उस्ताद अमीर ख़ाँ: Difference between revisions
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आवाज़ की अलग-अलग किस्में होती हैं, और इन अलग-अलग किस्मों से ही ख़याल गायकियां बनीं, लेकिन उस्ताद अमीर ख़ाँ साहब की आवाज़ की कोई किस्म ही न थी। वह तो सिर्फ एक अधूरी भाव से बनी। आप गले को फाड़ कर आवाज़ बाहर की तरफ़ न फेंके। आप आवाज़ को अपने अंदर लगाएं, जब तक उसे कोई अंदर से न पकड़ ले। एक बार यह हो जाए, फिर आप की आवाज़ सुनाई दे, जैसे भी सुनाई दे। इस स्वर की कोई शर्त ही नहीं थी। न यह स्वर समझता, न ही सुंदर ही बनाने की कोशिश करता। न यह स्वर कोई ड्रामा करता, न ऊपरी तौर से श्रृंगारिक बनने की कोशिश रखता। इस स्वर से तो कोई गाता रहता और इसी स्वर लगाव से उस्ताद अमीर ख़ाँ, अमीर ख़ाँ बने। सूफ़ियों की भाषा में इसे फ़ना कहते हैं, अपने आप में पहले मिट जाना, फिर उस मिटने में से उसको ज़िंदा रखना। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के लिए यह गर्व की बात है कि उस्ताद अमीर ख़ाँ साहब के बाद, कई पीढ़ियां- गाने वाले और बजाने वाले- उन्हें पागलपन की हद तक मोहब्बत करने लगे। एक वक़्त ऐसा आया, जब दूरदराज, उनके संगीत को सुने बिना, अब गाना-बजाना ही नामुमकिन हो गया था। सच बात तो यह है कि सुई का कोना पूरी प्रदक्षिणा कर चुका था।<ref name="नवभारत टाइम्स">{{cite web |url=http://navbharattimes.indiatimes.com/moviearticleshow/15493354.cms#gads|title=वह आवाज़ कभी भुलाई नहीं जा सकती|accessmonthday=22 जनवरी |accessyear=2015 |last= |first=|authorlink= |format= |publisher=नवभारत टाइम्स|language=हिन्दी }}</ref> | आवाज़ की अलग-अलग किस्में होती हैं, और इन अलग-अलग किस्मों से ही ख़याल गायकियां बनीं, लेकिन उस्ताद अमीर ख़ाँ साहब की आवाज़ की कोई किस्म ही न थी। वह तो सिर्फ एक अधूरी भाव से बनी। आप गले को फाड़ कर आवाज़ बाहर की तरफ़ न फेंके। आप आवाज़ को अपने अंदर लगाएं, जब तक उसे कोई अंदर से न पकड़ ले। एक बार यह हो जाए, फिर आप की आवाज़ सुनाई दे, जैसे भी सुनाई दे। इस स्वर की कोई शर्त ही नहीं थी। न यह स्वर समझता, न ही सुंदर ही बनाने की कोशिश करता। न यह स्वर कोई ड्रामा करता, न ऊपरी तौर से श्रृंगारिक बनने की कोशिश रखता। इस स्वर से तो कोई गाता रहता और इसी स्वर लगाव से उस्ताद अमीर ख़ाँ, अमीर ख़ाँ बने। सूफ़ियों की भाषा में इसे फ़ना कहते हैं, अपने आप में पहले मिट जाना, फिर उस मिटने में से उसको ज़िंदा रखना। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के लिए यह गर्व की बात है कि उस्ताद अमीर ख़ाँ साहब के बाद, कई पीढ़ियां- गाने वाले और बजाने वाले- उन्हें पागलपन की हद तक मोहब्बत करने लगे। एक वक़्त ऐसा आया, जब दूरदराज, उनके संगीत को सुने बिना, अब गाना-बजाना ही नामुमकिन हो गया था। सच बात तो यह है कि सुई का कोना पूरी प्रदक्षिणा कर चुका था।