साथ दिया", "भाग्य से मुझे सब कुछ मिला", "ईश्वर की कृपा से मैं यहाँ तक पहुँचा" जैसे वाक्य 'सेलिब्रिटी' अक्सर कहते हैं।
क्या यह ठीक है ? या उन लोगों को हतोत्साहित करने के लिए एक ख़ूबसूरत धोखा है जो कि उसी क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहते हैं और सही रास्ता खोज रहे हैं। 
क्या यह ठीक है ? या उन लोगों को हतोत्साहित करने के लिए एक ख़ूबसूरत धोखा है जो कि उसी क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहते हैं और सही रास्ता खोज रहे हैं। 
         ज़रा सोचिए कि कोई प्रसिद्ध खिलाड़ी, अभिनेता या उद्योगपति यदि भाग्य के बल पर सफल हुआ है तो फिर क्या कोई उसके भाग्य का अनुसरण करे, वहाँ तक पहुँचने के लिए ? यह तो सम्भव नहीं है। बहुत से लोग जो भाग्य पर भरोसा करते हैं वे तो यह भी सोच सकते हैं कि कोई किसी का भाग्य कैसे पा सकता है। इस भाग्य के भरोसे, भारत के शहरों और गाँवों से अनेक नौजवान ये सपना लेकर मुम्बई जाते हैं कि हीरो, हीरोइन या मॉडल बनेंगे। न जाने कितने लड़के-लड़कियाँ इस मुग़ालते में रहते हैं कि उन्हें मौक़ा या 'चान्स' नहीं मिला वरना... ।  जो समझदार हैं वे समझते हैं कि किसी भी क्षेत्र में सफल होने के लिए मेहनत तो निश्चित रूप से करनी ही पड़ती है। 
         ज़रा सोचिए कि कोई प्रसिद्ध खिलाड़ी, अभिनेता या उद्योगपति यदि भाग्य के बल पर सफल हुआ है तो फिर क्या कोई उसके भाग्य का अनुसरण करे, वहाँ तक पहुँचने के लिए ? यह तो सम्भव नहीं है। बहुत से लोग जो भाग्य पर भरोसा करते हैं वे तो यह भी सोच सकते हैं कि कोई किसी का भाग्य कैसे पा सकता है। इस भाग्य के भरोसे, भारत के शहरों और गाँवों से अनेक नौजवान ये सपना लेकर मुम्बई जाते हैं कि हीरो, हिरोइन या मॉडल बनेंगे। न जाने कितने लड़के-लड़कियाँ इस मुग़ालते में रहते हैं कि उन्हें मौक़ा या 'चान्स' नहीं मिला वरना... ।  जो समझदार हैं वे समझते हैं कि किसी भी क्षेत्र में सफल होने के लिए मेहनत तो निश्चित रूप से करनी ही पड़ती है। 


इस सप्ताह इतना ही... अगले सप्ताह कुछ और...
इस सप्ताह इतना ही... अगले सप्ताह कुछ और...

Latest revision as of 07:21, 4 January 2018

50px|right|link=| 20px|link=http://www.facebook.com/bharatdiscovery|फ़ेसबुक पर भारतकोश (नई शुरुआत) भारतकोश
20px|link=http://www.facebook.com/profile.php?id=100000418727453|फ़ेसबुक पर आदित्य चौधरी आदित्य चौधरी

