प्रयोग:फ़ौज़िया4
वास्तुकला एवं मूर्तिकला
प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय वास्तुकला के बारे में एक अद्भुत तथ्य यह है कि मूर्तिकला उसका एक अविभाज्य अंग थी। इस संदर्भ में सिधु घाटी की संस्कृति ही शायद एकमात्र अपवाद है, क्योंकि उसकी इमारतें उपयोगितावादी हैं, पर उनमें कलात्मक कौशल नहीं है। हो सकता है, समय के साथ उनकी अलंकारमय सजावट नष्ट हो गई हो। हालांकि मूर्तिकला विकसित थी।
सिंधु घाटी की मूर्तियाँ और मोहरें
हालांकि इसे 'सिंधु घाटी' या 'हड़प्पा' संस्कृति कहा गया, पर यह सभ्यता इससे ज्यादा दूर-दूर तक फैली हुई थी और प्रकट रूप से बहुत विकसित थी। पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर, इस संस्कृति के फलने-फूलने के मुख्य काल-उसके परिपक्व शहरी चरण के, 2100 से 1750 ई.पू. के बीच कभी होने का अनुमान है, जबकि सिंधु घाटी के प्रकार की कलात्मक वस्तुएं मेसोपोटामिया में 2300 ई.पू. के करीब तक मिली हैं। मकानों के निर्माण में सामग्री की उत्कृष्टता तथा दुर्ग, सम्मेलन सभागारों, अनाज के गोदामों कार्यशालाओं, छात्रावासों, बाजारों आदि की मौजूदगी तथा आधुनिक जल निकास प्रणाली वाले भव्य नगरों के समान वैज्ञानिक ले-आउट देखकर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उस काल की संस्कृति काफी समृद्ध थी। स्वाभाविक था कि कला और शिल्प उस समाज में उन्नत अवस्था में थे। इस सभ्यता की कला के बचे नमूनों में से सबसे खूबसूरत शायद पतली छड़ी जैसे लड़की की लघु कांस्य मूर्ति है, जिसने अपने हाथों में एक कटोरा पकड़ा हुआ है। चूना पत्थर और लाल पत्थर के दो खंडित धड़ भी हैं। जो हड़प्पा से मिले थे।
इन सभी मूर्तिशिल्पों में से सबसे सुरक्षित हैं। एक व्यक्ति का सात इंच ऊंचा सिर और कंधा, जिसके चेहरे पर छोटी सी दाढ़ी और बारीक कटी हुई मूंछे हैं तथा उसका शरीर एक शॉल में लिपटा है जो बाएं कंधे के ऊपर और दाई बाँह के नीचे से होकर गयी है, जो लगता है कि किसी पुजारी की छवि है। इस मूर्ति और मोहनजोदड़ो से मिले अन्य दाढ़ी वाले सिरों तथा सुमेरिया के मूर्तिसंग्रह में कुछ समानता है।
टेराकोटा की विविध वस्तुएं भी है। जिनमें सभी प्रकार की छोटी-छोटी आकृतियाँ और अलग-अलग आकारों और डिजाइनों के सेरामिक पात्र शामिल हैं। मिट्टी से बनी जानवरों की आकृतियाँ खासतौर पर बहुत लुभावनी लगती हैं, जिन्हें खिलौनों के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता होगा, क्योंकि वह खेलने के अंदाज में बनी हैं और छोटी-छोटी भी हैं। अनेक मर्तबानों और कटोरों पर ऐसे डिजाइन चित्रित हैं, जिन्हें आमतौर पर प्रकृति से लिया गया है और उनका संबंध उर्वरता से होता है।
सिंधु क्षेत्र में पायी गयी अन्य बहुत सी वस्तुओं में सील (मुहर) की अनेक चौकोर छोटी-छोटी वे आकृतियाँ भी थीं जिन्हें कई प्रकार के डिजाइनों में अभिचित्रत किया गया था। ये सील उन लोगों की हो सकती थीं जिन्होंने इनका उपयोग सम्पत्ति चिन्हित करने अथवा अन्य अनुबंधों को मजबूती प्रदान करने के लिए किया होगा। प्रिज्म आकार की सीलों की ये आकृतियाँ संभवत: उन अनुबंधों के रिकार्ड के लिए थीं। कुछ सीलों में बैल की अनेक आकृतियाँ बनी हुई मिलीं है, जबकि कुछ अन्य सीलों में अन्य जानवरों की आकृतियाँ थीं। विशेषज्ञों के मतानुसार, सीलों में अभिचित्रित आकृतियाँ विश्व के कुछ उन महान उद्धहरणों में हैं जो तत्कालीन कलाकारों की महान क्षमता को दर्शाती हैं। इससे स्पष्ट होता है कि उस समय भी कलात्मक आकार देने में कलाकारों का कोई जवाब नहीं था। यद्यपि वे किसी विशेष बैलों की आकृतियाँ नहीं हैं, फिर भी वे विशेष प्रकार की जातियों का प्रतिनिधित्व करती थीं। दो हजार से अधिक सीलें तथा चार सौ से अधिक विभिन्न प्रकार की सीलों के अन्य आकार सिंधु घाटी में पाये गये तथापि अभी भी उनके बारे में कोई पुष्ट अभिलेख और तत्संबंधी जानकारी अनुपलब्ध है। बहरहाल, प्राचीन सभ्यता संबंधी हमारा ज्ञान कई परिप्रेक्ष्यों में अभी तक अपर्याप्त ही है।
