कुमुदवन: Difference between revisions
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रामावतार में जब श्रीरामचन्द्र जी मेघनाद के द्वारा नागपाश में बंधकर असहाय जैसे हो गये, उस समय देवर्षि नारद से संवाद पाकर गरुड़जी वहाँ उपस्थित हुए । उनको देखते ही नाग श्रीरामचन्द्रजी को छोड़कर भाग गये । इससे गरुड़जी को श्रीराम की भगवत्ता में कुछ संदेह हो गया। पीछे से महात्मा काकभुषुण्डी के सत्संग से एवं तत्पश्चात् श्रीकृष्ण लीला के समय श्रीकृष्ण दर्शन से उनका वह संदेह दूर हो गया । जहाँ उन्होंने गो, गोप एवं गऊओं के पालन करने वाले श्रीगोविन्द का दर्शन किया था, उसे गरुड़ गोविन्द कहते हैं । उस समय श्रीकृष्ण ने उनके कंधे पर आरोहणकर उन्हें आश्वासन दिया था । | रामावतार में जब श्रीरामचन्द्र जी मेघनाद के द्वारा नागपाश में बंधकर असहाय जैसे हो गये, उस समय देवर्षि नारद से संवाद पाकर गरुड़जी वहाँ उपस्थित हुए । उनको देखते ही नाग श्रीरामचन्द्रजी को छोड़कर भाग गये । इससे गरुड़जी को श्रीराम की भगवत्ता में कुछ संदेह हो गया। पीछे से महात्मा काकभुषुण्डी के सत्संग से एवं तत्पश्चात् श्रीकृष्ण लीला के समय श्रीकृष्ण दर्शन से उनका वह संदेह दूर हो गया । जहाँ उन्होंने गो, गोप एवं गऊओं के पालन करने वाले श्रीगोविन्द का दर्शन किया था, उसे गरुड़ गोविन्द कहते हैं । उस समय श्रीकृष्ण ने उनके कंधे पर आरोहणकर उन्हें आश्वासन दिया था । | ||
==गन्धेश्वरी== | ==गन्धेश्वरी== | ||
इस स्थान का वर्तमान नाम गणेशरा गाँव है । श्रीकृष्ण ने गोचारण के समय सखाओं के साथ गन्ध द्रव्यों को अपने–अपने अंगो में धारण किया था । कहते हैं यहाँ सहेलियों के साथ पास ही में छिपी हुई राधिका के अंगो की गन्ध से श्रीकृष्ण मोहग्रस्त हो गये ।<ref>यस्या: कदापि वसनाञ्चलखेलनोत्थ । धन्यातिधन्य–पवनेन कृतार्थमानी । योगीन्द्र–दुर्गमगतिर्मधुसूदनोऽपि तस्या नमोऽस्तु वृषभानुभूवो दिशेऽपि ।। राधारससुधानिधि–2 </ref> राधिका जी को देखकर उनके हाथों से बंशी गिर गई । मोर मुकुट भी श्रीराधिका के चरणों में गिर गया । यहाँ तक कि वे स्वयं मूर्छित हो गये ।<ref>वंशी करान्निपतित: स्खलितं शिखण्डं भ्रष्टञ्च पीतवसनं व्रजराजसूनो: । यस्या: कटाक्षशरघात–विमूर्च्छितस्य तां राधिकां परिचरामि कदा रसेन ।। राधारससुधानिधि–39</ref> इसलिए यह गन्धेश्वरी तीर्थ कहलाता है । राधिका का दूसरा नाम गान्धर्वा भी है । | इस स्थान का वर्तमान नाम गणेशरा गाँव है । श्रीकृष्ण ने गोचारण के समय सखाओं के साथ गन्ध द्रव्यों को अपने–अपने अंगो में धारण किया था । कहते हैं यहाँ सहेलियों के साथ पास ही में छिपी हुई राधिका के अंगो की गन्ध से श्रीकृष्ण मोहग्रस्त हो गये ।