रश्मिरथी षष्ठ सर्ग: Difference between revisions

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भूलूठित पितामह को विलोक,
भूलूठित पितामह को विलोक,
छा गया समर में महाशोक।
छा गया समर में महाशोक।
कुरूपति ही धैर्य न खोता था,
        कुरूपति ही धैर्य न खोता था,
अर्जुन का मन भी रोता था।
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*षष्ठ सर्ग का आरम्भ इसी प्रसंग से होता है, जब कर्ण युद्धारम्भ के पूर्व पितामह से आज्ञा लेने को उनके समीप जाता है।  
*षष्ठ सर्ग का आरम्भ इसी प्रसंग से होता है, जब कर्ण युद्धारम्भ के पूर्व पितामह से आज्ञा लेने को उनके समीप जाता है।  
राधेय, किन्तु जिनके कारण,
राधेय, किन्तु जिनके कारण,
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उनका शुभ आशिष पाने को,
उनका शुभ आशिष पाने को,
अपना सद्धर्म निभाने को,
अपना सद्धर्म निभाने को,
वह शर-शय्या की ओर चला,
            वह शर-शय्या की ओर चला,
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छू भीष्मदेव के चरण युगल,
छू भीष्मदेव के चरण युगल,
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‘‘हे तात ! आपका प्रोत्साहन,
‘‘हे तात ! आपका प्रोत्साहन,
पा सका नहीं जो लान्छित जन,
पा सका नहीं जो लान्छित जन,
यह वही सामने आया है,
                      यह वही सामने आया है,
उपहार अश्रु का लाया है।
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*भीष्म कहते हैं कि अब युद्ध समाप्त हो जाना चाहिए।  
*भीष्म कहते हैं कि अब युद्ध समाप्त हो जाना चाहिए।  
‘‘इसलिए, पुत्र ! अब भी रूककर,
‘‘इसलिए, पुत्र ! अब भी रूककर,
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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Revision as of 10:22, 28 September 2013

रश्मिरथी षष्ठ सर्ग
कवि रामधारी सिंह दिनकर
मूल शीर्षक रश्मिरथी
मुख्य पात्र कर्ण
प्रकाशक लोकभारती प्रकाशन
ISBN 81-85341-03-6
देश भारत
भाषा हिंदी
विधा कविता
प्रकार महाकाव्य
भाग षष्ठ सर्ग
मुखपृष्ठ रचना सजिल्द
विशेष 'रश्मिरथी' में कर्ण कथा को विषयवस्तु के रूप में चुनकर लेखक ने सर्जक के नए आयाम का उद्धाटन किया है।
रामधारी सिंह दिनकर की रचनाएँ

रश्मिरथी जिसका अर्थ 'सूर्य की सारथी' है, हिन्दी कवि रामधारी सिंह दिनकर के सबसे लोकप्रिय महाकाव्य कविताओं में से एक है। इसमें 7 सर्ग हैं। 'रश्मिरथी' में कर्ण कथा को विषयवस्तु के रूप में चुनकर लेखक ने सर्जक के नए आयाम का उद्धाटन किया है। यह महाभारत की कहानी है। महाभारत सामूहिक लेखन की देन है। इस अर्थ में दिनकर ने एकदम नयी समस्या की ओर ध्यान खींचा है। कर्ण की कहानी हम वर्षों से सुनते आ रहे हैं। कहानी पुरानी है, काव्य प्रस्तुति नयी है। षष्ठ सर्ग की कथा इस प्रकार है -