मौर्यकालीन कला
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हड़प्पा युग और मौर्य काल के बीच के अनेक पुरातात्विक अवशेष हमारे पास नहीं हैं। ऐसा संभवत: इस वजय से हुआ, क्योंकि उस काल में भवन पत्थर के नहीं बनते थे। मौर्य शासन काल हमारे सांस्कृतिक इतिहास का एक महत्वपूर्ण युग है।
यद्यपि मौर्यों द्वारा निर्मित भवनों के अवशेष हमारे बीच नहीं हैं पर मौर्य शासन काल की कई बातों का जिक्र ग्रीक इतिहासकार मेगास्थनीज ने अपनी पुस्तक 'इण्डिका' में किया है। इसमें मौर्यो की राजधानी पाटलिपुत्र शहर के वैभव एवं उसकी सत्ता के बारे में भी उल्लेख किया गया है। पाटलिपुत्र शहर दस मील लंबा और दो मील चौड़ा था, जो मजबूत लकड़ी की दीवारों से घिरा हुआ था। उसमें 500 टॉवर और 64 दरवाजे थे। उसके भीतर शाही महल था जो अपने आकार में ईरान के शाही महल की नकल पर बना था। चंद्रगुप्त के पौत्र अशोक ने बौद्ध धर्म अपनाया और कला तथा प्राचीन सभ्यता संस्कृति के विकास के लिए बौद्ध मिशनरियों की गतिविधियों का विस्तार किया। 1400 ईसवी के आस-पास जब चीनी बौद्ध यात्री फ़ाह्यान भारत आया, तब उसने शाही महल को खड़े हुए देखा था। शाही महल के साथ-साथ दीवारों दरवाजों तथा अन्य कलाकृतियों को देखकर वह इतना प्रभावित हुआ कि उसे विश्वास ही नहीं हुआ कि उनका निर्माण मानव कलाकारों-चित्रकारों के हाथों हुआ होगा।
स्तंभ
अशोक ने अपने शासन काल में स्तंभों का निर्माण बड़े पैमाने पर कराया था। इन स्तंभों को उसने बौद्ध धर्म, संस्कृति एवं सभ्यता के प्रचार प्रसार के साथ अन्य महत्वपूर्ण कार्यों एवं घटनाक्रमों के प्रतीक के रूप में लगवाया था। अशोक के शासनकाल के दौरान लगाये गये श्वेत-भूरे पत्थर उसके पूरे राज्य में देखे जा सकते थे। अशोक द्वारा लगाये गये उन स्तंभों में अनेक स्तंभों में बौद्ध धर्म की इबारतें भ लिखी हुई थीं। स्तंभों के माध्यम से उसने बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार किया।
अशोक के शासन काल में लगे स्तंभ तकरीबन 40 फीट ऊंचे होते थे। उन स्तंभो में कलाकृतियाँ भी अभिचित्रित थीं। उनमें पुष्पदल, घंटी-जैसी आकृतियों के साथ साथ जानवर भी चित्रित होते थे। स्तंभ के चारों ओर जानवरों की आकृतियाँ दिखायी देती थीं। जिनमें सिंह बैल अथवा हाथी मुख्यत: होते थे।
रामपुरवा से मिले वृषभस्तंभ[1] में वृषभ को कुछ इस तरह से दिखाया गया है-जिस तरह के चित्र सिंधु घाटी की खुदाई से प्राप्त पुरानी सीलों पर चित्रित थे। माना जाता है कि वे प्राचीन पंरपरा की वे एक कड़ी के रूप में हैं। सारनाथ, जहाँ बुद्ध ने अपना पहला व्याख्यान दिया, वहाँ सिंह स्तंभ लगे थे। उस स्तंभ में बैल, घोड़ा, सिंह और हाथी क्रमवार अंकित थे, उनके बीच में चक्र था। जो वाहन का प्रतीक था। ऐसा लगता है कि वह स्तंभ धर्म का वाहन था। यह स्तंभ मूल रूप से विशाल पत्थर का है जिसमें पाहिये हैं और उस स्तंभ के ऊपर सिंहों की आकृतियाँ अंकित है। उस स्तंभ में अंकित आकृतियाँ प्राचीन काल का अद्भुत नमूना हैं। और उसमें चित्रित्र कलाकृतियाँ इस खूबसूरती से ढ़ीली गयीं कि जिनकी प्रसिद्धि आज भी विद्यमान है। इसी के साथ वे भारत की प्राचीन महान कलात्मक उपलब्धियों की भी परिचायक हैं।
