दशपुर: Difference between revisions
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दशपुर गुप्त काल में भारत का प्रसिद्ध नगर था, जिसका अभिज्ञान मंदसौर (ज़िला मंदसौर, पश्चिमी मालवा, मध्य प्रदेश) से किया गया है। लैटिन के प्राचीन भ्रमणवृत्त पेरिप्लस में मंदसौर को 'मिन्नगल' कहा गया है।[1] कालिदास ने 'मेघदूत'[2] में इसकी स्थिति मेघ के यात्राक्रम में उज्जयिनी के पश्चात् और चंबल नदी के पार उत्तर में बताई है, जो वर्तमान मंदसौर की स्थिति के अनुकूल ही है- [3]
इतिहास
गुप्त सम्राट कुमारगुप्त द्वितीय के शासनकाल (472 ई.) का एक प्रसिद्ध अभिलेख मंदसौर से प्राप्त हुआ था, जिसमें लाट देश के रेशम के व्यापारियों का दशपुर में आकर बस जाने का वर्णन है। इन्होंने दशपुर में एक सूर्य के मंदिर का निर्माण करवाया था। बाद में इसका जीर्णाद्वार हुआ, और यह अभिलेख उसी समय सुंदर साहित्यिक संस्कृत भाषा में उत्कीर्ण करवाया गया था। तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक तथा सामाजिक अवस्था पर इस अभिलेख से पर्याप्त प्रकाश पड़ता है।
वत्सभट्टि का वर्णन
वत्सभट्टि द्वारा प्रणीत इस सुंदर अभिलेख का कुछ भाग इस प्रकार है-
'ते देशपार्थिव गुणापहृता: प्रकाशमध्वादिजान्यविरलान्यसुखान्यपास्य जातादरादशपुरं प्रथमं मनोभिरन्वागता: ससुतबंधुजना: समेत्य', मत्तेभगंडतटविच्युतदानबिंदु सिक्तोप्रलाचलसहस्रविभूषणाया: पुष्पावनभ्रतरुमंडवतंसकायाभूमे: परं तिलकभूतमिदंक्रमेण। तटोत्थवृक्षच्युतनैकपुष्पविचित्रतीरान्तजलानि भान्ति। प्रफुल्लपद्याभरणानि यत्र सरांसि कारंडवसंकुलानि। विलोलवीची चलितारविन्दपतद्रज: पिंजरितैश्च हंसै:, स्वकेसरोदारभरावभुग्नै: क्वचित्सरांस्यम्बुरुहेश्च भान्ति। स्वपुष्पभारावनतैर्नगैन्द्रैर्मदप्रगल्भालिकुलस्वनैश्च, अजस्रागाभिश्च पुरांगनाभिर्वनानि यस्मिन् समलंकृतानि। चलत्पाताकान्यबलासनाथान्यत्यर्थ शुक्लान्यधिकोन्नतानि, तडिल्लता चित्रसिताभ्रकूटतुल्योपमानानि गृहाणि यत्र।'
अर्थात् वे रेशम बुनने वाले शिल्पी (फूलों के भार से झुके सुंदर वृक्षों, देवालयों और सभा विहारों के कारण सुंदर और तरुवराच्छादित पर्वतों से छाए हुए लाट देश से आकर) दशपुर में, वहाँ के राजा के गुणों से आकृष्ट होकर रास्ते के कष्टों की परवाह न करते हुए, बंधुबांधव सहित बस गए। यह नगर (दशपुर) उस भूमि का तिलक है, जो मत्तगजों के दान बिंदुओं से सिक्त शैलों वाले सहस्रों पहाड़ों से अलंकृत है और फूलों के भार से अवनत वृक्षों से सजी हुई है, जो तट पर के वृक्षों से गिरे हुए अनेक पुष्पों से रंग-बिरंगे जल वाले और प्रफुल्ल कमलों से भरे और कारंडव पक्षियों से संकुल सरोवरों से विभूषित हैं, जो विलोल लहरियों से दोलायमान कमलों से गिरते हुए पराग से पीले रंगे हुए हंसों और अपने केसर के भार से विनम्र पद्मों से सुशोभित हैं, जहाँ फूलों के भार से विनत वृक्षों से संपन्न और मदप्रगल्भ भ्रमरों से गुंजित और निरन्तर गतिशील पौरांगनाओं से समलंकृत उद्यान हैं और जहाँ अत्यधिक श्वेत और तुंग भवनों के ऊपर हिलती हुई पताकाएँ और भीतर स्त्रियाँ इस प्रकार शोभायमान हैं, मानों श्वेत बादलों के खंडों में तडिल्लत जगमगाती हो, इत्यादि।
अभिलेख
दशपुर से 533 ई. का एक अन्य अभिलेख, जिसका संबंध मालवाधिपति यशोवर्मन से है, सौंधी ग्राम के पास एक कूपशिला पर अंकित पाया गया था। यह अभिलेख भी सुंदर काव्यमयी भाषा में रचा गया है। इसमें राज्यमंत्री अभयदत्त की स्मृति में एक कूप बनाये जाने का उल्लेख है। अभयदत्त को पारियात्र और समुद्र से घिरे हुए राज्य का मंत्री बताया गया है। दशपुर में यशोवर्मन के काल के विजय स्तंभों के अवशेष भी है, जो उसने हूणों पर प्राप्त विजय की स्मृति में निर्मित करवाए थे। एक स्तंभ के अभिलेख में पराजित हूणराज मिहिरकुल द्वारा की गई यशोवर्मन की सेवा तथा अर्चना का वर्णन है-
'चूडापुष्पोपहारैर्मिहिरकुल नृपेणार्चितंपादयुग्मम्।'
इनमें से प्रत्येक स्तंभ का व्यास तीन फुट तीन इंच, ऊँचाई 40 फुट से अधिक और वज़न लगभग 5400 मन था। मंदसौर के आसपास 100 मील तक वह पत्थर उपलब्ध नहीं है, जिसके ये स्तंभ बने हैं।
प्राचीन जैन तीर्थ स्थल
मंदसौर से गुप्त काल के अनेक मंदिरों के अवशेष भी प्राप्त हुए हैं, जो क़िले के अन्दर कचहरी के सामने वाली भूमि में आज भी सुरक्षित हैं। कहा जाता है कि 14वीं शती के प्रारम्भ में अलाउद्दीन ख़िलजी ने इस महिमामय नगर को लूट कर विध्वंस कर दिया और यहाँ एक क़िला बनवाया, जो खंडहर के रूप में आज भी विद्यमान है। दशपुर की गणना प्राचीन जैन तीर्थों में की गई है। जैन स्तोत्रग्रंथ तीर्थमालाचैत्य वंदन में इसका नामोल्लेख है- 'हस्तोडीपुर पाडलादशपुरे चारूप पंचासरे'। वराहमिहिर ने बृहत्संहिता[4] में दशपुर का उल्लेख किया है। मंदसौर को आज भी आस-पास के गांवों के लोग 'दसौर' नाम से जानते और पुकारते हैं, जो दशपुर का अपभ्रंश है। मदंसौर 'दसौर' का ही रूपान्तरण है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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