1857 -आदित्य चौधरी: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
m ("1857 -आदित्य चौधरी" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (अनिश्चित्त अवधि) [move=sysop] (अनिश्चित्त अवधि)))
No edit summary
Line 7: Line 7:
{| width="100%" style="background:transparent"
{| width="100%" style="background:transparent"
|-valign="top"
|-valign="top"
| style="width:35%"|
| style="width:30%"|
| style="width:35%"|
| style="width:40%"|
<poem style="color=#003333">
<poem style="color=#003333">
इसी मैदान में उस शख़्स को फाँसी लगी होगी
इसी मैदान में उस शख़्स को फाँसी लगी होगी

Revision as of 14:33, 13 August 2014

50px|right|link=|

1857 -आदित्य चौधरी

इसी मैदान में उस शख़्स को फाँसी लगी होगी
तमाशा देखने को भीड़ भी काफ़ी लगी होगी

          जिन्हें आज़ाद करने की ग़रज़ से जान पर खेला
          उन्हीं को चंद रोज़ों में ख़बर बासी लगी होगी

बड़े सरकार आए हैं, यहाँ पौधा लगाएँगे
हटाने धूल को मुद्दत में अब झाडू लगी होगी

          शहर में लोग ज़्यादा हैं जगह रहने की भी कम है
          इसी को सोचकर मैदान की बोली लगी होगी

यहाँ तो ज़ात और मज़हब का अब बाज़ार लगता है
उसे अपनी शहादत ही बहुत फीकी लगी होगी


टीका टिप्पणी और संदर्भ