<ref>यस्या: कदापि वसनाञ्चलखेलनोत्थ । धन्यातिधन्य–पवनेन कृतार्थमानी । योगीन्द्र–दुर्गमगतिर्मधुसूदनोऽपि तस्या नमोऽस्तु वृषभानुभूवो दिशेऽपि ।। राधारससुधानिधि–2 </ref> राधिका जी को देखकर उनके हाथों से बंशी गिर गई । मोर मुकुट भी श्रीराधिका के चरणों में गिर गया । यहाँ तक कि वे स्वयं मूर्छित हो गये ।<ref>वंशी करान्निपतित: स्खलितं शिखण्डं भ्रष्टञ्च पीतवसनं व्रजराजसूनो: । यस्या: कटाक्षशरघात–विमूर्च्छितस्य तां राधिकां परिचरामि कदा रसेन ।। राधारससुधानिधि–39</ref> इसलिए यह गन्धेश्वरी तीर्थ कहलाता है । राधिका का दूसरा नाम गान्धर्वा भी है । उन्हीं के नाम के अनुसार यहाँ गान्धर्वा कुण्ड आज भी श्रीराधाकृष्ण के विलास की ध्वजा फहरा रहा है । गन्धेश्वरी का अपभ्रंश ही वर्तमान समय में गणेशरा नाम से प्रसिद्ध है । | ||
==खेचरी गाँव== | ==खेचरी गाँव== | ||
यह गाँव मथुरा के पश्चिम में दो मील तथा [[शांतनु कुंड]] से ईशान कोण में एक मील की दूरी पर स्थित है । खेचरी का तात्पर्य आकाश में विचरण करने वाली राक्षसी पूतना से है । [[कंस]] ने इसके प्रभाव को जानकर इसे अपनी बहन बना लिया था । उसी के अनुरोध से विविध प्रकार के रूप धारण करने वाली, बालकों के रुधिर एवं मांस को भक्षण करने वाली अपवित्र पूतना माता का सुन्दर वेश धारणकर तथा स्तनों में कालकूट विष भरकर नन्दभवन में श्रीकृष्ण को मारने आई किन्तु अहैतु की कृपा के सागर श्रीकृष्ण ने केवल माता का वेश धारण करने के कारण ही विष के साथ–साथ उसके प्राणों को भी खींचकर उसे मातृ सुलभ गति प्रदान की । यह पूतना राक्षसी का निवास स्थल है। | यह गाँव मथुरा के पश्चिम में दो मील तथा [[शांतनु कुंड]] से ईशान कोण में एक मील की दूरी पर स्थित है । खेचरी का तात्पर्य आकाश में विचरण करने वाली राक्षसी पूतना से है । [[कंस]] ने इसके प्रभाव को जानकर इसे अपनी बहन बना लिया था । उसी के अनुरोध से विविध प्रकार के रूप धारण करने वाली, बालकों के रुधिर एवं मांस को भक्षण करने वाली अपवित्र पूतना माता का सुन्दर वेश धारणकर तथा स्तनों में कालकूट विष भरकर नन्दभवन में श्रीकृष्ण को मारने आई किन्तु अहैतु की कृपा के सागर श्रीकृष्ण ने केवल माता का वेश धारण करने के कारण ही विष के साथ–साथ उसके प्राणों को भी खींचकर उसे मातृ सुलभ गति प्रदान की । यह पूतना राक्षसी का निवास स्थल है। |
Latest revision as of 12:06, 27 April 2018
