गुड़ का सनीचर -आदित्य चौधरी: Difference between revisions
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"क्या बात है चौधरी साब ! इतनी सुबह कैसे ?" | "क्या बात है चौधरी साब ! इतनी सुबह कैसे ?" | ||
"सेठ जी जल्दी से बाल्टी, लोटा, रस्सी, कलावा, थोड़े काले तिल और एक कटोरी में सरसों का तेल देदो" | "सेठ जी जल्दी से बाल्टी, लोटा, रस्सी, कलावा, थोड़े काले तिल और एक कटोरी में सरसों का तेल देदो" | ||
सेठ ने बिना कुछ पूछे सारा सामान दे दिया, क्योंकि पहलवान सिर्फ पैसे से ही कमज़ोर था बाक़ी तो उससे किसी बात की मना करने की हिम्मत इस गाँव में तो क्या दस गाँवों में भी किसी की नहीं थी। | सेठ ने बिना कुछ पूछे सारा सामान दे दिया, क्योंकि पहलवान सिर्फ पैसे से ही कमज़ोर था बाक़ी तो उससे किसी बात की मना करने की हिम्मत इस गाँव में तो क्या दस गाँवों में भी किसी की नहीं थी। | ||
ख़ैर... सेठ जी जैसे-तैसे दोबारा सो गये। फिर एक घंटे बाद... | ख़ैर... सेठ जी जैसे-तैसे दोबारा सो गये। फिर एक घंटे बाद... | ||
"सेठ जी ऽऽऽ ... सेठ जी ऽऽऽ दरवाज़ा खोलो" | "सेठ जी ऽऽऽ ... सेठ जी ऽऽऽ दरवाज़ा खोलो" | ||
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"मैं अच्छी तरह समझ गया सास्तरी जी ! अब मेरा सनीचर तो जिंदगी भर को परमानेन्ट उतर गया" | "मैं अच्छी तरह समझ गया सास्तरी जी ! अब मेरा सनीचर तो जिंदगी भर को परमानेन्ट उतर गया" | ||
ये क़िस्सा तो यहीं ख़त्म हुआ... | ये क़िस्सा तो यहीं ख़त्म हुआ... | ||
{{भारतकोश सम्पादकीय}} | |||
अब ज़रा ये सोचें कि अपनी असफलता को कुण्डली के दोष से जोड़ना कहाँ की अक़्लमंदी है। | अब ज़रा ये सोचें कि अपनी असफलता को कुण्डली के दोष से जोड़ना कहाँ की अक़्लमंदी है। | ||
कहते हैं कि ज़िम्मेदारियाँ सदैव 'ज़िम्मेदार इंसान' को ढूँढ लेती हैं। यदि लोग किसी को एक ज़िम्मेदार इंसान नहीं समझते तो ग़लती लोगों की नहीं बल्कि उसकी ख़ुद की ही है। | कहते हैं कि ज़िम्मेदारियाँ सदैव 'ज़िम्मेदार इंसान' को ढूँढ लेती हैं। यदि लोग किसी को एक ज़िम्मेदार इंसान नहीं समझते तो ग़लती लोगों की नहीं बल्कि उसकी ख़ुद की ही है। |
Revision as of 12:42, 29 March 2012
गुड़ का 'सनीचर' -आदित्य चौधरी
"पंडिज्जी ! पहले पुराना हिसाब साफ़ करो फिर गुड़ की भेली दूँगा। पुराना ही पैसा बहुत बक़ाया है। ऐसे तो मेरी दुकान ही बंद हो जाएगी" अब ज़रा ये सोचें कि अपनी असफलता को कुण्डली के दोष से जोड़ना कहाँ की अक़्लमंदी है। |