स्तूप
अशोक के शासन काल के पहले भी भारत में स्तूप जैसी चीजें ज्ञात थीं। मूलरूप से वैदिक आर्यों ने इंटों और साधारण मिट्टी से उनका निर्माण किया था। मौर्यकाल के पहले इस तरह के स्तूपों के उदाहरण नहीं मिलते हैं। अशोक के शासनकाल में बुद्ध के शरीर को ध्यान में रखकर स्मृति चिन्हों का निर्माण किया गया और यही स्तूप पूजा के साधन बने। बौद्ध कला और धर्म में स्तूप को भगवान बुद्ध के स्मृति चिन्ह के रूप में स्वीकार किया गया। स्तूप अंदर से कच्ची ईटों से तथा बाहरी खोल पक्की ईटों से बनाये गये और फिर उनमें हल्का प्लास्टर चढ़ाया गया। स्तूप को ऊपर से लकड़ी अथवा पत्थर की छतरी से सुसज्जित किया गया और प्रदक्षिणा के लिए चारों ओर लकड़ी का मार्ग भी बनाया गया।
मानवीय आकृतियाँ
मौर्यकाल की मानवीय आकृतियों का प्रदर्शन करने वाली अनेक पत्थर की कलाकृतियाँ भी पायी गयी हैं। उनमें एक है- चौरी महिला की संरक्षित प्रतिमूर्ति जो पटना संग्रहालय में रखी हुई है। यह मूर्ति दीदारगंज के निवासियों को मिली थी। उसमें प्रयोग की गयी पालिश और रख-रखाव की तकनीक निसंदेह रूप से मौर्य काल की है।
इस मूर्ति के शरीर के निचले हिस्से में वस्त्र हैं। इसके अतिरिक्त उस महिला ने कानों, बाहों और गले में बड़ी मात्रा में आभूषण पहने हुए हैं। इस प्रतिमूर्ति को भारतीय कला जगत के विकास की एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में देखा जाता है। इसी के साथ, चिपके निचले वस्त्र, वस्त्रहीन धड़ एवं प्रचूर आभूषण आम हो गये।
प्रारंभिक कला: शुंग एवं सातवाहन साहित्य
मौर्यों के बाद उत्तर भारत में (184 ईसा पूर्व) मुख्यत: सत्ता में शुंग रहे। सातवाहनों के पास दक्षिण पश्चिम क्षेत्र था। इन दोनों के शासनकाल में कला रचनात्मक गतिविधि के चरण में पहुंची, जिसने बौद्ध धर्म के सहारे और उसको मुख्य स्त्रोत बनाते हुए घरेलू कलात्मक आंदोलन का एक साथ प्रतिनिधित्व किया। इस युग को प्रारंभिक कला के रूप में कला के इतिहास का दौरा कहा जाता है। शुंग-सातवाहन युग की कला का प्रभाव उत्तर भारत के बोधगया, सांची और भरहुत में बौद्ध आश्रमों के प्रवेश द्वार और रेलिंग में स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है, जिन्हें स्तूप कहा जाता है, तो पश्चिमी भारत में पीतलखोरा, कोण्डाने और भाजा में पत्थर निर्मित गुफा-आश्रमों के चिन्ह स्पष्ट परिलक्षित हैं। भारतीय कला क्षेत्र में कला का जो प्रारंभिक दौर है वह कला के विकास का रचनात्मक युग है, जिसकी नीव इस तरह से रखी गयी कि वह भारतीय वास्तु और शिल्प के उच्च बौद्धिक और शहरी स्तर के विकास में सहयोग कर सके। फिर भी कला के विकास का यह प्रारंभिक दौर सौदर्यपूर्ण आंदोलन का युग रहा जो कुषाण के शासन काल में कला के विकास के महानतम युग में प्रविष्ट हुआ।
कुषाण काल
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कुषाण साम्राज्य में निर्मित मूर्तियाँ मूर्तिकला का अद्भुत उदहारण है। साम्राज्यवाद का कुषाण युग, इतिहास का एक महानतम आंदोलन रहा है, यह उत्तर पूर्वी भारत तथा पश्चिमी पाकिस्तान, (वर्तमान अफगानिस्तान) तक फैला था। ईसवीं की पहली शताब्दी से तीसरी शताब्दी के बीच कुषाण एक राजनीतिक सत्ता के रूप में विकसित हुए और उन्होंने इस दौरान अपने राज्य में कला का बहुमुखी विकास किया। भारतीय कला जगत का परिपक्व युग यहीं से प्रारंभ होता है।