कुमुदवन तालवन से दो मील पश्चिम में स्थित है। इसका वर्तमान नाम कुदरवन है। यहाँ एक कुण्ड है, जिस कुमुदिनी कुण्ड या विहार कुण्ड भी कहते हैं। श्रीकृष्ण एवं श्रीबलराम जी सखाओं के साथ गोचारण करते हुए इस रमणीय स्थान पर विचरण करते थे । सखाओं के साथ श्रीकृष्ण स्वयं इसमें जलविहार करते तथा गऊओं को भी मधुर शब्दों से बुलाकर चूँ–चूँ कहकर जल पिलाते, तीरी तीरी कहकर उन्हें तट पर बुलाते । कमुदिनी फूलों के हार बनाकर एक दूसरे को पहनाते । कभी–कभी कृष्ण सखाओं से छिपकर राधिका, ललिता, विशाखा आदि प्रियनर्म सखियों के साथ जल–विहार करते थे । आजकल यहाँ कुण्ड के तट पर श्री कपिल देव जी की मूर्ति विराजमान है । भगवान कपिल ने यहाँ स्वयं भगवान श्री कृष्ण की आराधना की थी । यहाँ से ब्रजयात्रा शान्तनु कुण्ड से होकर बहुलावन की ओर प्रस्थान करती है। आसपास में उस पार, मानको नगर, लगायो, गणेशरा (गन्धेश्वरी वन) दतिहा, आयोरे, गौराई, छटीकरा, गरुड़ गोविन्द, ऊँचा गाँव आदि दर्शनीय लीला–स्थलियाँ हैं।
दतिहा
यह स्थान मथुरा से पश्चिम दिशा में लगभग छह मील और शान्तनु कुण्ड से दो मील की दूरी पर है। यहाँ पर श्री कृष्ण ने दन्तवक्र का वध किया था । पद्म पुराण के अनुसार सूर्यग्रहण के समय नन्द आदि समस्त ब्रजवासी एवं श्रीकृष्ण की प्रियतम गोपियाँ कृष्ण से मिलने कुरुक्षेत्र गई थीं । 'मैं शीघ्र ही ब्रज में आऊँगा' पुन: पुन: ऐसा आश्वासन देकर श्रीकृष्ण ने उन सभी को ब्रज में लौटा दिया। गोप–गोपियाँ नन्दबाबा के साथ ब्रज में लौटे, किन्तु गोकुल महावन न जाकर दतिहा के पास ही यमुना के उस पार कृष्ण की प्रतीक्षा करने लगे । जहाँ प्रतीक्षा करते हुए वास कर रहे थे, उस गाँव का नाम मगेरा या मघेरा है और दूसरे गाँव का नाम उस पार है । उधर श्रीकृष्ण शिशुपाल को मारकर ब्रज में आये और इसी स्थान पर दन्तवक्र का वध किया तथा यमुना पारकर माता पिता एवं ब्रजवासियों से मिले । यहाँ दन्तवक्र का वध होने के कारण इसे दतिहा कहते हैं ।
आयोरे
श्रीकृष्ण को देखते ही ब्रजवासियों ने प्रसन्नता से "आयोरे ! आयोरे !" इस प्रकार कहा था । नन्दबाबा और यशोदा बड़े लाड़ प्यार से कृष्ण से मिले । यवनों ने अपने राज्यत्व काल में इसका नाम आलीपुर रख दिया जो आज भी प्रसिद्ध है ।
गौराई या गोरवाई
जब नन्दबाबा कुरुक्षेत्र से लौटे तब इस ग्राम के ज़मींदार ने बड़े आदर और गौरव के साथ उनका सम्मान किया इसलिए इस स्थान का नाम गौरव या गौरवाई हो गया । यह स्थान गोकुल से ईशान कोण में तीन मील दूर स्थित है । इसका वर्तमान नाम 'गुरु' है ।
छटीकरा (शकटीकरा)