<ref name="नवभारत टाइम्स">{{cite web |url=http://navbharattimes.indiatimes.com/moviearticleshow/15493354.cms#gads|title=वह आवाज़ कभी भुलाई नहीं जा सकती|accessmonthday=22 जनवरी |accessyear=2015 |last= |first=|authorlink= |format= |publisher=नवभारत टाइम्स|language=हिन्दी }}</ref> | ||
==महान गायक== | ==महान गायक== | ||
उस्ताद अमीर ख़ाँ की प्रतिभा के अस्वीकार का आरंभ तो उसी समय हो गया था, जब वे [[शास्त्रीय संगीत]] के एक दक्ष गायक बनने के स्वप्न से भरे हुए थे और रायगढ़ दरबार में एक युवतर गायक की तरह अपनी अप्रतिम प्रतिभा के वलबूते संगीत-संसार में एक सर्वमान्य जगह बनाने में लगे हुए थे। एक बार उनके आश्रयदाता ने उन्हें [[मिर्जापुर]] में सम्पन्न होने वाली एक भव्य-संगीत सभा में प्रतिभागी की बतौर भेजा, ताकि वे वहाँ जाकर अपनी गायकी की एक प्रभावकारी उपस्थिति दर्ज करवा के लौटें। लेकिन, उन्होंने जैसे ही अपना गायन शुरू किया चौतरफा एक खलबली-सी होने लगी और रसिकों के बीच से उनके विरोध के स्वर उठने लगे, जो जल्द ही शोरगुल में बदल गये। उस संगीत-सभा में प्रसिद्ध गायक इनायत खाँ, [[फैयाज ख़ाँ]] और केशरबाई भी अपनी प्रस्तुतियाँ देने के लिए मौजूद थे। हालाँकि इन वरिष्ठ गायकों ने समुदाय से आग्रह करके उनको सुने जाने की ताक़ीद भी की लेकिन असंयत-श्रोता समुदाय ने उनके उस निवेदन की सर्वथा अनसुनी कर दी। इस घटना से हुए अपमान-बोध ने युवा गायक अमीर ख़ाँ के मन में ‘अमीर‘ बनने के दृढ़ संकल्प से साथ दिया। वे जानते थे, एक गायक की ‘सम्पन्नता‘, उसके ‘स्वर‘ के साथ ही साथ ‘कठिन साधना‘ भी है। नतीजतन, वे अपने गृह नगर [[इन्दौर]] लौट आये, जहाँ उनकी परम्परा और पूर्वजों की पूँजी दबी पड़ी थी। उनके पिता उस्ताद शाहमीर ख़ाँ थे, जिनका गहरा सम्बन्ध भिण्डी | उस्ताद अमीर ख़ाँ की प्रतिभा के अस्वीकार का आरंभ तो उसी समय हो गया था, जब वे [[शास्त्रीय संगीत]] के एक दक्ष गायक बनने के स्वप्न से भरे हुए थे और रायगढ़ दरबार में एक युवतर गायक की तरह अपनी अप्रतिम प्रतिभा के वलबूते संगीत-संसार में एक सर्वमान्य जगह बनाने में लगे हुए थे। एक बार उनके आश्रयदाता ने उन्हें [[मिर्जापुर]] में सम्पन्न होने वाली एक भव्य-संगीत सभा में प्रतिभागी की बतौर भेजा, ताकि वे वहाँ जाकर अपनी गायकी की एक प्रभावकारी उपस्थिति दर्ज करवा के लौटें। लेकिन, उन्होंने जैसे ही अपना गायन शुरू किया चौतरफा एक खलबली-सी होने लगी और रसिकों के बीच से उनके विरोध के स्वर उठने लगे, जो जल्द ही शोरगुल में बदल गये। उस संगीत-सभा में प्रसिद्ध गायक इनायत खाँ, [[फैयाज ख़ाँ]] और केशरबाई