षष्ठ सर्ग

  • भीष्म कर्ण से, प्रत्यक्षत: घृणा करते थे, जिसका कारण यह था कि दुर्योधन अधिकतर कर्ण के कहने में था। एक प्रकार से दुर्योधन के प्रेम और विश्वास को लेकर भीष्म और कर्ण में भीतर-भीतर प्रतिस्पर्द्धा चलती थी। अतएव भीष्म कभी भी कर्ण से मीठी बात नहीं बोलते थे। युद्धारम्भ के पूर्व उन्होंने कर्ण के बेटे को तो रथी कहा, कर्ण को 'अर्द्धरथी' कह दिया। इसका कर्ण बुरा मान गया और उसने कहा 'अब यह नहीं हो सकता कि आप और मैं एक साथ रण में प्रवेश करें, क्योंकि महारथी के रहते अर्द्धरथी को वीरता का सुयश नहीं मिलेगा। अतएव उचित यही है कि अकेले आप लड़ लें या मैं युद्ध करूँ। निश्चित हुआ कि पहले भीष्म लड़ेंगे। और भीष्म जब तक लड़ते रहे, कर्ण ने शस्त्र नहीं उठाया। दस दिनों बाद जब भीष्म शरशय्या पर गिरे, तब द्रोणाचार्य के सेनापतित्व में कर्ण ने संग्राम में प्रवेश किया।

कुरूकुल का दीपित ताज गिरा,
थक कर बूढ़ा जब बाज़ गिरा,
भूलूठित पितामह को विलोक,
छा गया समर में महाशोक।
        कुरूपति ही धैर्य न खोता था,
        अर्जुन का मन भी रोता था।[1]

  • षष्ठ सर्ग का आरम्भ इसी प्रसंग से होता है, जब कर्ण युद्धारम्भ के पूर्व पितामह से आज्ञा लेने को उनके समीप जाता है।

राधेय, किन्तु जिनके कारण,
था अब तक किये मौन धारण,
उनका शुभ आशिष पाने को,
अपना सद्धर्म निभाने को,
            वह शर-शय्या की ओर चला,
            पग-पग हो विनय-विभोर चला।[2]

छू भीष्मदेव के चरण युगल,
बोला वाणी राधेय सरल,
‘‘हे तात ! आपका प्रोत्साहन,
पा सका नहीं जो लान्छित जन,
                       यह वही सामने आया है,
                       उपहार अश्रु का लाया है।[3]

  • भीष्म कहते हैं कि अब युद्ध समाप्त हो जाना चाहिए।

‘‘इसलिए, पुत्र ! अब भी रूककर,
मन में सोचो, यह महासमर,
किस ओर तुम्हें ले जायेगा ?
फल अलभ कौन दे पायेगा ?
मानवता ही मिट जायेगी,
फिर विजय सिद्धि क्या लायेगी ?

  • किन्तु रणोन्मत कर्ण उनका उपदेश नहीं मानता। वह युद्ध में प्रवेश करता और पाण्डवी सेना को तहस-नहस कर डालता है।

‘‘जय मिले बिना विश्राम नहीं,
इस समय सन्धि का नाम नहीं,
आशिष दीजिये, विजय कर रण,
फिर देख सकूँ ये भव्य चरण;
जलयान सिन्धु से तार सकूँ;
सबको मैं पार उतार सकूँ।

  • इसी प्रसंग में इस बात की विवेचना की गयी है कि महाभारत का युद्ध धर्मयुद्ध था या नहीं, उपंसहार यह निकलता है कि कोई भी युद्ध धर्मयुद्ध नहीं हो सकता। युद्ध के आदि, मध्य और अन्त सब पापयुक्त होते हैं। जब हिंसा आरम्भ हो गयी, तब धर्म कहाँ रहा? युद्ध मनुष्य इसलिए करता है कि वह जल्दी से अपना लक्ष्य प्राप्त कर ले। किन्तु लक्ष्य की प्राप्ति को धर्म नहीं कहते। धर्म तो लक्ष्य की ओर सन्मार्ग से चलने का नाम है, धर्म साध्य नहीं, साधन को देखता है। किन्तु युद्ध में प्रवृत्त होने पर मनुष्य का ध्यान साधन पर नहीं रहता, वह किसी भी प्रकार विजय चाहने लगता है। और यही आतुरता उसे पाप के पंक में ले जाती है, फिर क्या आश्चर्य कि युद्ध में प्रवृत्त होने पर, कौरव और पाण्डव, दोनों ने पाप किये, दोनों ने विजय-बिन्दु तक पहले पहुँच जाने को सन्मार्ग का त्याग किया। इसके बाद घटोत्कच वध की कथा आती है। कर्ण का पाण्डव सेना पर भयानक कोप देखकर भगवान घटोत्कच को बुलाते हैं।

