यादों का फंडा -आदित्य चौधरी: Difference between revisions
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"चिंटू को मैं कैसे भुला सकती हूँ... उसे भुलाने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता"... लेकिन तुमने ये सवाल पूछा ही क्यों ? | "चिंटू को मैं कैसे भुला सकती हूँ... उसे भुलाने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता"... लेकिन तुमने ये सवाल पूछा ही क्यों ? | ||
"देखो चिंकी ! तुमने चिंटू को याद रखने की बहुत कोशिश की और वो शायद इसलिए क्योंकि तुम ख़ुद को यह दिखाना चाहती हो कि तुम चिंटू से इतना प्यार करती हो कि उसे कभी भुला नहीं सकती लेकिन असलियत ये है कि तुम चिंटू को भूल चुकी हो और ज़बरदस्ती उसकी याद अपने मन में बनाए रखना चाहती हो" | "देखो चिंकी ! तुमने चिंटू को याद रखने की बहुत कोशिश की और वो शायद इसलिए क्योंकि तुम ख़ुद को यह दिखाना चाहती हो कि तुम चिंटू से इतना प्यार करती हो कि उसे कभी भुला नहीं सकती लेकिन असलियत ये है कि तुम चिंटू को भूल चुकी हो और ज़बरदस्ती उसकी याद अपने मन में बनाए रखना चाहती हो" | ||
"तुमको ऐसा क्यों लगता है ?"</poem>{{बाँयाबक्सा|पाठ=असल में हमारा दिमाग़ वरीयता क्रम के हिसाब से याददाश्त को सहेजता है। इस सम्बंध में मस्तिष्क, संवेदना से जुड़ी बातों को वरीयता क्रम में ऊपर रखता है। जो बातें सामान्यत: यांत्रिक रूप से हमें याद रखनी होती हैं अर्थात जिन घटनाओं, पाठों, व्यक्तियों आदि से सम्पर्क में आने पर हमारे शरीर का रक्तचाप, हृदय की धड़कन, आँखों का आकार बदलना, चेहरे की | "तुमको ऐसा क्यों लगता है ?"</poem>{{बाँयाबक्सा|पाठ=असल में हमारा दिमाग़ वरीयता क्रम के हिसाब से याददाश्त को सहेजता है। इस सम्बंध में मस्तिष्क, संवेदना से जुड़ी बातों को वरीयता क्रम में ऊपर रखता है। जो बातें सामान्यत: यांत्रिक रूप से हमें याद रखनी होती हैं अर्थात जिन घटनाओं, पाठों, व्यक्तियों आदि से सम्पर्क में आने पर हमारे शरीर का रक्तचाप, हृदय की धड़कन, आँखों का आकार बदलना, चेहरे की मांसपेशियों का फैलना-सिकुड़ना आदि प्रक्रियाऐं प्रभावित नहीं होती उनको अपनी याददाश्त में शामिल करने में मस्तिष्क की कोई विशेष रुचि नहीं होती।|विचारक=}} | ||
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"मुझे ऐसा लगता नहीं है बल्कि ऐसा सचमुच है... तुम्हारे गले में जो लॉकेट है उसमें से चिंटू का फ़ोटो मैंने पंद्रह दिन पहले ही निकाल लिया था। जब तुम मेरे घर आयीं थीं और बाथरूम में इस लॉकेट को भूल गयी थीं। तुमको आज तक मालूम नहीं है कि लॉकेट में चिंटू का फ़ोटो नहीं है क्योंकि तुमने न जाने कितने महीनों से इस लॉकेट को खोल के ही नहीं देखा। तुमने जो चिंटू की अलबम बना कर अपने बॅडरूम में रखी हुई है उस अलबम के कई पन्ने मैंने काफ़ी पहले ही निकाल दिये थे उसका भी तुम्हें आजतक पता नहीं चला। ऐसा लगता