भी अपनी प्रस्तुतियाँ देने के लिए मौजूद थे। हालाँकि इन वरिष्ठ गायकों ने समुदाय से आग्रह करके उनको सुने जाने की ताक़ीद भी की लेकिन असंयत-श्रोता समुदाय ने उनके उस निवेदन की सर्वथा अनसुनी कर दी। इस घटना से हुए अपमान-बोध ने युवा गायक अमीर ख़ाँ के मन में ‘अमीर‘ बनने के दृढ़ संकल्प से साथ दिया। वे जानते थे, एक गायक की ‘सम्पन्नता‘, उसके ‘स्वर‘ के साथ ही साथ ‘कठिन साधना‘ भी है। नतीजतन, वे अपने गृह नगर [[इन्दौर]] लौट आये, जहाँ उनकी परम्परा और पूर्वजों की पूँजी दबी पड़ी थी। उनके पिता उस्ताद शाहमीर ख़ाँ थे, जिनका गहरा सम्बन्ध भिण्डी बाज़ार घराने की प्रसिद्ध गायिका अंजनीबाई मालपेकर के साथ था। वे उनके साथ [[सारंगी]] पर संगत किया करते थे। पिता की यही वास्तविक ख्वाहिश भी थी कि उनका बेटा अमीर ख़ाँ अपने समय का एक मशहूर सारंगी वादक बन जाये। उन्हें लगता था, यह डूबता इल्म है। क्योंकि, सारंगी की प्रतिष्ठा काफ़ी क्षीण थी और वह केवल कोठे से जुड़ी महफिलों का अनिवार्य हिस्सा थी, लेकिन वे यह भी जानते थे कि मनुष्य के कण्ठ के बरअक्स ही सारंगी के स्वर हैं। और उनके पास की यह पूँजी पुत्र के पास पहुँच कर अक्षुण्ण हो जाएगी।<br /> | ||
बहरहाल, पुत्र की वापसी से उन्हें एक किस्म की तसल्ली भी हुई कि शायद वह फिर से अपने पुश्तैनी वाद्य की ओर अपनी पुरानी और परम्परागत आसक्ति बढ़ा ले। लेकिन, युवा गायक ‘अमीर‘ के अवचेतन जगत में मिर्जापुर की संगीत-सभा में हुए अपमान की तिक्त-स्मृति थी, ना भूली जा सकने किसी ग्रन्थि का रूप धर चुकी थी, जिसके चलते वह कोई बड़ा और रचनात्मक-जवाब देने की जिद पाल चुका था। वह अपने उस ‘अपमान’ का उत्तर ‘वाद्य’ नहीं, ‘कण्ठ’ के जरिये ही देना चाहता था। बहरहाल, यह एक युवा सृजनशील-मन के गहरे आत्म-संघर्ष का कालखण्ड था, जहाँ उसे अपने ही भीतर से कुछ ‘आविष्कृत’ कर के उसे विराट बनाना था। नतीजतन, उसने स्वर-साधना को अपना अवलम्ब बनाया, और ऐसी साधना ने एक दिन उसको उसकी इच्छा के निकट लाकर छोड़ दिया। शायद इसी की वजह रही कि बाद में, जब अमीर खाँ साहब देश के सर्वोत्कृष्ट गायकों की कतार में खड़े हो गये तो बड़े-बड़े आमंत्रणों और प्रस्तावों को वे बस इसलिए अस्वीकार कर दिया करते थे कि ‘वहाँ आने-जाने में उनकी ‘रियाज‘ का बहुत ज़्यादा नुक़सान हो जायेगा।‘<ref>{{cite web |url=http://www.abhivyakti-hindi.org/sansmaran/2012/ameer_khan.htm |title=महान गायक उस्ताद अमीर ख़ाँ|accessmonthday=22 जनवरी |accessyear=2015 |last= जोशी|first=प्रभु |authorlink= |format= |publisher=अभिव्यक्ति |language=हिन्दी }}</ref> | बहरहाल, पुत्र की वापसी से उन्हें एक किस्म की तसल्ली भी हुई कि शायद वह फिर से अपने पुश्तैनी वाद्य की ओर अपनी पुरानी और परम्परागत