इस स्थान का वर्तमान नाम छटीकरा है । यह दिल्ली–मथुरा राजमार्ग पर मथुरा से चार मील एवं वृन्दावन से लगभग दो मील दूरी पर स्थित है । गोकुल महावन में असुरों का उत्पात देखकर नन्दबाबा सारे ब्रजवासियों के साथ यहाँ उपस्थित हुए । ब्रजवासियों ने अपने लाखों शकटों से (बैलगाड़ियों से) अर्द्धचन्द्राकार रूप में अपना निवास स्थान प्रस्तुत किया । शकटों से (बैलगाड़ियों से) वासस्थान निर्मित होने के कारण यह स्थान छटीकरा के नाम से प्रसिद्ध है । श्रीकृष्ण बलराम यहीं से मधुर वृन्दावन एवं आस-पास के क्षेत्रों में गोवत्स और गोचारण के लिए जाते थे । यहीं से उन्होंनें ब्रज की रासादि लीलाओं का सम्पादन किया । उस समय वृन्दावन समृद्ध नगर नहीं, बल्कि नाना प्रकार के कुञ्ज, लता एवं रमणीय वनों से सुसज्जित श्रीकृष्ण लीलाविलास का स्थल था ।
गरुड़ गोविन्द
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मथुरा से दिल्ली जाते समय 'राष्ट्रीय राजमार्ग 2' पर पड़ने वाले छटीकरा के पास ही 'गरूड़ - गोविन्द' कृष्ण की विहार स्थली है। एक दिन श्रीकृष्ण गोचारण करते हुए सखाओं के साथ यहाँ नाना प्रकार की क्रीड़ाओं में मग्न थे। वे बाल क्रीड़ा करते हुए श्रीदाम सखा को गरुड़ बनाकर उसकी पीठ पर स्वयं बैठकर इस प्रकार खेलने लगे मानो स्वयं लक्ष्मीपति नारायण गरुड़ की पीठ पर सवार हों।
अन्य प्रसंग
रामावतार में जब श्रीरामचन्द्र जी मेघनाद के द्वारा नागपाश में बंधकर असहाय जैसे हो गये, उस समय देवर्षि नारद से संवाद पाकर गरुड़जी वहाँ उपस्थित हुए । उनको देखते ही नाग श्रीरामचन्द्रजी को छोड़कर भाग गये । इससे गरुड़जी को श्रीराम की भगवत्ता में कुछ संदेह हो गया। पीछे से महात्मा काकभुषुण्डी के सत्संग से एवं तत्पश्चात् श्रीकृष्ण लीला के समय श्रीकृष्ण दर्शन से उनका वह संदेह दूर हो गया । जहाँ उन्होंने गो, गोप एवं गऊओं के पालन करने वाले श्रीगोविन्द का दर्शन किया था, उसे गरुड़ गोविन्द कहते हैं । उस समय श्रीकृष्ण ने उनके कंधे पर आरोहणकर उन्हें आश्वासन दिया था ।
गन्धेश्वरी
इस स्थान का वर्तमान नाम गणेशरा गाँव है । श्रीकृष्ण ने गोचारण के समय सखाओं के साथ गन्ध द्रव्यों को अपने–अपने अंगो में धारण किया था । कहते हैं यहाँ सहेलियों के साथ पास ही में छिपी हुई राधिका के अंगो की गन्ध से श्रीकृष्ण मोहग्रस्त हो गये ।[1] राधिका जी को देखकर उनके हाथों से बंशी गिर गई । मोर मुकुट भी श्रीराधिका के चरणों में गिर गया । यहाँ तक कि वे स्वयं मूर्छित हो गये ।[2] इसलिए यह गन्धेश्वरी तीर्थ कहलाता है । राधिका का दूसरा नाम गान्धर्वा भी है । उन्हीं के नाम के अनुसार यहाँ गान्धर्वा कुण्ड आज भी श्रीराधाकृष्ण के विलास की ध्वजा फहरा रहा है । गन्धेश्वरी का अपभ्रंश ही वर्तमान समय में गणेशरा नाम से प्रसिद्ध है ।
खेचरी गाँव
