पत्थर का आसमान -आदित्य चौधरी: Difference between revisions

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मुंशी प्रेमचन्द की कहानी 'पूस की रात', मोहन राकेश के नाटक 'आषाढ़ का एक दिन' और दुष्यंत कुमार की इन पंक्तियों की स्मृति में  
मुंशी प्रेमचन्द की कहानी 'पूस की रात', मोहन राकेश के नाटक 'आषाढ़ का एक दिन' और दुष्यंत कुमार की इन पंक्तियों की स्मृति में  


एक पत्थर तो तबियत से उछालो यार
कैसे आकाश में सूराख़ नहीं हो सकता
कौन कहता है कि आसमान में छेद नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो


पीर परबत सी हुई है अब पिघलनी चाहिये  
पीर परबत सी हुई है अब पिघलनी चाहिये  

Revision as of 15:14, 7 April 2012

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पत्थर का आसमान -आदित्य चौधरी


पूस की रात ने
आषाढ़ के एक दिन से पूछा
"बड़ी तबियत से उछाला था पत्थर तुमने
आसमान में
छेद हुआ क्या ?"
परबत सी पीर लिये
दिन बोला
"एक नहीं
हज़ारों उछाले गये
पत्थरों को वो लील गया"
असल में हम भूल जाते हैं
कि हमारे उछाले हुए पत्थर
जैसे ही
ऊपर जाते हैं
कमबख्त वो भी
आसमान बन जाते हैं
कि उसमें छेद करना तो
दूर की बात है
हम तो उन्हें
ख़रोंच भी नहीं पाते हैं

-आदित्य चौधरी

मुंशी प्रेमचन्द की कहानी 'पूस की रात', मोहन राकेश के नाटक 'आषाढ़ का एक दिन' और दुष्यंत कुमार की इन पंक्तियों की स्मृति में

कैसे आकाश में सूराख़ नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो
 

पीर परबत सी हुई है अब पिघलनी चाहिये
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिये -दुष्यंत कुमार