आसक्ति बढ़ा ले। लेकिन, युवा गायक ‘अमीर‘ के अवचेतन जगत में मिर्जापुर की संगीत-सभा में हुए अपमान की तिक्त-स्मृति थी, ना भूली जा सकने किसी ग्रन्थि का रूप धर चुकी थी, जिसके चलते वह कोई बड़ा और रचनात्मक-जवाब देने की जिद पाल चुका था। वह अपने उस ‘अपमान’ का उत्तर ‘वाद्य’ नहीं, ‘कण्ठ’ के जरिये ही देना चाहता था। बहरहाल, यह एक युवा सृजनशील-मन के गहरे आत्म-संघर्ष का कालखण्ड था, जहाँ उसे अपने ही भीतर से कुछ ‘आविष्कृत’ कर के उसे विराट बनाना था। नतीजतन, उसने स्वर-साधना को अपना अवलम्ब बनाया, और ऐसी साधना ने एक दिन उसको उसकी इच्छा के निकट लाकर छोड़ दिया। शायद इसी की वजह रही कि बाद में, जब अमीर खाँ साहब देश के सर्वोत्कृष्ट गायकों की कतार में खड़े हो गये तो बड़े-बड़े आमंत्रणों और प्रस्तावों को वे बस इसलिए अस्वीकार कर दिया करते थे कि ‘वहाँ आने-जाने में उनकी ‘रियाज‘ का बहुत ज़्यादा नुक़सान हो जायेगा।‘<ref>{{cite web |url=http://www.abhivyakti-hindi.org/sansmaran/2012/ameer_khan.htm |title=महान गायक उस्ताद अमीर ख़ाँ|accessmonthday=22 जनवरी |accessyear=2015 |last= जोशी|first=प्रभु |authorlink= |format= |publisher=अभिव्यक्ति |language=हिन्दी }}</ref> | ||
==फ़िल्म संगीत== | ==फ़िल्म संगीत== |
Revision as of 13:22, 15 November 2016
उस्ताद अमीर ख़ाँ
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पूरा नाम | उस्ताद अमीर ख़ाँ |
प्रसिद्ध नाम | उस्ताद अमीर ख़ाँ साहब |
जन्म | 15 अगस्त, 1912 |
जन्म भूमि | इंदौर, मध्य प्रदेश |
मृत्यु | 13 फ़रवरी, 1974 |
मृत्यु स्थान | कलकत्ता (अब कोलकाता) पश्चिम बंगाल |
अभिभावक | चंगे ख़ान (दादा), शाहमीर ख़ान (पिता) |
कर्म-क्षेत्र | शास्त्रीय गायन |
मुख्य फ़िल्में | 'बैजू बावरा', 'शबाब', 'झनक झनक पायल बाजे', 'रागिनी', 'गूंज उठी शहनाई' आदि |
पुरस्कार-उपाधि | संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, पद्म भूषण |
विशेष योगदान | उस्ताद अमीर ख़ाँ ने "अतिविलंबित लय" में एक प्रकार की "बढ़त" लाकर सबको चकित कर दिया था। इस बढ़त में आगे चलकर सरगम, तानें, बोल-तानें, जिनमें मेरुखण्डी अंग भी है, और आख़िर में मध्यलय या द्रुत लय, छोटा ख़याल या रुबाएदार तराना पेश किया। |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | इनके पिता शाहमीर ख़ान भिंडी बाज़ार घराने के सारंगी वादक थे, जो इंदौर के होलकर राजघराने में बजाया करते थे और इनके दादा, चंगे ख़ान तो बहादुर शाह ज़फ़र के दरबार में गायक थे। |
उस्ताद अमीर ख़ाँ (अंग्रेज़ी: Ustad Amir Khan, जन्म: 15 अगस्त, 1912 – 13 फ़रवरी, 1974) भारत के प्रसिद्ध शास्त्रीय संगीत गायक थे। उस्ताद अमीर ख़ाँ को कला के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा, सन 1971 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।