गांधार शैली
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गांधार मूर्तिकला की सबसे उत्कृष्ट मूर्ति वह है- जिसमें बुद्ध को एक योगी के रूप में बैठे हुए दिखाया गया था। एक सन्यासी के वस्त्र पहने उनका मस्तक इस तरह से दिखायी दे रहा है। जैसे उसमें आध्यात्मिक शक्ति बिखर रही हो, बड़ी-बड़ी आँखे, ललाट पर तीसरा नेत्र और सिर पर उभार। ये तीनों संकेत यह दिखाते हैं कि वह सब सुन रहे हैं, सब देख रहे हैं और सब कुछ समझ रहे हैं।
बुद्ध के तीन रूप
यद्यपि बुद्ध के ये तीनों रूप विदेशी कला द्वारा भी प्रभावित हैं। बहरहाल शुद्ध रूप से भारतीय प्रतीत होती यह मूर्ति यह दर्शाती है कि कला घरेलू और विदेशी तत्वों का मिलाजुला रूप है। गांधार क्षेत्र की कला के जो महत्वपूर्ण तत्व हैं और उनकी जो शक्ति है- वह उत्तर पश्चिमी भारत की बौद्ध कला में देखी जा सकती है और यह प्राचीन देवताओं का प्रतिनिधित्व एवं उनके रूप दिखाती हैं। इसी तरह का प्रभाव खुदाई से निकले पत्थरों में भी देखा जा सकता है, यह पत्थर चाहे अपनी कलात्मक शैली या अपने दैवीय रूप को दिखाते हों लेकिन उनका रोमन वास्तुकला से साम्राज्यवादी समय से ही गहरा संबंध रहा है, मूर्ति की स्थिति, शरीर का आकार और उसका वास्तु ढांचा स्पष्टत: रोमन मॉडल पर ही आधारित है।
मथुरा शैली
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ईसा काल की प्रथम तीन शताब्दियाँ मथुरा शैली मूर्तिकला का स्वर्णिक काल हैं। महायान बौद्ध धर्म के नये आदर्शों ने तत्कालीन मूर्ति शिल्पकारों को प्रेरित किया था। भारतीय पुरातत्वशास्त्रियों के अनुसार, बुद्ध मूर्तियों का निर्माण इस शैली के कलाकारों का महान योगदान है। इन मूर्तियों में प्रयुक्त पत्थर सफेद-लाल था, जो शताब्दियों तक अपनी उत्कृष्ट कलात्मक गुणवत्ता के रूप में विद्यमान रहा। यह शैली जैनों ग्रीकों एवं रोमनों की शैलियों से भी प्रभावित थी। जैन शैली द्वारा प्रभावित एक स्तूप की रेलिंग में चित्रित एक आकर्षक महिला की आकृतिया जो अत्यधिक आभूषणों से यिक्त है, प्राचीन भारतीय कला की यादगार और उल्लेखनीय कलाकृति सन्यास और धर्मपरायणता के सन्दर्भ में मठ की की इन मूर्तियों में कहीं भी अश्लीलता और कामोत्तेंना की भावभंगिमा नहीं दिखायी देती है।
भारतीय कला के इतिहास, मथुरा की कुषाण कला में इसलिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि उसने प्रतीकवाद और मूर्ति शिल्पवाद को अपनाया और बाद में उसे स्वीकार कर लिया। उदाहरण के लिए, पहली बार मथुरा में देवी-देवताओं की मूर्तियों की रचना की गयी। बुद्ध मूर्तियों का प्रभाव चारों ओर फैला और चीन के कला केंन्द्रों तक पहुंचा। इस शैली की कुछ उल्लेखनीय कलाकृतियों में वेमा कदफीज और कनिष्क की मूर्तियाँ, महिलाओं के चित्र सहित अनेक रेलिंग स्तंभ, बैठे हुए कुबेर एवं ध्यानरत बौद्ध प्रतिमाएं प्रमुख हैं।
गुप्तकालीन मूर्तिकला
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भारतीय कला के इतिहास में गुप्त काल को इसलिए महान युग कहा जाता है- क्योंकि कलाकृतियों की संपूर्णता और परिपक्वता जैसी चीजें इससे पहले कभी नहीं रहीं। इस युग की कलाकृतियों मूर्तिशिल्प, शैली एवं संपूर्णता, सुंदरता एवं संतुलन जैसे अन्य कला तत्वों से सुसज्जित हुई।