नटनागर ने इसलिए, युक्ति का
नया योग सन्धान किया,
एकघ्नि-हव्य के लिए घटोत्कच
का हरि ने आह्वान किया।
बोले, ‘‘बेटा ! क्या देख रहा ?
हाथ से विजय जाने पर है,
अब सबका भाग्य एक तेरे
कुछ करतब दिखलाने पर है।

  • उसके युद्ध में प्रवेश करते ही कौरवों की सेना में हाहाकार मच जाता है और दुर्योधन कर्ण से कहने लगता है कि अर्जुन का मस्तक तो अभी दूर है, एकघ्नी चलाकर तुमने घटोत्कच का तुरंत वध नहीं किया तो, हार तो अभी हुई जाती है।

‘‘हे वीर ! विलपते हुए सैन्य का,
अचिर किसी विधि त्राण करो।
अब नहीं अन्य गति; आँख मूँद,
एकघ्नी का सन्धान करो।
अरि का मस्तक है दूर, अभी
अपनों के शीश बचाओ तो,
जो मरण-पाश है पड़ा, प्रथम,
उसमें से हमें छुड़ाओ तो।’’

  • अत: कर्ण एकघ्नी का प्रयोग करता है। घटोत्कच की मृत्यु होती है, कौरवों के बीच हर्षोल्लास छा जाता है और पाण्डव रोने लगते हैं। परन्तु दो व्यक्ति हैं, जिनका हँसना और रोना विशेष अर्थ रखता है। पाण्डवों की सेना में आर्तनाद है, किन्तु भगवान कृष्ण जी खोलकर हँस रहे हैं।

सारी सेना थी चीख रही,
सब लोग व्यग्र बिलखाते थे;
पर बड़ी विलक्षण बात !
हँसी नटनागर रोक न पाते थे।
टल गयी विपद् कोई सिर से,
या मिली कहीं मन-ही-मन जय,
क्या हुई बात ? क्या देख हुए
केशव इस तरह विगत-संशय ?

  • कौरवों की सेना में उल्लास है, परन्तु उनका प्रधान वीर कर्ण ऐसा दिखता है, मानो उसका सर्वस्व लुट गया हो।

निज वाहिनी को प्रीत कर,
वलयित गहन गुन्जार से,
पूजित परम जयकार से,
राधेग संगर से चला, मन में कहीं खोया हुआ,
जय-घोष की झंकार से आगे कहीं सोया हुआ

हारी हुई पाण्डव-चमू में हँस रहे भगवान् थे,
पर जीत कर भी कर्ण के हारे हुए-से प्राण थे

कर्ण-चरित

कर्ण-चरित के उद्धार की चिन्ता इस बात का प्रमाण है कि हमसे समाज में मानवीय गुणों को पहचान बढ़ने वाली है। कुल और जाति का अहंकार विदा हो रहा है। आगे मनुष्य केवल उसी पद का अधिकारी होगा जो उसके अपने सामर्थ्य से सूचित होता हो, उस पद का नहीं,जो उसके माता-पिता या वंश की देन है। इसी प्रकार व्यक्ति अपने निजी गुणों के कारण जिस पद का अधिकारी है वह उसे मिलकर रहेगा, यहाँ तक कि उसके माता-पिता के दोष भी इसमें कोई बाधा नहीं डाल सकेंगे। कर्णचरित का उद्धार एक तरह से, नयी मानवता की स्थापना का ही प्रयास है। रश्मिरथी में स्वयं कर्ण के मुख से निकला है-

 मैं उनका आदर्श, कहीं जो व्यथा न खोल सकेंगे
पूछेगा जग, किन्तु पिता का नाम न बोल सकेंगे,
जिनका निखिल विश्व में कोई कहीं न अपना होगा,
मन में लिये उमंग जिन्हें चिर-काल कलपना होगा।[4]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 'दिनकर', रामधारी सिंह “षष्ठ सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 90।
  2. 'दिनकर', रामधारी सिंह “षष्ठ सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 91।
  3. 'दिनकर', रामधारी सिंह “षष्ठ सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 91।
  4. रश्मिरथी (हिंदी) भारतीय साहित्य संग्रह। अभिगमन तिथि: 22 सितम्बर, 2013।

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