जीवन परिचय
उस्ताद अमीर ख़ाँ का जन्म 15 अगस्त, 1912 को इंदौर में एक संगीत परिवार में हुआ था। पिता शाहमीर ख़ान भिंडी बाज़ार घराने के सारंगी वादक थे, जो इंदौर के होलकर राजघराने में बजाया करते थे। उनके दादा, चंगे ख़ान तो बहादुर शाह ज़फ़र के दरबार में गायक थे। अमीर अली की माँ का देहान्त हो गया था जब वे केवल नौ वर्ष के थे। अमीर और उनका छोटा भाई बशीर, जो बाद में आकाशवाणी इंदौर में सारंगी वादक बने, अपने पिता से सारंगी सीखते हुए बड़े होने लगे। लेकिन जल्द ही उनके पिता ने महसूस किया कि अमीर का रुझान वादन से ज़्यादा गायन की तरफ़ है। इसलिए उन्होंने अमीर अली को ज़्यादा गायन की तालीम देने लगे। ख़ुद इस लाइन में होने की वजह से अमीर अली को सही तालीम मिलने लगी और वो अपने हुनर को पुख़्ता, और ज़्यादा पुख़्ता करते गए। अमीर ने अपने एक मामा से तबला भी सीखा। अपने पिता के सुझाव पर अमीर अली ने 1936 में मध्य प्रदेश के रायगढ़ संस्थान में महाराज चक्रधर सिंह के पास कार्यरत हो गये, लेकिन वहाँ वे केवल एक वर्ष ही रहे। 1937 में उनके पिता की मृत्यु हो गई। वैसे अमीर ख़ान 1934 में ही बम्बई (अब मुम्बई) स्थानांतरित हो गये थे और मंच पर प्रदर्शन भी करने लगे थे। इसी दौरान वे कुछ वर्ष दिल्ली में और कुछ वर्ष कलकत्ता (अब कोलकाता) में भी रहे, लेकिन देश विभाजन के बाद स्थायी रूप से बम्बई में जा बसे।[1]
गायन शैली
उस्ताद अमीर ख़ान के गायकी का जहाँ तक सवाल है, उन्होंने अपनी शैली अख़्तियार की, जिसमें अब्दुल वाहिद ख़ान का विलंबित अंदाज़, रजब अली ख़ान के तान और अमन अली ख़ान के मेरुखण्ड की झलक मिलती है। इंदौर घराने के इस ख़ास शैली में आध्यात्मिक्ता, ध्रुपद और ख़याल के मिश्रण मिलते हैं। उस्ताद अमीर ख़ान ने "अतिविलंबित लय" में एक प्रकार की "बढ़त" ला कर सबको चकित कर दिया था। इस बढ़त में आगे चलकर सरगम, तानें, बोल-तानें, जिनमें मेरुखण्डी अंग भी है, और आख़िर में मध्यलय या द्रुत लय, छोटा ख़याल या रुबाएदार तराना पेश किया। उस्ताद अमीर ख़ान का यह मानना था कि किसी भी ख़याल कम्पोज़िशन में काव्य का बहुत बड़ा हाथ होता है, इस ओर उन्होंने 'सुर रंग' के नाम से कई कम्पोज़िशन्स ख़ुद लिखे हैं। अमीर ख़ान ने तराना को लोकप्रिय बनाया। झुमरा और एकताल का प्रयोग अपने गायन में करते थे, और संगत देने वाले तबला वादक से वो साधारण ठेके की ही माँग करते थे।[1]thumb|left|उस्ताद अमीर ख़ाँ
ख़याल का अज़ीम-ओ-शान शहंशाह