है कि बहुत लम्बे समय से तुमने वो अलबम ही नहीं खोल कर देखी। इससे भी बड़ी बात ये है कि तुमने जो ब्लॉग चिंटू के लिए शुरू किया था उस पर मैंने पिछले महीने एक कमॅन्ट लिखा था, जिसमें लिखा था कि चिंकी अब चिंटू को पूरी तरह भुला चुकी है। वो कमैंट अभी भी तुम देख सकती हो... तुमने ना जाने कब से उस ब्लॉग को खोल के भी नहीं देखा... | "मुझे ऐसा लगता नहीं है बल्कि ऐसा सचमुच है... तुम्हारे गले में जो लॉकेट है उसमें से चिंटू का फ़ोटो मैंने पंद्रह दिन पहले ही निकाल लिया था। जब तुम मेरे घर आयीं थीं और बाथरूम में इस लॉकेट को भूल गयी थीं। तुमको आज तक मालूम नहीं है कि लॉकेट में चिंटू का फ़ोटो नहीं है क्योंकि तुमने न जाने कितने महीनों से इस लॉकेट को खोल के ही नहीं देखा। तुमने जो चिंटू की अलबम बना कर अपने बॅडरूम में रखी हुई है उस अलबम के कई पन्ने मैंने काफ़ी पहले ही निकाल दिये थे उसका भी तुम्हें आजतक पता नहीं चला। ऐसा लगता है कि बहुत लम्बे समय से तुमने वो अलबम ही नहीं खोल कर देखी। इससे भी बड़ी बात ये है कि तुमने जो ब्लॉग चिंटू के लिए शुरू किया था उस पर मैंने पिछले महीने एक कमॅन्ट लिखा था, जिसमें लिखा था कि चिंकी अब चिंटू को पूरी तरह भुला चुकी है। वो कमैंट अभी भी तुम देख सकती हो... तुमने ना जाने कब से उस ब्लॉग को खोल के भी नहीं देखा... एक बात और है... तुम्हारे बॅडरूम में जो 15-20 फ़ोटो चिंटू के लगे हैं उनमें से एक मैंने बदल दिया था और वो फ़ोटो एक्टर सलमान ख़ान का है... तुमने तो ध्यान भी नहीं दिया... सही बात ये है चिंकी कि हम जिसे याद रखने की 'कोशिश' करते हैं उसे जल्द ही भुला देते हैं।" | ||
ऊपर लिखी दोनों कहानियों से हमारी याददाश्त और भूल जाने की प्रक्रिया की कुछ झलक मिलती है। हम याद रखने की 'कोशिश' उन्हीं बातों के लिए करते हैं जिन्हें भूल जाने का डर होता है या फिर कहें तो जिन्हें हम याद ही नहीं रखना चाहते निश्चित ही ऐसी घटनाऐं, प्रसंग, बातें और व्यक्ति हमें प्रिय नहीं होते। इसी तरह जो कुछ भी हमें अच्छा लगता है अथवा हमारे लिए महत्त्वपूर्ण होता है उसे हम बिना किसी याद करने की कोशिश के ही भुला नहीं पाते। | ऊपर लिखी दोनों कहानियों से हमारी याददाश्त और भूल जाने की प्रक्रिया की कुछ झलक मिलती है। हम याद रखने की 'कोशिश' उन्हीं बातों के लिए करते हैं जिन्हें भूल जाने का डर होता है या फिर कहें तो जिन्हें हम याद ही नहीं रखना चाहते निश्चित ही ऐसी घटनाऐं, प्रसंग, बातें और व्यक्ति हमें प्रिय नहीं होते। इसी तरह जो कुछ भी हमें अच्छा लगता है अथवा हमारे लिए महत्त्वपूर्ण होता है उसे हम बिना किसी याद करने की कोशिश के ही भुला नहीं पाते। | ||