यह गाँव मथुरा के पश्चिम में दो मील तथा शांतनु कुंड से ईशान कोण में एक मील की दूरी पर स्थित है । खेचरी का तात्पर्य आकाश में विचरण करने वाली राक्षसी पूतना से है । कंस ने इसके प्रभाव को जानकर इसे अपनी बहन बना लिया था । उसी के अनुरोध से विविध प्रकार के रूप धारण करने वाली, बालकों के रुधिर एवं मांस को भक्षण करने वाली अपवित्र पूतना माता का सुन्दर वेश धारणकर तथा स्तनों में कालकूट विष भरकर नन्दभवन में श्रीकृष्ण को मारने आई किन्तु अहैतु की कृपा के सागर श्रीकृष्ण ने केवल माता का वेश धारण करने के कारण ही विष के साथ–साथ उसके प्राणों को भी खींचकर उसे मातृ सुलभ गति प्रदान की । यह पूतना राक्षसी का निवास स्थल है।
शान्तनु कुण्ड
यह स्थान महाराज शान्तनु की तपस्या–स्थली है । इसका वर्तमान नाम सतोहा है । मथुरा से लगभग तीन मील की दूरी पर गोवर्धन राजमार्ग यह स्थित है । महाराज शान्तनु ने पुत्र कामना से यहाँ पर भगवद आराधना की थी । प्रसिद्ध भीष्म पितामह इनके पुत्र थे । भीष्म पितामह की माता का नाम गंगा था । किन्तु गंगाजी विशेष कारण से महाराज शान्तु को छोड़कर चली गई थी । महाराज शान्तनु मथुरा के सामने यमुना के उस पार एक धीवर के घर यपलावण्यवती (उर्वशी की कन्या सत्यवती) मत्स्यगन्धा या मत्स्योदरी को देखकर उससे विवाह करने के इच्छुक हो गये किन्तु धीवर, महाराज को अपनी पोष्य कन्या को देने के लिए प्रस्तुत नहीं हुआ उसने कहा– मेरी कन्या से उत्पन्न पुत्र ही आपके राज्य का अधिकारी होगा । । मेरी इस शर्त को स्वीकार करने पर ही आप मेरी इस कन्या को ग्रहण कर सकते हैं । महाराज शान्तनु ने युवराज देवव्रत (भीष्म) के कारण विवाह करना अस्वीकार कर दिया । किन्तु मन ही मन दु:खी रहने लगे । कुमार देवव्रत को यह बात मालूम होने पर वे धीवर के घर पहुँचे और उसके सामने प्रतिज्ञा की कि मैं आजीवन ब्रह्मचारी रहूँगा और मत्स्योदरी के गर्भ से उत्पन्न बालक तुम्हारा दोहता ही राजा होगा । ऐसी प्रतिज्ञा कर उस धीवर–कन्या से महाराज शान्तनु का विवाह करवाया । इससे प्रतीत होता है । कि महाराज की राजधानी हस्तिनापुर होने पर भी शान्तनु कुण्ड में भी उनका एक निवास स्थल था । यहाँ शान्तनु कुण्ड है, जहाँ संतान की कामना करने वाली स्त्रियाँ इस कुण्ड में स्नान करती हैं तथा मन्दिर के पीछे गोबर का सतिया बनाकर पूजा करती हैं । शान्तनु कुण्ड के बीच में ऊँचे टीले पर शान्तनु के आराध्य श्रीशान्तनु बिहारी जी का मन्दिर है ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यस्या: कदापि वसनाञ्चलखेलनोत्थ । धन्यातिधन्य–पवनेन कृतार्थमानी । योगीन्द्र–दुर्गमगतिर्मधुसूदनोऽपि तस्या नमोऽस्तु वृषभानुभूवो दिशेऽपि ।। राधारससुधानिधि–2
- ↑ वंशी करान्निपतित: स्खलितं शिखण्डं भ्रष्टञ्च पीतवसनं व्रजराजसूनो: । यस्या: कटाक्षशरघात–विमूर्च्छितस्य तां राधिकां परिचरामि कदा रसेन ।। राधारससुधानिधि–39
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