उस्ताद अमीर ख़ाँ साहब हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के उस ऐसे फ़नकार थे, जिन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता। इंदौर घराने के उस्ताद अमीर ख़ाँ साहब, जिन्हें ख़याल का अज़ीम-ओ-शान शहंशाह माना जाता है। इसके बावजूद कि ख़ाँ साहब इंदौर रियासत के आसपास पले-बढ़े, उनके पिता और दादा जी उसी रियासत में संगीत के रूप में मुलाजिम थे, जिस वजह से उन्होंने अपने घराने को इंदौर का नाम दिया। उनकी गायन शैली में कोई रियासत वाली सोच या प्रोत्साहन नहीं था, बल्कि उनकी शैली में एक ऐसा वैराग्य सुनने में आता है, जिससे आसानी से पता चल जाता है कि असल में और आख़िर तक वे सूफ़ी ही थे। उस्ताद अमीर ख़ाँ रूहानी तौर पर अपने आपको अमीर ख़ुसरो के घराने से जोड़ते थे, एक ऐसी परंपरा, जिसमें गाने-बजाने वाले संगीतकार लोग सूफ़ी संतों के आसपास एक अलौकिक झुंड बनाकर बैठे रहते और उनके काउल और बचन गाते। जहां मौसीकी और संगीत को इबादत का एक जरिया माना जाता। और जैसे-जैसे उस्ताद अमीर ख़ाँ साहब अपने वक़्त के कलाकारों को सुनने लगे, उन्होंने अपनी ही सोच से एक ऐसी शैली का निर्माण किया, जो रियासत के फंडों से कोसों दूर भाग चली आई, जहां संगीत की परिभाषा ध्यान और इबादत ही थी। यहां राजाओं और महाराजाओं को रिझाने वाली बात न थी, न महाराजा की नजर में दूसरे कलाकारों से बाजी मारने वाली बात। न संगीत के सामान का कोई प्रदर्शन भी। देखा जाए तो गायकी की इस अनोखी खोज को यदि एक शब्द में कहा जाए तो वह शब्द था सादगी, जो सूफियों की भाषा में एक जबर्दस्त पहुंचा हुए शब्द माना जाता है।
आवाज़ की अलग-अलग किस्में होती हैं, और इन अलग-अलग किस्मों से ही ख़याल गायकियां बनीं, लेकिन उस्ताद अमीर ख़ाँ साहब की आवाज़ की कोई किस्म ही न थी। वह तो सिर्फ एक अधूरी भाव से बनी। आप गले को फाड़ कर आवाज़ बाहर की तरफ़ न फेंके। आप आवाज़ को अपने अंदर लगाएं, जब तक उसे कोई अंदर से न पकड़ ले। एक बार यह हो जाए, फिर आप की आवाज़ सुनाई दे, जैसे भी सुनाई दे। इस स्वर की कोई शर्त ही नहीं थी। न यह स्वर समझता, न ही सुंदर ही बनाने की कोशिश करता। न यह स्वर कोई ड्रामा करता, न ऊपरी तौर से श्रृंगारिक बनने की कोशिश रखता। इस स्वर से तो कोई गाता रहता और इसी स्वर लगाव से उस्ताद अमीर ख़ाँ, अमीर ख़ाँ बने। सूफ़ियों की भाषा में इसे फ़ना कहते हैं, अपने आप में पहले मिट जाना, फिर उस मिटने में से उसको ज़िंदा रखना। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के लिए यह गर्व की बात है कि उस्ताद अमीर ख़ाँ साहब के बाद, कई पीढ़ियां- गाने वाले और बजाने वाले- उन्हें पागलपन की हद तक मोहब्बत करने लगे। एक वक़्त ऐसा आया, जब दूरदराज, उनके संगीत को सुने बिना, अब गाना-बजाना ही नामुमकिन हो गया था। सच बात तो यह है कि सुई का कोना पूरी प्रदक्षिणा कर चुका था।[2]
महान गायक