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यदि इस सम्बंध में और अधिक सोचें तो हम देखते हैं कि हमें व्यक्तियों के चेहरे तो याद रह जाते हैं लेकिन उनके नाम आसानी से याद नहीं आते। इसी तरह फ़िल्मी गानों की धुनें तो हम गुनगुना पाते हैं लेकिन गाने के बोल हमें याद करने पड़ते हैं। छोटे बच्चे जानवरों की पहचान उनकी आवाजों से आसानी से कर लेते हैं जबकि उन्हीं जानवरों के नाम ठीक तरह से नहीं ले पाते। इसका कारण बहुत साधारण सा है कि भाषा मनुष्य निर्मित है और कालांतर में किसी भी भाषा के साहित्यिक रूप ने उस भाषा को ऐसा बना डाला कि मस्तिष्क को एक यंत्र की तरह प्रयोग किये बिना उस भाषा से परिचित नहीं हुआ जा सकता। | यदि इस सम्बंध में और अधिक सोचें तो हम देखते हैं कि हमें व्यक्तियों के चेहरे तो याद रह जाते हैं लेकिन उनके नाम आसानी से याद नहीं आते। इसी तरह फ़िल्मी गानों की धुनें तो हम गुनगुना पाते हैं लेकिन गाने के बोल हमें याद करने पड़ते हैं। छोटे बच्चे जानवरों की पहचान उनकी आवाजों से आसानी से कर लेते हैं जबकि उन्हीं जानवरों के नाम ठीक तरह से नहीं ले पाते। इसका कारण बहुत साधारण सा है कि भाषा मनुष्य निर्मित है और कालांतर में किसी भी भाषा के साहित्यिक रूप ने उस भाषा को ऐसा बना डाला कि मस्तिष्क को एक यंत्र की तरह प्रयोग किये बिना उस भाषा से परिचित नहीं हुआ जा सकता। | ||
मस्तिष्क को वैज्ञानिकों ने एक कम्प्यूटर की तरह मानकर ही इसका अध्ययन किया है और यह अध्ययन लगातार जारी है। वैज्ञानिक मस्तिष्क की याददाश्त की क्षमता को अद्भुत मानते हैं और यह भी प्रमाणित है कि मस्तिष्क को जितने भी संदेश मिलते हैं वह उन्हें संचित कर लेता है। किंतु हिप्पोकॅम्पस में संचित इन संदेशों को पुन: प्रस्तुत करने के लिए मनुष्य के मस्तिष्क के पास कोई सुगम प्रणाली नहीं होती। कम्प्यूटर की भाषा में कहें तो 'स्टोर' की गई फ़ाइल का 'पाथ' मालूम नहीं होता। इसलिए हमें इन संचित, संचिकाओं को व्यवस्थित करने के लिए और आवश्यक समय पर उपयोग करने के लिए कुछ ना कुछ ऐसी प्रणालियों और संकेतों का सहारा लेना पड़ता है, जो इस कठिन कार्य सरलीकृत कर सकें। | मस्तिष्क को वैज्ञानिकों ने एक कम्प्यूटर की तरह मानकर ही इसका अध्ययन किया है और यह अध्ययन लगातार जारी है। वैज्ञानिक मस्तिष्क की याददाश्त की क्षमता को अद्भुत मानते हैं और यह भी प्रमाणित है कि मस्तिष्क को जितने भी संदेश मिलते हैं वह उन्हें संचित कर लेता है। किंतु हिप्पोकॅम्पस में संचित इन संदेशों को पुन: प्रस्तुत करने के लिए मनुष्य के मस्तिष्क के पास कोई सुगम प्रणाली नहीं होती। कम्प्यूटर की भाषा में कहें तो 'स्टोर' की गई फ़ाइल का 'पाथ' मालूम नहीं होता। इसलिए हमें इन संचित, संचिकाओं को व्यवस्थित करने के लिए और आवश्यक समय पर उपयोग करने के लिए कुछ ना कुछ ऐसी प्रणालियों और संकेतों का सहारा लेना पड़ता है, जो इस कठिन कार्य को सरलीकृत कर सकें। | ||
क्या हैं ये संकेत और प्रणालियाँ ? | क्या हैं ये संकेत और प्रणालियाँ ? |
Revision as of 05:07, 31 August 2012
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