बस एक चान्स -आदित्य चौधरी


border|right|300px

        इस बात का पता 'चंद लोगों' को ही था कि छोटे पहलवान दुनिया का सबसे अक़्लमंद लड़का है। इन 'चंद लोगों' में थे- एक तो छोटे पहलवान ख़ुद और बाक़ी उसके माता-पिता और परिवारी जन। बाहर की दुनिया से छोटे का ज़्यादा सम्पर्क हुआ नहीं था। इसी दौर में उसे यह भी महसूस होने लगा कि वह दुनिया का महानतम विद्वान् भी है। अपनी पहली किताब के छपते ही एक ज़बर्दस्त हंगामा होने का ख़याल लिए वो अपना वक़्त क्रिकेट और फ़ुटबॉल खेलने में बिताता था। बारातों में बच्चों को पैसे लूटते देखकर वो सोचता था कि उसकी किताब की भी ऐसी ही लूट मचेगी एक दिन, बस ज़रा लिखने भर की देर है।
बड़ों ने नसीहत दी और कहा-
"कुछ पढ़ भी लो... दो-चार किताबें... कहानियाँ... उपन्यास..."
उस वक़्त छोटे की उम्र थी क़रीब सोलह साल... बड़ों की बात मानना छोटे की सहज आदत थी... छोटे ने बात मान ली... चार से ज़्यादा किताबें पढ़ ली गईं... इसमें कुछ महीने गुज़र गए... 
एक बड़े ने पूछा-
"अब क्या चलता है मन में ? छोटे !"
"बात ये है कि पूरी तरह से ऐसा नहीं है कि दुनिया में हम ही सबसे ज़्यादा अक़्लमन्द हैं... विद्वान् लोग और भी हैं... बहुत बढ़िया लिखते हैं... इन किताबों को पढ़ने के बाद लगा कि हम जो अपने मन में सोच रहे थे कि साहित्य की दुनिया के हम रुस्तमे-ज़मा गामा पहलवान हैं, असल में ऐसा नहीं है।"
"कुछ किताबें और पढ़ लो... जैसे इतिहास और दर्शन पर... चाहो तो धर्मों के बारे में भी... " 
इस बार ज़रा ज़्यादा लम्बा अन्तराल हो गया... चेहरे पर हल्की-हल्की मूछें भी शोभायमान थीं। 
दूसरे बड़े ने पूछा-
"क्यों छोटे ! कितनी किताबें पढ़ चुके हो तुम... और अब क्या चलता है मन में ?"
"बात ये है कि किताब तो अब चालीस-पचास पढ़ चुके हैं... लेकिन एक बात समझ में नहीं आ रही कि जितना ज़्यादा पढ़ते हैं उतना ही लगता है कि अभी तो कुछ भी नहीं पढ़ा... ज़्यादा से ज़्यादा पढ़ने से तो हमें ये महसूस होना चाहिए कि हम ज़्यादा अक़्लमंद हैं और विद्वान् हैं... उल्टा ही हो रहा है ?... हमको लगता है जैसे हम इस दुनिया के बहुत साधारण से हिस्से ही हैं, कोई विलक्षण प्रतिभा नहीं हैं..."
"कोई बात नहीं, अब एक साल-भर और पढ़ लो फिर मत पढ़ना... इस बार विदेशी लेखकों और विचारकों को पढ़ो !"
फिर एक साल बाद...
तीसरे बड़े ने पूछा-
"क्या हाल-चाल हैं छोटे ? बड़े गुमसुम रहते हो... बहुत कम बोलने लगे हो, क्या बात है ?"
"बोलने को बचा क्या है जो बोलें... हमको अपनी बुद्धि पर तरस आता है... कहने को तो हम अब सैकड़ों किताब पढ़ चुके हैं... और एक-एक विषय पर घंटों व्याख्यान देने की क्षमता भी हमारे अंदर पैदा हो गई है... लेकिन अब हमको लगता है कि हमने तो अभी बिल्कुल ही कुछ भी नहीं पढ़ा है... जैसे एक नये-नये विद्यार्थी की हालत होती है, वही है हमारी अब... हमें पता चल चुका है कि हम एक ऐसे व्यक्ति हैं जिसमें न बुद्धि है और न कोई प्रतिभा... ना ही कोई कला...अब हमारी उम्र मतदान करने लायक़ हो गई है और सबसे पहला 'मत' हमने ख़ुद को ही दिया है और वो ये कि हम 'निरे अज्ञानी' हैं" 
यह सुनकर बड़े मुस्कुरा गए और बोले-
"बस बस बस... छोटे अब तुम बहुत बड़े हो गए हो... अब तुमको पढ़ने की नहीं बल्कि लिखने की ज़रूरत है... तुम विलक्षण बुद्धि वाले उद्भट विद्वान् हो... तुम्हारी यह विनम्रता ही विद्वत्ता का सबसे बड़ा प्रमाण है... जाओ लिखो... दुनिया को तुम्हारे जैसे ही विद्वानों की  ज़रूरत है"
        आइए छोटे पहलवान को लिखता छोड़ कर ज़रा ये सोचें कि क्या ऐसा हम सब के साथ भी नहीं घटता ? क्या हमारे अंदर भी कभी न कभी एक छोटे पहलवान नहीं रहा होगा... या आज भी है ? 
आइंस्टाइन ने कहा था "गणित तो मेरी भी समझ में नहीं आता।" सारी दुनिया को भौतिकी और गणित पढ़ाने वाले वैज्ञानिक का यह कथन अपने आप में एक पूरा ग्रंथ है जो कि सब कुछ कह रहा है। सब कुछ जान लेना या सब कुछ सीख लेना जैसी कोई स्थिति कभी नहीं होती। जब हम किसी विधा को सीखने के लिए आगे बढ़ते हैं तभी हमें उसकी सही जानकारी होती है। अधिकतर लोग बहुत आसानी से ख़ुद को 'विशेष प्रतिभाशाली' मान बैठते हैं लेकिन जब विद्वानों के बीच जाते हैं तभी असली परीक्षा होती है।
जब हम कोई सृजन कर रहे होते हैं, तब ही हमको ज्ञान होता है उस सृजन की कठिनाइयों का। अनेक ऐसे उदाहरण हैं जिनसे उस कृति के पीछे छुपे अथाह परिश्रम का आभास हो सकता है-