उस्ताद अमीर ख़ाँ की प्रतिभा के अस्वीकार का आरंभ तो उसी समय हो गया था, जब वे शास्त्रीय संगीत के एक दक्ष गायक बनने के स्वप्न से भरे हुए थे और रायगढ़ दरबार में एक युवतर गायक की तरह अपनी अप्रतिम प्रतिभा के वलबूते संगीत-संसार में एक सर्वमान्य जगह बनाने में लगे हुए थे। एक बार उनके आश्रयदाता ने उन्हें मिर्जापुर में सम्पन्न होने वाली एक भव्य-संगीत सभा में प्रतिभागी की बतौर भेजा, ताकि वे वहाँ जाकर अपनी गायकी की एक प्रभावकारी उपस्थिति दर्ज करवा के लौटें। लेकिन, उन्होंने जैसे ही अपना गायन शुरू किया चौतरफा एक खलबली-सी होने लगी और रसिकों के बीच से उनके विरोध के स्वर उठने लगे, जो जल्द ही शोरगुल में बदल गये। उस संगीत-सभा में प्रसिद्ध गायक इनायत खाँ, फैयाज ख़ाँ और केशरबाई भी अपनी प्रस्तुतियाँ देने के लिए मौजूद थे। हालाँकि इन वरिष्ठ गायकों ने समुदाय से आग्रह करके उनको सुने जाने की ताक़ीद भी की लेकिन असंयत-श्रोता समुदाय ने उनके उस निवेदन की सर्वथा अनसुनी कर दी। इस घटना से हुए अपमान-बोध ने युवा गायक अमीर ख़ाँ के मन में ‘अमीर‘ बनने के दृढ़ संकल्प से साथ दिया। वे जानते थे, एक गायक की ‘सम्पन्नता‘, उसके ‘स्वर‘ के साथ ही साथ ‘कठिन साधना‘ भी है। नतीजतन, वे अपने गृह नगर इन्दौर लौट आये, जहाँ उनकी परम्परा और पूर्वजों की पूँजी दबी पड़ी थी। उनके पिता उस्ताद शाहमीर ख़ाँ थे, जिनका गहरा सम्बन्ध भिण्डी बाज़ार घराने की प्रसिद्ध गायिका अंजनीबाई मालपेकर के साथ था। वे उनके साथ सारंगी पर संगत किया करते थे। पिता की यही वास्तविक ख्वाहिश भी थी कि उनका बेटा अमीर ख़ाँ अपने समय का एक मशहूर सारंगी वादक बन जाये। उन्हें लगता था, यह डूबता इल्म है। क्योंकि, सारंगी की प्रतिष्ठा काफ़ी क्षीण थी और वह केवल कोठे से जुड़ी महफिलों का अनिवार्य हिस्सा थी, लेकिन वे यह भी जानते थे कि मनुष्य के कण्ठ के बरअक्स ही सारंगी के स्वर हैं। और उनके पास की यह पूँजी पुत्र के पास पहुँच कर अक्षुण्ण हो जाएगी।
बहरहाल, पुत्र की वापसी से उन्हें एक किस्म की तसल्ली भी हुई कि शायद वह फिर से अपने पुश्तैनी वाद्य की ओर अपनी पुरानी और परम्परागत आसक्ति बढ़ा ले। लेकिन, युवा गायक ‘अमीर‘ के अवचेतन जगत में मिर्जापुर की संगीत-सभा में हुए अपमान की तिक्त-स्मृति थी, ना भूली जा सकने किसी ग्रन्थि का रूप धर चुकी थी, जिसके चलते वह कोई बड़ा और रचनात्मक-जवाब देने की जिद पाल चुका था। वह अपने उस ‘अपमान’ का उत्तर ‘वाद्य’ नहीं, ‘कण्ठ’ के जरिये ही देना चाहता था। बहरहाल, यह एक युवा सृजनशील-मन के गहरे आत्म-संघर्ष का कालखण्ड था, जहाँ उसे अपने ही भीतर से कुछ ‘आविष्कृत’ कर के उसे विराट बनाना था। नतीजतन, उसने स्वर-साधना को अपना अवलम्ब बनाया, और ऐसी साधना ने एक दिन उसको उसकी इच्छा के निकट लाकर छोड़ दिया। शायद इसी की वजह रही कि बाद में, जब अमीर खाँ साहब देश के सर्वोत्कृष्ट गायकों की कतार में खड़े हो गये तो बड़े-बड़े आमंत्रणों और प्रस्तावों को वे बस इसलिए अस्वीकार कर दिया करते थे कि ‘वहाँ आने-जाने में उनकी ‘रियाज‘ का बहुत ज़्यादा नुक़सान हो जायेगा।‘[3]