गुप्त धर्म से ब्राह्मण थे और उनकी भक्ति विशेष रूप से विष्णु में थी, किंतु उन्होंने बौद्ध धर्म और जैन धर्म के लिए भी उदारता दिखायी। पौराणिक हिंदू धर्म में तीन देवता हैं विष्णु, शिव एवं शक्ति। शिव के प्रति उनमें विशेष अनुराग था यानी शिव अग्रणी देवता थे। यद्यपि दक्षिण और पूर्व में शैववाद का विकास हुआ तथा दक्षिण-पश्चिम मालाबार के कुछ भागों में एवं पूर्वी भारत में शक्तिवाद का विकास हुआ कृष्ण पर आधारित वैष्णववाद था जो मुख्यत: भारत के उत्तरी एवं मध्यम भाग में केंद्रित रहा। इन सभी धार्मिक देवताओं की पूजा सब जगह होती रही और उनके मन्दिर एवं उनकी मूर्तियाँ सब जगह प्रतिष्ठापित हुई।
गुप्त कला अध्यात्मिक गुणों से युक्त है और उसकी दृष्टि भी जीवन की गहन सच्चाई को दर्शाती है। यद्यपि गुप्तकाल का प्रारंभिक दौर हिंदू कला पर जोर देता है, जबकि बाद का युग बौद्ध कला का शिखर युग है, जो सभी प्राचीन कलाओं और उनकी मनोभावना व गुणवत्ता का द्योतक है। हिंदू कला ने चंद्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल के दौरान विदिशा अंचल में ही उन्नति की।
उदयगिरि गुफाएं:
गुप्त काल में उदयगिरि में 20 पत्थर जनिक प्रकोष्ठों का उत्खनन किया गया था, जिनमें दो में चंद्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल से जुड़ी हुई चीजें थीं। ये गुफाएं अत्यंत महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं, क्योंकि वे भारत में हिंदू कला के प्रारंभिक स्वरूप की परिचायक हैं और यह दिखायी हैं कि पांचवी शताब्दी के प्रारंभ में ही हिंदू मूर्ति शिल्प कला स्थापित हो चुकी थी। उदयगिरि में मिली महत्वपूर्ण गुफाओं में एक है गुफा-5, वाराह गुफा। इसकी प्रमुख विशेषता इसका वृहत् शैल जनिक आकार है जो भगवान विष्णु के अवतार वाराह द्वारा पृथ्वी माता को विप्लव से बचाने का परिचायक है। भारतीय कलाकारों की क्षमता और उनकी शक्ति इस काल में विध्वंस और विनाश के खिलाफ एक आध्यात्मिक, ब्रह्मशक्ति के रूप में परम ऊंचाइयों पर पहुंची।
ऐरान
विदिशा के निकट ऐरान में एक वैष्णव क्षेत्र है, जो मंदिरों की एक महान श्रंखला के रूप में स्थित है, उन मन्दिरों में उत्कीर्ण मूर्ति कला गुप्त काल के दौरान विकसित की गयी थी। ऐरान में मिले अभिलेख, समुद्रगुप्त के शासनकाल से लेकर छठी शताब्दी के प्रारंभ में हूण आक्रमण के समय की कलात्मक गतिविधियों के दस्तावेज है। यहाँ मिली वाराह की वृहद् मूर्ति पांचवी शताब्दी के प्रारंभ में ऐरान व उदयगिरि के मध्य कलात्मक विकास व मूर्ति कला के परस्पर संबंधों को दर्शाती है। जिसमें देवी देवताओं की शक्ति को पूरी तरह से शरीर के भाव और उसकी भंगिमा द्वारा प्रदर्शित किया गया है।
देवगढ़
झांसी ज़िले के देवगढ़ में दशावतार मन्दिर में उत्कीर्ण पौराणिक और धार्मिक कलाकृतियों अध्यात्मिक गुणों के साथ-साथ मूर्तिकला का उदाहरण भी प्रस्तुत करती हैं। ये कलाकृतियां गुप्त कला पंरपरा का प्रभाव दर्शाती हैं। यहाँ के मन्दिर चौकोर कमरे के ऊपर तीन चरण में पूर्ण विकसित शिखर दर्शाते हैं। दीवारों के बाहरी भाग में तीन बड़े द्वारफलत तथा एक तरफ सुंदर द्वार मार्ग बना हुआ है।
अन्य मूर्तियाँ
गुप्त मूर्ति कला की सफलता प्रारंभिक मध्यकाल की प्रतीकात्मक छवि एवं कुषाण युग की कलापूर्ण छवि के मध्य निर्मित एक संतुलन पर आधारित हैं।