  • अर्नेस्ट हेमिंग्वे, 1954 में, नोबेल पुरस्कार प्राप्त अमेरिका के मशहूर लेखक हुए हैं। उन्होंने अपने विश्व प्रसिद्ध उपन्यास 'द ओल्ड मॅन एंड द सी' को शुरू से आख़िर तक बार-बार लिखा और जब वे सौ से भी अधिक बार इसे लिख चुके तभी संतुष्ट हुए। 
  • चार्ली चॅपलिन ने अपनी मशहूर फ़िल्म 'सिटी लाइट्स' के केवल एक दृश्य को ही सौ से अधिक तरीक़ों से फ़िल्माया और अंत में भी वे पूरी तरह संतुष्ट नहीं थे। यह वही दृश्य है जिसमें कि फ़िल्म की नेत्र-हीन नायिका चार्ली चॅपलिन को भूल-वश अमीर आदमी समझ लेती है।
  • ऑल्बेयर कामू ने अपने उपन्यास 'ला पेस्त' में केवल एक अनुच्छेद को लिखने में ही कई दिन लगा दिए थे। 
  • महान् गणितज्ञ न्यूटन ने आठ साल की मेहनत से अपनी मशहूर किताब 'प्रिंसीपिया मॅथेमेटिका' की सामग्री तैयार की और उनके पालतू कुत्ते 'डायमन्ड' के कारण वह जल गई। न्यूटन फिर लिखने बैठ गए और दोबारा चार साल में किताब पूरी कर ली।
  • कार्ल मार्क्स ने बीस से अधिक वर्ष पुस्तकालय में पढ़ते हुए बिताए। एक बार लाइब्रेरियन पुस्तकालय को बन्द करके चला गया। अगले दिन आया तो मार्क्स को पढ़ते हुए पाया। मार्क्स को पता ही नहीं चला था कि कब रात गुज़र गई और अगला दिन भी हो गया।

        सारी दुनिया में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो हमें बतलाते हैं कि हर एक सृजन के पीछे कड़ी मेहनत छुपी है। इसलिए ध्यान रखिए कि आलोचना करना आसान है लेकिन सृजन करना मुश्किल है, बहुत मुश्किल। 
        एक दूसरा पहलू भी है जिसकी वजह से बहुत सी ग़लतफ़हमी पैदा होती हैं, वह है 'भाग्य' का प्रचार। बहुत से सफल व्यक्तियों के साक्षात्कारों में जो एक बात अक्सर मिलती है वह है 'भाग्य'। ये 'स्टार' या 'सेलिब्रिटी' बहुधा कहते सुने जाते हैं कि उनकी सफलता का राज़ है 'भाग्य'। 
"भाग्य ने मेरा साथ दिया", "भाग्य से मुझे सब कुछ मिला", "ईश्वर की कृपा से मैं यहाँ तक पहुँचा" जैसे वाक्य 'सेलिब्रिटी' अक्सर कहते हैं।
क्या यह ठीक है ? या उन लोगों को हतोत्साहित करने के लिए एक ख़ूबसूरत धोखा है जो कि उसी क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहते हैं और सही रास्ता खोज रहे हैं। 
        ज़रा सोचिए कि कोई प्रसिद्ध खिलाड़ी, अभिनेता या उद्योगपति यदि भाग्य के बल पर सफल हुआ है तो फिर क्या कोई उसके भाग्य का अनुसरण करे, वहाँ तक पहुँचने के लिए ? यह तो सम्भव नहीं है। बहुत से लोग जो भाग्य पर भरोसा करते हैं वे तो यह भी सोच सकते हैं कि कोई किसी का भाग्य कैसे पा सकता है। इस भाग्य के भरोसे, भारत के शहरों और गाँवों से अनेक नौजवान ये सपना लेकर मुम्बई जाते हैं कि हीरो, हिरोइन या मॉडल बनेंगे। न जाने कितने लड़के-लड़कियाँ इस मुग़ालते में रहते हैं कि उन्हें मौक़ा या 'चान्स' नहीं मिला वरना... ।  जो समझदार हैं वे समझते हैं कि किसी भी क्षेत्र में सफल होने के लिए मेहनत तो निश्चित रूप से करनी ही पड़ती है। 

इस सप्ताह इतना ही... अगले सप्ताह कुछ और...
-आदित्य चौधरी
संस्थापक एवं प्रधान सम्पादक


टीका टिप्पणी और संदर्भ