फ़िल्म संगीत
फ़िल्म संगीत में भी उस्ताद अमीर ख़ान का योगदान उल्लेखनीय है। 'बैजू बावरा', 'शबाब', 'झनक झनक पायल बाजे', 'रागिनी', और 'गूंज उठी शहनाई' जैसी फ़िल्मों के लिए उन्होंने अपना स्वरदान किया। बंगला फ़िल्म 'क्षुधितो पाशाण' में भी उनका गायन सुनने को मिला था।
सम्मान और पुरस्कार
thumb|उस्ताद अमीर ख़ाँ संगीत के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिये उस्ताद अमीर ख़ान को 1967 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार और 1971 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।
विशेष योगदान
कहा जाता है कि उस्ताद अमीर ख़ाँ ने हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत को मंदरा ख़याल दिया। जरूर, क्योंकि वे कहा करते कि जितनी गहरी आपकी नींव, उतनी ऊंची आपकी इमारत, लेकिन इससे भी ज्यादा बात है कि उन्होंने ख़याल संगीत को एक ऐसा आलाप बताया, जो राग को अवरोही से बराता, जैसे कि घड़ी घूमती है। ध्यान का वसूल भी यही है। और इसी उसूल को साधते-साधते उन्हें अपनी गायकी में ध्यान के आकार मिले, और वे एक अवरोही प्रधान खयाल गाने लगे, जहां राग भी असल में खुलता है। यही वजह थी कि उन्होंने आवाज़ का मंदरा भी खोला, और गायकी बनाई। यह भी जानी-मानी बात है कि उस्ताद अमीर ख़ाँ ने हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत को 'पाज' यानी उसका अनहद फिक्रा दिया, जिससे उनका विलंबित ख़याल बहुत चैनदार सुनने में आता था। इसके पीछे बात यह थी कि संगीत, आत्मा की कभी न मिटने वाली भूख, पहले आत्मा में सोचा जाता है, और फिर उसका साक्षात्कार होता है। इसी कारण खान साहब ने 'पाज' को आगे रखकर गेय फिक्रा गाया। उनके संगीत का संचालन ही अनकही से होता, जिसे हम कभी से पहले सुनते। यही उनकी सोच थी। जिस वजह से उनकी इंदौर की गायकी को शास्त्रीय संगीत का पहला अंतर्मुखी घराना कहा जाता है।[2]
निधन
एक सड़क दुर्घटना में उस्ताद अमीर ख़ाँ साहब को 13 फ़रवरी, 1974 के दिन हम से हमेशा हमेशा के लिए विदा हो गये।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 सुर संगम में आज - उस्ताद अमीर ख़ान का गायन - राग मालकौन्स (हिन्दी) आवाज़। अभिगमन तिथि: 22 जनवरी, 2015।
- ↑ 2.0 2.1 वह आवाज़ कभी भुलाई नहीं जा सकती (हिन्दी) नवभारत टाइम्स। अभिगमन तिथि: 22 जनवरी, 2015।
- ↑ जोशी, प्रभु। महान गायक उस्ताद अमीर ख़ाँ (हिन्दी) अभिव्यक्ति। अभिगमन तिथि: 22 जनवरी, 2015।
बाहरी कड़ियाँ
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