हिंदू, बौद्ध एवं जैन कलाकृतियाँ मध्य भारत सहित देश के अनेक भागों में पायीं। ये मूर्ति कला में अद्वितीय हैं। बेस नगर से गंगा की मूर्ति, ग्वालियर से उड़ती हुई अपस्राओं की मूर्ति, सोंडानी से मिली हवा में लहराते गंधर्व युगल की मूर्ति, खोह से प्राप्त एकमुख लिंग, और भुमारा से अन्य कई प्रकार की मिली मूर्तियाँ उसी सुंदरता, परिकल्पना और संतुलन को प्रदर्शित करती हैं। जैसा कि सारनाथ में देखा जाता है।
भगवान हरिहर[2] की मानवाकार प्रतिमा मध्य प्रदेश में मिली है। अनुमान है यह पांचवी ईस्वी के पूर्वाद्ध की रचना है। विष्णु का आठवां अवतार कहे गए कृष्ण की प्रतिमाएं भी 5 वीं सदी ई. के आरंभिक काल से मिल रही हैं। वाराणसी से प्राप्त एक मूर्ति में उन्हें कृष्ण गोवर्धनधारी के रूप में अंकित किया गया है। जिसमें उन्हें बाएं हाथ के सहारे गोवर्धन पर्वत उठाए दिखाया गया है। जिसके नीचे वृंदावनवासी जल प्रलय से बचने के लिए एकत्रित हुए थे। वह भयावह जलवृष्टि इंद्र ने भेजी थी, जो वृंदावन वासियों की अपने प्रति उपेक्षा से क्रोधित हो उठे थे।
बुद्ध की प्रतिमाएं
गुप्तकालीन मूर्तिशिल्प में बुद्ध धर्म का शांति आदर्श अत्यंत भव्यता से बुद्ध की मूर्तियों में अभिव्यक्त हुआ है। उनके चहरे की भाव मुद्रा और मुस्कान उस परम समरसता की अनुभूति को दर्शाती है, जिसे उस महाज्ञानी ने प्राप्त किया था। इन मूर्तियों के शिल्प की हर रेखा में सौंदर्य और भाव का परम्परागत स्वरूप दर्शाया गया है। कायिक स्थिति, हस्त मुद्राएं और अन्य सभी लक्षण प्रवृति-प्रतीकों के रूप में उपस्थित हैंमस्तक अंडाकार भौंहे कमान जैसी, पलकें कमल की पंखुड़ियां, अधर आम्रफल की तरह, कंधों की गोलाई हस्तिशुण्ड जैसी, कटि सिंह की और उंगलियां फूलों जैसी।
सांची के विशाल स्तूप के प्रवेश द्वारों पर पांचवी सदी में रखी गयी बुद्ध की चार प्रतिमाएं उस कोमलता, लालित्य और प्रशांति को दर्शाती हैं, जो समृद्ध और परिपक्व गुप्तकालीन शिल्प विधा की विशेषताएं हैं। बुद्ध की काया की रूपरेखाओं में दर्शित लालित्यपूर्ण अनुकूलन मूर्तिशिल्प के उस विकास क्रम को व्यक्त करता है, जिसे प्रारंभिक गुप्तकालीन कोणीय स्वरूप का अगला चरण कहा जा सकता है। बुद्ध की प्रतिमाएं मथुरा में भी मिली हैं, जो बौद्ध धर्म का सुसम्पन्न केन्द्र रहा था। इनमें एक सबसे प्राचीन प्रतिमा 5वीं सदी ई. की है, जो पूर्ववर्ती प्रतिमाओं के भारी आयतन अपनाने के बावजूद कुषाणकालीन आदिरूपों से दृष्टियों से भिन्न है। शाक्यमुनि की उत्कीर्ण उत्तिष्ठ मुद्रा में प्रतिमा पूर्णत: भिक्षु के परिधान में हैं, जिसकी तहें समानांतर छल्लों में दर्शित हैं। बुद्ध के सिर की पीछे प्रभामंडल भी बनाया गया है। इस काल में बौद्ध मूर्तिशिल्प का एक अन्य सक्रिय केन्द्र सारनाथ था, जहाँ बुद्ध की खड़ी और बैठी प्रतिमाएं बनाई गई। सारनाथ के खंडहरों में मिली बुद्ध की अपेक्षाकृत अधिक उभार वाली मूर्ति को गुप्तकालीन मूर्तिकला का सर्वसुंदर और भव्य प्रतिमान कहा जा सकता है। हल्के रंग के बुलई पत्थर से बनी इस प्रतिमा में बुद्ध को बैठकर अपना प्रथम उपदेश देते हुए दर्शाया गया है। प्रतिमा की पीठिका के नीचे घुटनों के बल झुके हुए दो भिक्षुक को न्यायचक्र की पूजा करते दिखाया गया है। इस न्याय चक्र को बुद्धि का प्रतीक मानते हैं। सारनथ की इस बुद्ध प्रतिमा में उत्कृष्टता से चित्रित प्रभामंडल इसकी विशेषता है। यद्यपि भित्तिचित्र अजंता की सर्वाधिक महत्वपूर्ण कलाकृतियां हैं, पर गुहा ,अन्दिर का स्थापत्य शिल्प और प्रवेश द्वारों पर नक्काशी भी असाधरण है। इन मंदिर में जो शैलियां मूलरूप से चिनाई और काष्ठ कला रोपों में विकसित हुई, उन्हें समकालिन चट्टानों से तराश गया था। ये कृतियाँ असंख्य और विविध शैली की हैं और इन्हें बिना किसी एकीकृत नियोजन के प्रवेश अग्रभागों पर अंकित किया गया है।
पाल शैली
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- पाल शैली की विशेषता इसकी मूर्तियों में परिलक्षित अंतिम परिष्कार है।
- बिहार और बंगाल के पाल और सेन शासकों के समय में[3] बौद्ध और हिंदू दोनों ने ही सुंदर मूर्तियाँ बनाई।
- इस मूर्तियों के लिए काले बैसाल्ट पत्थरों का प्रयोग किया गया है।
- मूर्तियां अतिसज्जित और अच्छी पॉलिश की हुई हैं- मानो वे पत्थर की न होकर धातु की बनी हों।
होयसल शैली
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होयसल शैली(1050-1300ई) का विकास कर्नाटक के दक्षिण क्षेत्र में हुआ। ऐसा कहा जा सकता है कि होयसल कला आरंभ ऐहोल, बादामी और पट्टदकल के प्रारंभिक चालुक्य कालीन मंदिरों में हुआ, लेकिन मैसूर क्षेत्र में विकसित होने के पश्चात ही इसका विशिष्ट स्वरूप प्रदर्शित हुआ, जिसे होयसल शैली के नाम से जाना गया। अपनी प्रसिद्धि के चरमकाल में इस शैली की एक प्रमुख विशेषता स्थापत्य की योजना और सामान्य व्यवस्थापन से जुड़ी है। एक महत्वपूर्ण स्मारक हासन ज़िले में बेलूर स्थित केशव मंदिर है। इसका निर्माण विष्णुवर्धन ने करवाया था। तलकाड़ में चोल शासकों पर उसकी विजय के उपलक्ष्य में निर्मित इस मंदिर के इष्ट देव को- वस्तुत अपने केशव रूप में विष्णु ही- विजय नारायण कहा गया। मन्दिर के मुख्य भवन में हैं- सामान्य कक्ष, अंतर्गृह, जो द्वारमंडप से जुड़ा है, एक खुला स्तंभ मंडप और केंद्रीय कक्ष। किंतु वास्तविक वास्तुयोजना के हिसाब से होयसल मंदिर केशव मन्दिर और हेलाबिड के मन्दिर सोमनाथपुर और अन्य दूसरों से भिन्न हैं। स्तम्भ वाले कक्ष सहित अंतर्गृह के स्थान पर इसमें बीचो बीच स्थित स्तंभ वाले कक्ष के चारों तरफ बने अनेक मंदिर हैं, जो तारे की शक्ल में बने हैं। कई मंदिरों में दोहरी संरचना पायी जाती है। इसके प्रमुख अंग दोहैं और नियोजन में प्राय: तीन चार और यहाँ तक कि पांच भी हैं। हर गर्भगृह के ऊपर बने शिखर को जैसे-जैसे ऊपर बढ़ाया गया है, उसमें आड़ी रेखाओं और सज्जा से नयापन लाया गया हैं, जो शिखर को कई स्तरों में बांटते हैं और यह धारे-धीरे कम घेरे वाला होता जाता है। वस्तुत: होयसल मंदिर की एक विशिष्टता संपूर्ण भवन की सापेक्ष लघुता है। तथापि 1117 ई. में बना बेलूर स्थित केशव मंदिर अपनी अधिसंरचना के बिना भी (जिस रूप में यह आज खड़ा है) अपने उत्कृष्ट सौंदर्य को अभिव्यक्त करने में सक्षम है। इस मंदिर की कुछ अतिप्रशंसित मूर्तियां, जिन्हें कन्नड़ भाषा में 'मदनकाइस' कहा जाता है। को मंडप की प्रलम्ब छत के नीचे रखा गया है। मन्दिर का आंतरिक भाग भी उतना ही भव्य है, जितना बाहरी। मंडप के हर स्तंभ पर खूबसूरत नक्काशी की गई है। कुछ पर आकृतियां हैं तो कुछ पर अन्य रूप तथा कुछ सहज गोलाई लिए हुए हैं। मंदिर में प्रवेश मार्ग के दोनों तरफ विशाल वैष्णव द्वारपाल हैं। होयसलों की राजधानी हेलबिड में सबसे प्रमुख भवन होयसलेश्वर मन्दिर है। शिव को समर्पित है। इसे अलंकृत निर्माण शैली का एक श्रेष्ठ उदाहरण माना जा सकता है। मान्यता है कि इसका निर्माण कार्य1121 ई. में प्रारंभ हुआ था और विष्णुवर्धन के पुत्र और उसके उत्तराधिकारी नरसिंह प्रथम के वास्तुकारों ने 1160 ई. में इसे पूरा किया था। इसमें दो एकसमान मंदिर हैं, जो एक ही विशाल आधार मंच पर बने हैं। दोनों क्रुसाकार दीर्घा के माध्यम से आपस में जुड़े हुए हैं। नरसिंह तृतीय द्वारा निर्मित मंदिरों में सोमनाथपुर का प्रसिद्ध केशव मंदिर है (जिसे सोमनाथ भी कहा जाता है) यह अलंकृत शैली में बना एक वैष्णव मंदिर है। वास्तुशिल्प नियोजन के अतिरिक्त होयसल शैली की कुछ अन्य विशेषताएं भी थीं। इसमें बलुई पत्थर के स्थान पर पटलित या स्तारित चट्टान का प्रयोग किया गया क्योंकि इस पर तक्षण कार्य अच्छी तरह से किया जा सकता है। शिल्पकारों द्वारा एकाश्मक अखंडित चट्टान को बड़ी लेथ पर घुमाकर इच्छित आकार देने की क्रिया के चलते स्तंभों को विशिष्ट रूप मिल जाता था। और इन मन्दिरों को निरंतर समृद्ध होते वास्तु अलंकरण से अलंक़ृत किया भी जाता था।
उड़ीसा के मंदिर
उड़ीसा में आठवीं सदी से तेरहवीं सदी के मध्य तक बने मंदिर भारतीय-आर्य वास्तुकला के आरंभिक रूप की झलक प्रस्तुत करते हैं। भुवनेश्वर में अनेक मंदिरों का निर्माण हुआ, जिससे इसे 'मंदिरों का शहर' नाम दिया गया। इनमें सबसे विलक्षण शिव को समर्पित लिंगराज मंदिर है। गर्भगृह के ऊपर बने विसाल शिखर का परवलयिक वक्र इस शैली का विशिष्ट उदाहरण है। यह मनंदिर चार कक्षों की श्रंखला के रूप में पूजा-अर्चना, नृत्य, सभा और गर्भगृह के लिए बनाया गया है। भुवनेश्वर में एक अपेक्षाकृत छोटा किंतु अत्यंत सुंदर मुक्तेश्वर मंदिर है। इसे प्राय: उड़ीसा की वास्तुकला का रत्न कहा जाता है। इस मंदिर का महत्व केवल इसके सौंदर्य और वास्तुकला की सर्वांग संपूर्णता में ही निहित नहीं है, वरन यह उड़ीसा वास्तुकला के विकासक्रम में आरंभिक और परवर्ती निर्माण शैलोयों का महत्वपूर्ण संक्रमण बिंदु भी है। पुरी के निकट स्थित कोणार्क के सूर्य मंदिर को 'ब्लैक पगोडा' भी कहा जाता है। यह उत्तर भारत के विशाल हिंदू मंदिरों में सबसे प्रमुख और अंतिम है। इसे उड़ीसा मूर्तिकरों द्वारा वास्तुकला के सर्वांग विधानों के साथ अलंकृत मूर्तिकला के सामंजस्य प्रयासों के भव्य और गौरवशाली चरमोत्कर्ष के रूप में देखा जा सकता है। सम्राट नरसिंह देव (1238-64) ई. द्वारा बनवाया गया यह मंदिर सुसज्जित अश्वों द्वारा खींचे जाने वाले और विशाल पहियों वाले सूर्यदेव के आकाशरथ की परिकल्पना पर आधारित है। पीठिका मंच और प्रमुख कक्ष के अग्रभाग उत्कीर्णिक चित्रवल्लरियों से सुसज्जित है। जिनमें पृथ्वी पर जीवन के आनंद और सूर्य की ऊर्जाप्रदायी शक्ति-अर्क को प्रतिबिम्बित किया गया है। कोणार्क में उत्कीर्णिक दृश्यों में प्रेमरत युगल या मिथुन हैं। हालांकि इन असंख्य दृश्यों को अज्ञात शिल्पियों ने बनाया है, ये नक्काशियां भारतीय कला के सर्वश्रेष्ठ उदाहरणों में गिनी जा सकती हैं और इनसे साफ पता चलता है उस समय भारत में तकनीकी प्रदर्शन और कलात्मक उत्प्रेरण का कितना उच्च स्तर रहा होगा। दुर्भाग्यवश, यह मंदिर पूरा न हो सका और इस समय वह खंडहर की स्थिति में पड़ा है। पुरी का जगन्नाथ मंदिर तथा राजा-रानी का मंदिर उड़ीसा वास्तुशैली के उत्कृष्ट नमूने हैं। सामान्यत: उड़ीसा के मंदिरों में स्तंभ नहीं होता और उनकी छतों को आंशिक रूप से लोहे के गार्डरों पर टिकाया जाता था- यह एक महत्वपूर्ण तकनीकी नवीनता थी। इन मंदिरों का बाह्म भाग तो बड़ी भव्यता से सजाया गया है, लेकिन आंतरिक भाग को असज्जित ही छोड़ दिया गया (केवल मुक्तेश्वर मंदिर इसका अपवाद है।)
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जो अब नयी दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में है
- ↑ आधा शिव और आधा विष्णु
- ↑ 8से 12वीं सदी